Wednesday, March 23, 2011

सादी यूसुफ़ : रोजमर्रा के काम


सादी यूसुफ़ का परिचय और उनकी एक कविता आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. आज उनकी एक और कविता. कुछ दिनों पहले मैनें सादी यूसुफ़ की हमवतन कवि, दून्या मिखाइल की कविताएँ पोस्ट की थीं, जिसमें एक कविता में एक बच्चे के लिए युद्ध का मतलब वह बटन है जिससे बत्ती बुझाई जाती है.  सादी यूसुफ़ की इस कविता में भी युद्ध को, ऐसे ही सिहरा देने वाले ब्योरों के माध्यम से देखा गया है...
















रोजमर्रा के काम 
(1982 में  इजराइल द्वारा बेरुत की घेरेबंदी के दौरान लिखे गए एक सिलसिले से) 

हमला 
कमरा कांपता है 
दूर हो रहे विस्फोटों से.
परदा कांपता है. 
और फिर दिल भी कांपता है.
क्यों हो तुम इतनी सारी कंपकंपियों के बीच ? 

पानी  
भरत पक्षी पीता है, 
सितारा पीता है,
समुन्दर पीता है,
और चिड़िया 
और घर के पौधे
और साबरा के बच्चे पीते हैं 
एक बम विस्फोट का धुंआ. 

एक कमरा 
कुछ नहीं है इसमें, सिवाय 
एक किताबों की आलमारी,
एक चारपाई,
और एक पोस्टर के.
एक लड़ाकू विमान उड़ता है ऊपर,
हवा में उठा लेता है चारपाई 
और आखिरी किताब को 
और राकेट से फाड़ देता है 
पोस्टर का एक हिस्सा.

बिजली 
अचानक हमें याद आती हैं गाँव की रातें 
और बगीचे 
और आठ बजे ही जाना बिस्तर पर.
अचानक हम सीख जाते हैं सुबह का इस्तेमाल. 
हम सुनते हैं मुअज्ज़िन की अज़ान 
और मुर्गे की बांग 
और शांत गाँव. 

किधर 
किधर जाता है यह लड़का 
इस अजीब सी शाम को ? 
एक पानी की बोतल और एक ग्रेनेड 
टंके हुए उसकी चौड़ी बेल्ट पर 
और हथियार जो कभी अलग नहीं होता उससे ?
क्या वह समुन्दर की तरफ जा रहा है ?

आह, यह अजीब लड़का ! 

रेडियो 
कचरे के मैदान हों या महल 
रेडियो रहता है हमारे साथ हर जगह 
अगल-बगल आगे बढ़ाए जाते चाय के प्यालों,
और यहाँ-वहां होते विस्फोटों के बीच. 
थोड़ा गा सकते हैं हम.
और रख सकते हैं थोड़ी उम्मीद.
बचा रहता है हमारा रेडियो 
क़यामत के दिन के बिगुल की तरह.  

राशन 
इनसे हम क्या खरीदने जा रहे हैं ?
क्या एक ही कमीज रहना काफी नहीं है,
या एक ही पुरानी जींस, 
आधी पावरोटी और चीज होना, 
और चहारदीवारी के पीछे से तोड़े गए फूल होना ही काफी नहीं है ?
इनसे हम क्या खरीदने जा रहे हैं ? 
शायद एकता का एक पल. 

तोपखाना 
बिजली कड़कती है सुबह-सुबह 
और समुन्दर घेर लेता है शहर को धुंए की तरह. 
बिजली कड़कती है सुबह-सुबह 
और डर जाती है एक चिड़िया.
हवाईजहाज आ गए क्या ?

सूनी इमारत में 
खामोशी से गिरता है एक पौधा 
और बर्तन सिहरते हैं. 

                                                बेरुत, जून-अगस्त / 1982 

(अनुवाद : मनोज पटेल)     
Poems in Hindi Translation  

8 comments:

  1. apki speed hairan karne vali hai. ap khamoshi se apna kam kiye jate hai jabki aur logo ko bar bar apna kam yad dilana padta hai.

    thanks to bahut kam hoga.

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  2. dil per dastak deti rachna ....
    apni yah rachna rasprabha@gmail.com per bhejen parichay tasweer blog link ke saath vatvriksh ke liye

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  3. ख़ामोशी से गिरता है एक पौधा और बर्तन सिरहाते हैं, बेहद मार्मिक.
    वहां की जो भी स्थिति है, उसे सिर्फ अखबारों या कुछ ऐसे ही शब्दों के ज़रिये महसूस कर सकते हैं..और इन पर्दों के पीछे भी चीखें दब नहीं पातीं, ना ही वो आग ठंडी हो पाती है जो दूर किसी का घर जला रही होती है !

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  4. ख़ामोशी से गिरता है एक पौधा और बर्तन सिरहाते हैं, बेहद मार्मिक.
    वहां की जो भी स्थिति है, उसे सिर्फ अखबारों या कुछ ऐसे ही शब्दों के ज़रिये महसूस कर सकते हैं..और इन पर्दों के पीछे भी चीखें दब नहीं पातीं, ना ही वो आग ठंडी हो पाती है जो दूर किसी का घर जला रही होती है !

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  5. Bahut sunder aur marmik kwitayen.Shubhkamna.

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  6. बहुत सुन्दर और मार्मिक कवितायेँ| धन्यवाद |

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