महमूद दरवेश की इन कविताओं का मेरा अनुवाद समालोचन ब्लॉग पर कवि मित्र अरुण देव की इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ था :
अनुवाद एक गम्भीर सभ्यतागत गतिविधि है. यह भाषाओं के बीच सेतु ही नहीं संस्कृतिओं की साझी लिपि भी है.
अंग्रेजी और उर्दू से हिंदी के अनुवाद क्षेत्र में मनोज पटेल आज एक जरूरी नाम है. हिंदी के अपने मुहावरे और बलाघात के सहारे मनोज मेहमान रचनाकारों को कुछ इस तरह आमंत्रित करते हैं कि कि उनसे सहज ही घनिष्टता हो जाती है. कायान्तरण का यह चमत्कार वह लगभग रोज ही कर रहे हैं.
एक कैफे, और अखबार के साथ आप
एक कैफे, और बैठे हुए आप अखबार के साथ.
नहीं, अकेले नहीं हैं आप. आधा भरा हुआ कप है आपका,
और बाक़ी का आधा भरा हुआ है धूप से...
खिड़की से देख रहे हैं आप, जल्दबाजी में गुजरते लोगों को,
लेकिन आप नहीं दिख रहे किसी को. (यह एक खासियत है
अदृश्य होने की : आप देख सकते हैं मगर देखे नहीं जा सकते.)
कितने आज़ाद हैं आप, कैफे में एक विस्मृत शख्स !
कोई देखने वाला नहीं कि वायलिन कैसे असर करती है आप पर.
कोई नहीं ताकने वाला आपकी मौजूदगी या नामौजूदगी को,
या आपके कुहासे में नहीं कोई घूरने वाला जब आप
देखते हैं एक लड़की को और टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं उसके सामने.
कितने आज़ाद हैं आप, अपने काम से काम रखते, इस भीड़ में,
जब कोई नहीं है आपको देखने या ताड़ने वाला !
जो मन चाहे करो खुद के साथ.
कमीज उतार फेंको या जूते.
अगर आप चाहें, आप भुलाए गए और आज़ाद हैं, अपने ख़यालों में.
आपके चेहरे या आपके नाम पर कोई जरूरी काम नहीं यहाँ.
आप जैसे हैं वैसे हैं - न कोई दोस्त न दुश्मन
आपकी यादों को सुनने-गुनने के लिए.
दुआ करो उसके लिए जो छोड़ गया आपको इस कैफे में
क्यूंकि आपने गौर नहीं किया उसके नए केशविन्यास,
और उसकी कनपटी पर मंडराती तितलियों पर.
दुआ करो उस शख्स के लिए
जो क़त्ल करना चाहता था आपको किसी रोज, बेवजह,
या इसलिए क्यूंकि आप नहीं मरे उस दिन
जब एक सितारे से टकराए थे आप और लिखे थे
अपने शुरूआती गीत उसकी रोशनाई से.
एक कैफे, और बैठे हुए आप अखबार के साथ
कोने में, विस्मृत. कोई नहीं खलल डालने वाला
आपकी दिमागी शान्ति में और कोई नहीं चाहने वाला आपको क़त्ल करना.
कितने विस्मृत हैं आप,
कितने आज़ाद अपने खयालों में !
* * *
ढलान पर हिनहिनाना
ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े. नीचे या ऊपर की ओर.
अपनी प्रेमिका के लिए बनाता हूँ अपनी तस्वीर
किसी दीवार पर टांगने की खातिर, जब न रह जाऊं इस दुनिया में.
वह पूछती है : क्या दीवार है कहीं इसे टांगने के लिए ?
मैं कहता हूँ : हम एक कमरा बनाएंगे इसके लिए. कहाँ ? किसी भी घर में.
ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े. नीचे या ऊपर की ओर.
क्या तीसेक साल की किसी स्त्री को एक मातृभूमि की जरूरत होगी
सिर्फ इसलिए कि वह फ्रेम में लगा सके एक तस्वीर ?
क्या पहुँच सकता हूँ मैं चोटी पर, इस ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी की ?
या तो नरक है ढलान, या फिर पराधीन.
बीच रास्ते बँट जाती है यह. कैसा सफ़र है ! शहीद क़त्ल कर रहे एक-दूसरे का.
अपनी प्रेमिका के लिए बनाता हूँ अपनी तस्वीर.
जब एक नया घोड़ा हिनहिनाए तुम्हारे भीतर, फाड़ डालना इसे.
ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े. नीचे या ऊपर की ओर.
* * *
अगर ऎसी सड़क से गुजरो
अगर तुम किसी ऎसी सड़क से गुजरो जो नरक को न जा रही हो,
कूड़ा बटोरने वाले से कहो, शुक्रिया !
अगर ज़िंदा वापस आ जाओ घर, जैसे लौट आती है कविता,
सकुशल, कहो अपने आप से, शुक्रिया !
अगर उम्मीद की थी तुमने किसी चीज की, और निराश किया हो तुम्हारे अंदाजे ने,
अगले दिन फिर से जाओ उस जगह, जहां थे तुम, और तितली से कहो, शुक्रिया !
अगर चिल्लाए हो तुम पूरी ताकत से, और जवाब दिया हो एक गूँज ने, कि
कौन है ? पहचान से कहो, शुक्रिया !
अगर किसी गुलाब को देखा हो तुमने, उससे कोई दुःख पहुंचे बगैर खुद को,
और खुश हो गए होओ तुम उससे, मन ही मन कहो, शुक्रिया !
अगर जागो किसी सुबह और न पाओ अपने आस-पास किसी को
मलने के लिए अपनी आँखें, उस दृश्य को कहो, शुक्रिया !
अगर याद हो तुम्हें अपने नाम और अपने वतन के नाम का एक भी अक्षर,
एक अच्छे बच्चे बनो !
ताकि खुदा तुमसे कहे, शुक्रिया !
* * *
एथेंस हवाईअड्डा
एथेंस हवाईअड्डा छिटकाता है हमें दूसरे हवाईअड्डों की तरफ.
कहाँ लड़ सकता हूँ मैं ? पूछता है लड़ाकू.
कहाँ पैदा करूँ मैं तुम्हारा बच्चा ? चिल्लाती है एक गर्भवती स्त्री.
कहाँ लगा सकता हूँ मैं अपना पैसा ? सवाल करता है अफसर.
यह मेरा काम नहीं, कहता है बुद्धिजीवी.
कहाँ से आ रहे हो तुम ? कस्टम अधिकारी पूछता है.
और हम जवाब देते हैं : समुन्दर से !
कहाँ जा रहे हो तुम ?
समुन्दर को, बताते हैं हम.
तुम्हारा पता क्या है ?
हमारी टोली की एक औरत बोलती है : मेरी पीठ पर लदी यह गठरी ही है मेरा गाँव.
सालोंसाल इंतज़ार करते रहें हैं हम एथेंस हवाईअड्डे पर.
एक नौजवान शादी करता है एक लड़की से, मगर उनके पास कोई जगह नहीं अपनी सुहागरात के लिए.
पूछता है वह : कहाँ प्यार करूँ मैं उससे ?
हँसते हुए हम कहते हैं : सही वक़्त नहीं है यह इस सवाल के लिए.
विश्लेषक बताते हैं : वे मर गए गलती से
साहित्यिक आदमी का कहना है : हमारा खेमा उखड़ जाएगा जरूर.
आखिर चाहते क्या हैं वे हमसे ?
एथेंस हवाईअड्डा स्वागत करता है मेहमानों का, हमेशा.
फिर भी टर्मिनल की बेंचों की तरह हम इंतज़ार करते रहे हैं बेसब्री से
समुन्दर का.
अभी और कितने साल, कुछ बताओ एथेंस हवाईअड्डे ?
* * *
मैं कहाँ हूँ ? (गद्यांश)
गर्मियों की एक रात अचानक मेरी माँ ने मुझे नींद से जगाया ; मैंने खुद को सैकड़ों दूसरे गांववालों के साथ जंगलों में भागते हुए पाया. मशीनगन की गोलियों की बौछार हमारे सर के ऊपर से गुजर रही थी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये हो क्या रहा है. अपने एक रिश्तेदार के साथ पूरी रात बेमकसद भागते रहने के बाद... मैं एक अनजान से गाँव में पहुंचा जहां और भी बच्चे थे. अपनी मासूमियत में मैं पूछ बैठा, "मैं कहाँ हूँ ?"और पहली बार यह लफ्ज़ सुना "लेबनान." कोई साल भर से भी ज्यादा एक पनाहगीर की ज़िंदगी बसर करने के बाद, एक रात मुझे बताया गया कि हम अगले दिन घर लौट रहे हैं. हमारा वापसी का सफ़र शुरू हुआ. हम तीन लोग थे : मैं, मेरे चचा और हमारा गाइड. थका कर चूर कर देने वाले एक सफ़र के बाद मैनें खुद को एक गाँव में पाया, मगर मैं यह जानकार बहुत मायूस हुआ कि हम अपने गाँव नहीं बल्कि दैर अल-असद गाँव आ पहुंचे थे.
जब मैं लेबनान से वापस आया तो मैं दूसरी कक्षा में था. हेडमास्टर एक बढ़िया इंसान थे. जब कोई तालीमी इन्स्पेक्टर स्कूल का दौरा करता तो हेडमास्टर मुझे अपने दफ्तर में बुलाकर एक संकरी कोठरी में छुपा देते, क्यूंकि अफसरान मुझे बेजा तौर पर दाखिल कोई घुसपैठिया ही मानते.
:: :: ::
(अनुवाद : मनोज पटेल)