महमूद दरवेश के गद्य और कवितायेँ आप कई बार इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. आज फिर से उनका एक गद्यांश, और एक कविता. गद्यांश का शीर्षक अनुवादक की ओर से...
गद्यांश क्या तुम ज़िंदा हो ?
एक ख्वाब से दूसरा ख्वाब पैदा होता है :
-- क्या तुम ठीक हो ? मेरा मतलब है कि क्या तुम ज़िंदा हो ?
-- तुम्हें कैसे पता चला कि बस इसी पल मैं सोने के लिए तुम्हारी गोद में अपना सर रख रहा था ?
-- क्योंकि जब तुम मेरे पेट में हिलने-डुलने लगे तो तुमने मुझे जगा दिया था. मैं समझ गयी थी कि मैं तुम्हारा ताबूत हूँ. क्या तुम ज़िंदा हो ? क्या तुम मुझे सुन सकते हो ?
-- क्या ऐसा अक्सर होता है, कि तुम एक ख्वाब से दुसरे ख्वाब में जागते होवो, जो खुद ख्वाब की ताबीर होता हो ?
-- यह देखो, यह तुम्हारे साथ हो रहा है और मेरे भी साथ. क्या तुम ज़िंदा हो ?
-- लगभग.
-- और क्या शैतान ने तुम पर अपना जादू चला दिया है ?
-- मुझे नहीं पता, लेकिन अपने वक़्त पर मौत की गुंजाइश है.
-- पूरी तरह से मत मरना.
-- मैं कोशिश करूंगा.
-- मरो ही मत, एकदम से.
-- मैं कोशिश करूंगा.
-- मुझे बताओ, यह सब कब हुआ था ? मेरा मतलब है, हम कब मिले ? कब बिछड़े ?
-- तेरह साल पहले.
-- क्या हम कई बार मिले थे ?
-- दो बार : एक बार बारिश में, और फिर दूसरी बार भी बारिश में ही. तीसरी बार, हम कभी मिले ही नहीं. मैं चला गया और तुम्हें भूल गया. कुछ समय पहले मुझे याद आया. मुझे याद आया कि मैं तुम्हें भूल गया था. मैं ख्वाब देख रहा था.
-- ऐसा मेरे साथ भी होता है. मैं भी ख्वाब देख रही थी. मैंने स्वीडन के एक दोस्त से तुम्हारा फोन नंबर हासिल किया जो तुमसे बेरुत में मिला था. मैनें तुम्हें शब्बखैर कहा था ! न मरने वाली बात मत भूलना. मैं अब भी तुम्हें चाहती हूँ. और जब तुम दुबारा ज़िंदा हो जाओ तो मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे फोन करना. वक़्त कैसे गुजर जाता है ! तेरह साल ! नहीं. यह सब पिछली रात ही तो घटित हुआ था. शब्बखैर !
* * *
कविता एक छोटा सा काफीघर, जो प्यार है
जैसे एक छोटा सा काफीघर, अजनबियों से भरी सड़क पर --
यही तो है प्यार... सबके लिए खुले हुए इसके दरवाजे.
उस काफीघर की तरह जो फैलता-सिकुड़ता है
मौसम के हिसाब से :
अगर भारी बरसात हो रही हो, तो बढ़ जाते हैं इसके ग्राहक,
और अगर अच्छा मौसम हो, तो इने-गिने और ऊबे हुए होते हैं वे...
मैं हूँ यहाँ, अजनबी, कोने में बैठा हुआ.
(तुम्हारी आँखों का रंग क्या है ? तुम्हारा नाम क्या है ?
मैं तुम्हें कैसे पुकारूं जबकि तुम बगल से गुजर रही हो,
जबकि मैं तुम्हारे इंतज़ार में बैठा हुआ हूँ ?)
एक छोटा सा काफीघर, जो प्यार है.
मैं दो प्यालों में शराब लाने के लिए कहता हूँ
और अपनी और तुम्हारी तंदरुस्ती के नाम पीता हूँ.
मैं दो टोपियाँ साथ लेकर चल रहा हूँ
और एक छाता. अब बारिश होने लगी है.
पहले से भी ज्यादा बारिश होने लगी है,
और तुम भीतर नहीं आती.
आखिरकार मैं खुद से कहता हूँ : शायद जिसका मैं इंतज़ार कर रहा था
वह मेरा इंतज़ार कर रही थी, या किसी और आदमी का,
या हम दोनों का इंतज़ार कर रही थी, और उसे / मुझे ढूंढ़ न सकी.
वह कहेगी : मैं यहाँ इंतज़ार कर रही हूँ तुम्हारा.
(तुम्हारी आँखों का रंग क्या है ? तुम्हारा नाम क्या है ?
तुम्हें किस किस्म की शराब पसंद है ? मैं तुम्हें कैसे पुकारूं जब
तुम बगल से गुजर रहे होवो ?)
एक छोटा सा काफीघर, जो प्यार है...
* *
(अनुवाद : मनोज पटेल)
Mahmoud Darwish ke hindi anuvad
जैसे एक छोटा सा काफीघर, अजनबियों से भरी सड़क पर --
ReplyDeleteयही तो है प्यार... सबके लिए खुले हुए इसके दरवाजे.
उस काफीघर की तरह जो फैलता-सिकुड़ता है.......
great lines....
विश्व साहित्य का एक कतरा रोजाना .....समंदर से मुलाकात ऐसे ही होती है शायद .
ReplyDeleteek chhota sa coffee ghar ... us ghar mein jo khushboo hai, usme pyaar hai , khyaal hai, kuch baaten hain ... jo achhi lagti hi hain
ReplyDeleteबढ़िया कविता....प्यार को ऐसे भी समझना..क्या बात-क्या बात... आभार...
ReplyDeletekamal hai! Bahut hi achcha anuwad aur chayan...
ReplyDeleteवाह ,क्या बात है .........प्यार ........काफीघर ,
ReplyDeleteभारी बारिश में भरा रहता है और अच्छे मौसम में खाली-खाली .........
कमाल की सोंच !
धन्यवाद मनोज जी !
आप हतप्रभ कर रहे हैं हमें और आदत भी बिगाड़ रहे हैं. मगर फ़िर भी कहूंगा की ये सिलसिला अनवरत चलता रहे.
ReplyDeleteशुभकामनाएं.
बहुत खूब .............
ReplyDeleteये भी है प्यार
ReplyDelete...
दुनिया के हर कोने में
एक काफी घर.....
ऐसी ही कितनी कहानियों से लबरेज है
हर काफी घर
.....
दुनिया के हर कोने में
...
धन्यवाद मनोज
....
एक और काफीघर से मिलाने के लिए
प्रतिभा तुम्हें भी....
अनुजा