Saturday, April 30, 2011

माइआ अंजालो : बेचारी लड़की


माइआ अंजालो की कविताओं के क्रम में आज उनकी यह कविता... 











बेचारी लड़की  :  माइआ अंजालो

(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम्हें कोई और प्रेमिका मिल गई है 
मैं जानती हूँ यह बात 
कोई जो पूजा करती है तुम्हारी 
बिलकुल मेरी तरह 
तुम्हारे शब्दों को चुनती हुई 
जैसे कि सोना हों वे 
यह मानती हुई कि वह समझती है 
तुम्हारा मन 
बेचारी लड़की 
बिलकुल मेरी तरह.

तुम तोड़ रहे हो एक और दिल 
मैं जानती हूँ यह बात 
और कुछ नहीं कर सकती मैं 
इस बारे में 
अगर उसे बताने की कोशिश करूँ 
जो मैं जानती हूँ तुम्हारे बारे में 
वह मुझे गलत समझेगी 
और मुझे निकाल बाहर करेगी 
बेचारी लड़की 
बिलकुल मेरी तरह.

तुम उसे भी छोड़ दोगे 
मैं जानती हूँ यह बात 
वह कभी नहीं जान पाएगी 
कि तुम क्यों चले गए 
रोया करेगी वह और सोचेगी 
कहाँ गड़बड़ हो गई 
फिर वह शुरू करेगी 
इस गीत को गाना 
बेचारी लड़की 
बिलकुल मेरी तरह. 

येहूदा आमिखाई : एक रोता हुआ मुंह


येहूदा आमिखाई को अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से दुनिया के सामने लाने का श्रेय Modern Poetry in Translation (MPT) के संस्थापक सम्पादक टेड ह्यूज को जाता है. 1964 में जब MPT का पहला अंक तैयार हो रहा था तब इजराइल निवासी अंग्रेजी कवि डेनिस सिल्क ने उन्हें येहूदा आमिखाई की कविताओं से परिचित करवाया था और उनकी कविताएँ MPT के पहले अंक में प्रकाशित हुई थीं. बाद में टेड ह्यूज और येहूदा आमिखाई बराबर संपर्क में रहे और उन्होंने मिलकर आमिखाई की बहुत सी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद किए. प्रसंगवश यह भी बता दूं कि कि ये इजरायली कवि डेनिस सिल्क वही थे जिनका जिक्र आमिखाई ने अपनी एक बहुत अच्छी कविता 'बहुत बीमार था डेनिस' में किया था. इस कविता का हिन्दी अनुवाद आप अशोक पांडे एवं शिरीष कुमार मौर्य द्वारा अनुदित 'धरती जानती है' नामक संग्रह में पढ़ सकते हैं. 
यहाँ प्रस्तुत कविता एक रोता हुआ मुंह का अंग्रेजी अनुवाद भी टेड ह्यूज एवं खुद येहूदा आमिखाई द्वारा किया गया था. 









एक रोता हुआ मुंह : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक रोता हुआ मुंह और एक हंसता हुआ मुंह 
खामोश तमाशबीनों के सामने विकट लड़ाई करते हुए. 

दोनों के हाथ में आ जाते हैं मुंह, वे नोचते-खसोटते हैं एक-दूसरे का मुंह,
टकरा-टकरा कर टुकड़े-टुकड़े और लहूलुहान हो जाते हैं वे.

जब तक कि रोता हुआ मुंह हार मानकर हंसने नहीं लग गया,
जब तक कि हंसता हुआ मुंह हार मानकर रोने नहीं लग गया. 
                                 :: :: ::

Friday, April 29, 2011

निकानोर पार्रा : पोप की कविताएँ


अपने ख़ास अंदाज़ में एक बार फिर निकानोर पार्रा  : पोप की कविताएँ 












पोप की कविताएँ  :  निकानोर पार्रा 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

1
उन्होंने अभी-अभी मुझे पोप चुना है :
दुनिया का सबसे मशहूर आदमी हो गया हूँ मैं !

अब मैं चर्च संबंधी पेशे की चोटी पर हूँ
और मर सकता हूँ सुकून से 

कार्डिनल गुस्से में हैं 
उनके साथ मैं वैसा बरताव नहीं कर रहा जैसा कि किया करता था 
बहुत औपचारिक ?
मगर मैं पोप हूँ, भाड़ में जाओ...

कल का पहला काम 
मैं रहने लगूंगा वेटिकन में 

मेरे संबोधन का शीर्षक :
चर्च संबंधी पेशे में कैसे सफल हों 

बधाईयों की बौछार हो रही है 
दुनिया के सारे अखबारों के 
पहले पेज पर मेरी तस्वीर है 

और एक बात तो पक्की है :
मैं अपनी असली उम्र से बहुत कम का लग रहा हूँ 

मैं बच्चा था, तभी से  
पोप बनना चाहता था 
सबलोगों को इतना ताजुब्ब क्यों हो रहा है 
एक कुत्ते की तरह काम किया है मैनें 
वह हासिल करने के लिए जो मैं चाहता था 

हे भगवान 
इस भीड़ को आशिर्वाद देना तो भूल ही गया मैं ! 

Thursday, April 28, 2011

माइआ अंजालो : ताजुब्ब


माइआ अंजालो की यह छोटी सी कविता देखिए... 















ताजुब्ब : माइआ अंजालो 

(अनुवाद : मनोज पटेल) 


एक दिन 
वर्तमान के अमृत को 
पीकर 
अपना रास्ता बुनता है 
तमाम वर्षों के बीच से 
खुद को रात के 
मामूली घर में सुला देने 
और फिर कभी न देखे जाने के लिए.

क्या मैं 
कुछ कम मरी होऊंगी 
क्योंकि मैनें यह कविता लिख डाली 
या तुम कुछ ज्यादा 
क्योंकि इसे पढ़ा तुमने 
अब से सालों बाद.  
Maya Angelou ki Kavita ka Hindi Anuvad 

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की तीन कविताएँ


इस ब्लॉग की 100वीं पोस्ट के रूप में आज अफजाल अहमद सैयद  (افضال احمد سيد) की कविताएँ. पाकिस्तान के अजीम शायर अफजाल अहमद सैयद की कविताओं के मेरे लिप्यंतरण आप इस ब्लॉग पर यहाँ और यहाँ तथा नई बात पर देख सकते हैं. 










लेनिन फहमीदा रियाज के हुजूर में 

लेनिन फहमीदा रियाज के पास 
इस तरह आया 
जैसे मकतूल बादशाह की रूह 
हैमलेट के सामने नमूदार हुई 

वह दौड़ी हुई उसके लिए 
रस्पुतिन वोदका की आधी बची हुई बोतल उठा लाई 
जो उसके शौहर ने छुपा रखी थी 

कोई बात शुरू करने से पहले 
उसने तेजी से वह सब कुछ याद करना चाहा 
जो उसने लेनिन के मुतल्लिक पढ़ा या सुना था 

उसे सिर्फ इतना याद आया 
उसकी तरह लेनिन ने भी बहुत से दिन 
जलावतनी में बसर किए थे 

उसे बहुत अफ़सोस हुआ 
उसने लेनिन की किसी किताब का तर्जुमा क्यों नहीं किया 
या उससे बढ़कर 
लेनिन पर कोई किताब क्यों नहीं लिखी 

क्या वह उससे रूसी ज़बान में गुफ्तगू करेगा 
यह सोचकर वह लरज गई 
उसने रूसी नहीं सीखी थी 

सुकूते ढाका के बाद 
एवाने दोस्ती में 
उसने "दानाई का आफताब लेनिन" नामी एक किताब पर कुछ कहा था 
कहाँ होगी इस वक़्त वह किताब ?
उसकी आलमारी में तो बिलकुल भी नहीं 

बरामदे से गुजरते हुए 
उसके बच्चों ने अजनबी को महज हैरत से देखा 

यह बिलकुल मुमकिन था 
उसने सोचा 
लेनिन की तस्वीर और मुजस्समे मुल्क में हर जगह मौजूद होते 
अगर इंक़लाब आ जाता 
और हमारे दारुल हुकूमत का नाम लेनिनाबाद होता 

वह उसकी तरफ 
अदम दिलचस्पी से देख रहा था 
उसने सोचा 
शायद वह उससे उतना भी मुतास्सिर नहीं हुआ 
जितना स्टालिन 
अशरफ पहलवी से हुआ था 

(मगर वह शाहजादी नहीं शायर थी)

वह उससे रूस के टूटने के बारे में 
(अगर उसकी दिल आजारी न हो)
पूछना चाहती थी 
और उन सारे मज़ालिम के बारे में भी 
जो इंक़लाब के नाम पर किए गए 
और जिन पर कुछ अर्सा पहले उसे बिलकुल यकीन नहीं था 

उसे अचानक ख्याल आया 
उसके पागल दोस्त 
काफीशाप के एक कोने में उसका इंतज़ार कर रहे होंगे 
और आज जीशान ताजा नज्में सुनाएगा 

वह उठ खड़ी हुई 
और उसने लेनिन को खुदाहाफिज कहा 
जिस तरह मकतूल बादशाह की रूह ने 
हैमलेट को अलविदा कहा था

जलावतन = देश निकाला 
मुजस्समे = मूर्तियाँ 
दारुल हुकूमत = राजधानी 
मुतास्सिर = प्रभावित 
दिल आजारी = दिल दुखना 
मजालिम = अत्याचार 
                    * * *

अमीना जिलानी क्यों नहीं लिखती 


अमीना जिलानी क्यों नहीं लिखती 
उस अखबार में 
जिसके सोलह फीसद पढ़ने वाले 
हमारी पर कैपिटा इनकम से बीस गुना ज्यादा 
जूतों और लिबास पर सर्फ़ करते हैं 

अमीना जिलानी क्यों नहीं लिखती 
टूटे फूटे ऐनिकडोट्स की बजाए 
स्विट्जरलैंड के बैंकों के एकाउंट नंबर 
जहां हमसे लूटी हुई दौलत जमा है 

अमीना जिलानी क्यों नहीं लिखती 
कि टेसिटस ने लिखा 
नीरो को चार घोड़ों के रथ में चढ़ने की पुरानी ख्वाहिश थी 
वह चार घोड़ों के रथ को 
स्याह मर्सडीज में तब्दील क्यों नहीं करती 

अमीना जिलानी सनसनी फैलाने के लिए क्यों नहीं लिखती 
एक मशहूर एयरलाइन में 
मुसाफिरों को कुत्ते का गोश्त खिलाया जाता है 

अमीना जिलानी 
पामाल मौजूआत 
मावराए अदालत क़त्ल या पानी के कहत को क्यों नहीं छूती 

ऐसा नहीं है कि अमीना जिलानी 
नोक दे पोम या पोलिंटा पकाने की तरकीबें लिखा करती है 

अमीना जिलानी जानती है 
क्लिफ्टन का पुल बहुत मजबूत है 
और उसका यह साल एक हादसे से शुरू हुआ है 

अमीना जिलानी जानती है 
डाकुओं से मुकाबले के दौरान 
जीप से कुचला जाने वाला  दंदासाज 
अभी तक कोमा में है 

सर्फ़  =  व्यय 
ऐनिकडोट्स  =  चुटकुले, anecdotes 
पामाल मौजूआत  =  पद-दलित विषयों 
मावराए अदालत क़त्ल   =  हत्याएं जो न्यायालय से परे हैं 
कहत  =  अकाल, किल्लत 
दंदासाज  =  दंतचिकित्सक 
                    * * *


एक दिन और ज़िंदा रह जाना 

बहुत दूर एक साहिल पर 
स्क्रैप से बने हुए एक जहाज का 
ब्वायलर फट जाता है 

सेकेण्ड इंजीनियर उसी दिन मर जाता है 
थर्ड इंजीनियर 
दूसरे दिन 

और मैं 
फोर्थ इंजीनियर 
तीसरे दिन मर जाता हूँ 

सेकेण्ड हैण्ड जहाज़ों पर 
फर्स्ट इंजीनियर नहीं होते 
वरना 
मैं एक दिन और ज़िंदा रह जाता 
                    * * *

(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 
Afzal Ahmad Syed Poems in Hindi 

Wednesday, April 27, 2011

माइआ अंजालो : मर्द


आज माइआ अंजालो की एक और कविता...















मर्द  :  माइआ अंजालो 

(अनुवाद : मनोज पटेल) 


जब मैं छोटी थी, परदे के पीछे से 
देखा करती थी मर्दों को 
सड़क से आते-जाते. पियक्कड़ मर्द, बूढ़े मर्द.
जवान मर्द सरसों की तरह तेज.
उन्हें देखो. मर्द हमेशा 
कहीं न कहीं जा रहे होते हैं. 
उन्हें पता होता था मेरी मौजूदगी के बारे में.
पंद्रह साल की और उनके लिए तड़पती हुई. 
वे ठिठकते मेरी खिड़की के पास,
ऊंचे उठे हुए उनके कंधे जैसे 
किसी जवान लड़की के वक्ष,
उनकी जैकेट का पिछ्ला हिस्सा जैसे 
धौल जमाता हुआ पीछे वालों को,
मर्द. 
किसी दिन वे तुम्हें थामते हैं अपनी 
हथेलियों में, आहिस्ता से, जैसे तुम 
आखिरी कच्चा अंडा होओ इस दुनिया की. फिर 
वे कड़ी करते हैं अपनी पकड़. बस थोड़ी सी. पहला 
दबाव अच्छा लगता है. एक फुर्तीला आलिंगन.
तुम्हारी असहायता में बहुत कोमल. थोड़ा और.
अब तकलीफ शुरू होती है. ओढ़ लो एक मुस्कराहट 
जो फिसलती है डर के आस-पास. जब हवा गायब हो जाती है,
तुम्हारा दिमाग तड़क जाता है, तेजी से फटता हुआ,
थोड़ी देर के लिए ही सही,
जैसे किसी माचिस की तीली का सिरा. चूर-चूर.  
यह तुम्हारा रस है 
जो बहता है उनकी टांगों से. दाग लगाता हुआ उनके जूतों पर.
जब पृथ्वी फिर से सही कर लेती है खुद को,
और जुबान पर लौटने की कोशिश करता है स्वाद,
तुम्हारी देंह जोर से बंद हो जाती है. हमेशा के लिए. 
जिसकी कोई चाभी नहीं होती वजूद में.

तब खिड़की पूरी तरह खुलती है 
तुम्हारे दिमाग पर. वहां, बस झूलते परदे से परे,
मर्द चल रहे हैं.
कुछ जानते हुए.
कहीं जाते हुए.
मगर इस बार, तुम बस 
देखा करोगी चुपचाप खड़ी. 

शायद.  
Maya Angelou Poems in Hindi Translation 

Tuesday, April 26, 2011

इतालो काल्विनो की कहानी


इतालो काल्विनो की कहानियों के क्रम में आज उनकी कहानी 'द मैन हू शाऊटेड टेरेसा' का हिन्दी अनुवाद...












टेरेसा को आवाज़ देने वाला आदमी : इतालो काल्विनो 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं फुटपाथ से नीचे उतर आया, ऊपर देखते हुए कुछ कदम पीछे की ओर चला, और अपने हाथों को मुंह के पास ला, भोंपू सा बनाकर, सड़क के बीचोबीच से इमारत की सबसे ऊपरी मंजिलों की तरफ चिल्लाया : 'टेरेसा !'  

मेरी परछाईं चंद्रमा से डरकर मेरे पैरों के बीच सिमट गई. 

कोई पास से गुजरा. मैं फिर चिल्लाया : 'टेरेसा !' वह आदमी मेरे पास आया और बोला : 'अगर तुम और तेज नहीं चिल्लाए तो वह तुम्हारी आवाज़ नहीं सुन पाएगी. चलो हम दोनों मिलकर कोशिश करते हैं. तीन तक गिनो, तीन आने पर हम एक साथ चिलाएंगे.' और फिर उसने गिना : 'एक, दो, तीन.' और हम दोनों ने गुहार लगाई. 'टेरेसाssss !' 

उधर से गुजरती कुछ दोस्तों की एक छोटी सी टोली ने, जो शायद थियेटर से या फिर काफीघर से लौट रही थी, हमें आवाज़ लगाते देखा. वे बोल पड़े : 'चलो, हम भी आवाज़ लगाने में तुम्हारी मदद करते हैं.' और वे सड़क के बीचोबीच हमारे साथ आ खड़े हुए और पहले आदमी ने एक दो तीन गिना जिसपर सारे लोग मिलकर चिल्लाए, 'टे-रेsss-साsss !'   

कोई और भी आया और हमारे साथ हो लिया ; लगभग पंद्रह मिनटों में हमारी अच्छी खासी संख्या हो गई, बीस के आस पास. थोड़े-थोड़े अंतराल पर कोई न कोई नया आदमी आता ही जा रहा था. 

एक ही समय पर बढ़िया ढंग से आवाज़ देने के लिए खुद को संगठित करना आसान न था. तीन के पहले ही कोई न कोई  हमेशा शुरू हो जाता था या कोई देर तक आवाज़ देता रह जाता था, लेकिन आखिरकार हम कुछ ठीक-ठाक ही निपटा ले जा रहे थे. हम इस बात पर राजी हुए थे कि 'टे' को धीमे और देर तक बोलना है, 'रे' को जोर से और देर तक, जबकि 'सा' को धीमे और थोड़े समय के लिए. यह बढ़िया लग रहा था. बस यदा कदा कुछ शोरगुल  मच जाता, जब कोई बाहर निकल आता था.   

हम इस काम को ठीक-ठीक करना शुरू ही कर रहे थे जब किसी ने, जिसकी आवाज़ से अंदाजा मिल रहा था कि जरूर वह चित्ते पड़े हुए चेहरे वाला होगा, पूछा : 'मगर क्या तुम पक्का जानते हो कि वह घर पर होगी ?' 
'नहीं,' मैनें कहा.
'यह तो बहुत बुरा हुआ,' कोई और बोला. 'तुम जरूर अपनी चाभी भूल गए होगे, है ना ?'
'दरअसल,' मैं बोला, 'मेरे पास अपनी चाभी है.'
'तो फिर' उन्होंने कहा, 'तुम सीधे ऊपर ही क्यों नहीं चले जाते ?'
'अरे लेकिन मैं यहाँ नहीं रहता,' मैनें जवाब दिया. 'मैं शहर के उस तरफ रहता हूँ.'
'ठीक है, मेरी जिज्ञासा के लिए मुझे माफ़ करिएगा, फिर यहाँ कौन रहता है ?' उसी चित्तीदार आवाज़ वाले ने सावधान स्वर में पूछा.
'मुझे कैसे पता हो सकता है,' मैनें कहा.

लोग इस बात को लेकर थोड़ा परेशान हो गए.

'तो क्या आप मेहेरबानी करके बताएंगे,' किसी ने पूछा, ' कि आप यहाँ टेरेसा-टेरेसा पुकारते हुए क्यों खड़े हैं ?'
'जहां तक मेरी बात है,' मैनें कहा, 'हम कोई और नाम पुकार सकते हैं, या किसी और जगह ऎसी कोशिश कर सकते हैं. यह कोई ख़ास बात नहीं है.'

दूसरे लोग भी कुछ नाराज होने लगे. 
'मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम हमारे साथ कोई चाल नहीं चल रहे होगे ? उसी चित्तेदार चेहरे वाले ने सन्देहपूर्वक पूछा. 
'क्या ?' मैनें नाराजगी जताते हुए कहा, और अपनी सच्चाई की पुष्टि के लिए बाक़ी लोगों की तरफ मुड़ा. यह दिखाते हुए कि वे इशारे को नहीं समझ पाए थे, उन लोगों ने कुछ भी नहीं कहा.     

एक पल के लिए उलझन छाई रही.

'देखो' किसी ने भलमनसाहत से कहा, 'क्यों न हम एक आखिरी बार टेरेसा आवाज़ लगाएं, फिर अपने घर चले जाएं.'

तो हम लोगों ने एक बार फिर वैसा ही किया. 'एक दो तीन टेरेसा !' मगर इसबार आवाज़ कुछ ख़ास ठीक से नहीं निकली. फिर लोग अपने घरों की तरफ चल पड़े, कुछ एक रास्ते, और कुछ दूसरे. 

मैं चौराहे की तरफ मुड़ चुका था, जब मुझे लगा कि मैनें एक आवाज़ सुनी जो अब भी पुकार रही थी : 'टेssरेssसाss!'    

जरूर कोई चिल्लाते रहने के लिए रुक गया था. कोई जिद्दी शख्स. 
Italo Calvino Stories Translated in Hindi, Manoj Patel Anuvaadak, Padhte Padhte 

Monday, April 25, 2011

निकानोर पार्रा : पुलिस को गुमराह करने के लिए कुछ मजाक

आज बहुत दिनों बाद इस ब्लॉग पर निकानोर पार्रा की वापसी हो रही है. 










पुलिस को गुमराह करने के लिए कुछ मजाक निकानोर पार्रा 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 


शानदार ! अब कौन 
आज़ाद कराएगा हमें आज़ाद कराने वालों से !
हमारे बचने का कोई रास्ता नहीं रहा अब 
* * *

चिली प्रथमतः व्याकरणशास्त्रियों और 
इतिहासकारों का देश था 
देश था यह कवियों का 
अब यह देश है... डाट डाट डाट का 
* * *

पढ़ने वाले लोगों का मैं 100% विशवास करता हूँ 
मुझे भरोसा है कि ...
नागरिक 
असली आशय समझ सकते हैं 
* * *

यातना का रक्तरंजित होना 
जरूरी नहीं 
मसलन 
एक बुद्धिजीवी 
बस उसका चश्मा छुपाना ही काफी है 
* * *

चिड़िया, 
मुर्गियां नहीं होतीं फादर 
घूमने-फिरने की पूरी आजादी 
दड़बे की सीमाओं के भीतर 
* * *

कल 
खाली बर्तनों की कदमताल 
और आज 
भरे हुए मलपात्रों की परेड 
* * *

मैं बहुत निराश हूँ 
मुझे लगता था कि पार्रा हमारी तरफ है.
-- आपको ऐसा क्यों लगता था महामहिम ?
तख्तापलट में ही पता चलता है 
कि कौन किस तरफ है.
* * *

येहूदा आमिखाई की पांच कविताएँ


आज येहूदा आमिखाई की पांच कविताएँ 











न्यूयार्क के अपने शुरूआती दिन 

न्यूयार्क के अपने शुरूआती दिनों में,
हम बहुत चर्चा किया करते थे 
खुदा की मौत के बारे में. हम बातें नहीं करते थे 
बल्कि आश्चर्यचकित थे कि यह बात लोगों को अब पता चली 
जो हम बहुत पहले जान चुके थे  
उस असीम मरुस्थल में 
अपने बार मित्ज़वाह संस्कार के बाद ही. बिजली की किसी 
गड़गड़ाहट या चमक के साथ नहीं, न ही किसी धमाके के साथ,
बल्कि खामोशी से. और यह भी कि कैसे 
उन्होंने छुपाए रखा उसकी मौत की बाबत 
जैसे कोई छुपाए किसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित राजा की मौत को 
जो मर गया हो बिना किसी वारिस के.   

तुम चले जाओगे समुद्र के रास्ते. तुम्हारे सफ़ेद बाल 
ध्वज-पोत में बदल देंगे जहाज को.
चले जाना तुम मेरे शहर को. मैं रहूँगा तुम्हारे शहर में.
स्थानों की एक खामोश अदला-बदली 
दोस्ती और मौत से जान-पहचान के एक खेल में. 

हाल ही में, मैनें तुम्हें धुलाई वाले के यहाँ जाते देखा 
कुछ कपड़े लेकर जाते हुए,
जिनपर अभी ताज़ा होगी येरूशलम की धूल. 
उस बड़ी सी गठरी को बाहों में भरा हुआ था तुमने 
और तुम्हारी कोट की बाँह को 
हलके से दबाया था मैनें विदाई में. 

हम दोनों ही उस उम्र में हैं 
जहां यतीम नहीं कहा जाता उन लोगों को 
जिनका खुदा मर गया हो. 

बार मित्ज़वाह - एक यहूदी संस्कार जिसके बाद बच्चे को अपने नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों के पालन के योग्य माना जाता है.
                    * * *

1924 

मेरा जन्म 1924 में हुआ था. अगर मैं कोई वायलिन होता तो इस उम्र तक 
मेरी हालत बहुत ठीक न रह जाती. शराब होता तो शानदार 
या पूरी तरह से खट्टा हो चुका होता. कुत्ता होता तो अब तक मर चुका होता. किताब 
के रूप में अब तक कीमती हो चुका होता या बाहर फेंक दिया गया होता.
अगर कोई जंगल होता तो अभी जवान ही होता, मशीन होता तो हास्यास्पद,
और एक इंसान के रूप में मैं बहुत थक चुका हूँ. 

मेरा जन्म 1924 में हुआ था. जब मैं मानव जाति के विषय में सोचता हूँ तो 
मैं उन्हीं के बारे में सोचता हूँ जिनका जन्म मेरे साथ इसी साल हुआ था.
उनकी माताओं ने मेरी माँ के साथ ही जन्म दिया था,
जहां कहीं भी थीं वे, अस्पताल में या अँधेरे मकानों में.

आज अपने जन्मदिन पर, मैं तुम्हारे लिए 
एक विशेष प्रार्थना करना चाहूंगा,
जिसकी उम्मीदों और मायूसियों का भार 
नीचे की तरफ खींचता है तुम्हारी ज़िंदगी, 
जिसके कर्म घटते 
और ईश्वर बढ़ते जा रहे हैं,
तुम सभी मेरी उम्मीदों के भाई और मायूसियों के साथी हो.

तुम सभी को यथोचित शान्ति मिले,
जीवित लोगों को जीवन में, और मृतकों को मौत में.  

वही विजेता होता है जो 
औरों से बेहतर याद रखता है अपना बचपन,
बशर्ते कि कोई विजेता होता भी हो.
                    * * *

आंकड़े 

हर क्रोधित इंसान के लिए हमेशा होते हैं 
दो या तीन पीठ थपथपाने वाले जो उसे शांत करेंगे,
हर रोने वाले के लिए, तमाम आंसू पोंछने वाले,
और हर खुश इंसान के लिए, ढेर सारे दुखी लोग 
जो खुद में थोड़ा जोश जगाते हैं उसकी खुशी देख.

और हर रात कम से कम एक शख्स को 
नहीं मिल पाता है अपने घर का रास्ता  
या उसका घर कहीं और चला गया होता है 
और वह सड़कों पर भटकता फिरता है 
बेमतलब.

एक बार मैं स्टेशन पर इंतज़ार कर रहा था अपने छोटे बेटे के साथ 
और एक खाली बस गुजरी उधर से. मेरे बेटे ने कहा :
"देखो, एक बस, खाली लोगों से भरी हुई."
                    * * *

बहुत बाल उग आए हैं मेरी पूरी देंह पर 

बहुत बाल उग आए हैं मेरी पूरी देंह पर.
मुझे डर है कि वे मेरा शिकार शुरू कर देंगे मेरे बालों के लिए. 

मेरी रंग-बिरंगी कमीज प्रेम का कोई प्रतीक नहीं है :
किसी रेलवे स्टेशन की हवाई तस्वीर की तरह है यह.

रात में कम्बल के नीचे मेरी देंह पूरी खुली और जागृत होती है  
जैसे आँखों पर पट्टी बांधे कोई इंसान जिसे गोली मारी जाने वाली है.

किसी खानाबदोश और भगोड़े की तरह रहता हूँ मैं, मरूंगा मैं 
और ज्यादा के लिए भूखा --

और मैं इतना खामोश रहना चाहता था जैसे कोई प्राचीन टीला 
जिसके सारे शहर नष्ट हो चुके हों,

और इतना शांत,
जैसे कोई भरा पूरा कब्रिस्तान.
                    * * *

मेरी माँ उस जमाने की हैं 

मेरी माँ उस जमाने की हैं जब वे चांदी के कटोरों में 
खूबसूरत फलों की पेंटिंग बनाया करते थे 
और कुछ अधिक की उम्मीद नहीं रखते थे.
जहाज़ों की तरह चला करते थे लोग ज़िंदगी भर,
हवा के साथ या हवा के खिलाफ, और रास्ते के प्रति 
वफादार.  

मैं अपने आप से सवाल करता हूँ कि क्या बेहतर है,
बूढ़े होकर मरना या मरना जवानी में ही.
जैसे पूछा हो मैंने कि कौन अधिक हल्का है,
एक पौंड पंख या एक पौंड लोहा.

मुझे पंख चाहिए, पंख, पंख. 
                    * * *

(अनुवाद : मनोज पटेल)
Manoj Patel ke Anuvad  

Sunday, April 24, 2011

आज छोड़ ही दूंगी ज़िंदा रहना
















आखिरी फैसला  :  माइआ अंजालो 

(अनुवाद : मनोज पटेल)


इतनी छोटी छपाई, तकलीफदेह है मेरे लिए.
पृष्ठ पर अस्थिर सी काली चीजें.
कुलबुलाते हुए मेढक हर ओर.
जानती हूँ कि यह मेरी उम्र की वजह से है.
मुझे पढ़ना छोड़ ही देना पड़ेगा.

इतना गरिष्ट है भोजन, मेरा मन फेर देता हुआ.
इसे गर्मागर्म निगलूँ या फिर जबरन ठूंस लूं ठंडा करके,
और पूरे दिन इंतज़ार करूँ जबकि यह अटका पड़ा हो मेरे हलक में. 
थक गई हूँ मैं, पता है कि बूढ़ी हो गई हूँ.
मुझे भोजन करना छोड़ ही देना पड़ेगा. 

मुझे थका दे रही है अपने बच्चों की सहानुभूति.
मेरे बिस्तर के पास खड़े हो वे हिलाते हैं अपने होंठ,
और मैं एक शब्द भी नहीं सुन पाती.
मुझे छोड़ ही देना होगा सुनना. 

इतनी आपा-धापी है ज़िंदगी में, मुझे पस्त कर देती है यह.
सवाल और जवाब और बोझिल विचार.
मैं कर चुकी हूँ जोड़, घटाव और गुणा सब,
और सारी गणनाओं का नतीजा शून्य ही निकला है.
आज छोड़ ही दूंगी ज़िंदा रहना.   

Saturday, April 23, 2011

सादी यूसुफ़ की कविताएँ


आज सादी यूसुफ़ की दो कविताएँ, विरासत और ठंडक 











विरासत 

एक बूँद,
एक बूँद और फिर दूसरी.
बूंदे धार बांधकर बह रही हैं इस खिड़की से नीचे 
विस्मयादिबोधक चिन्हों की तरह...
बस थोड़ी देर, और विदा हो जाएगा अप्रैल 
जैसे 
कोई खोजी 
उत्साह और खुशबू से भरा हुआ,
विस्मयादिबोधक चिन्हों को मिट्टी में छोड़कर,
छोड़कर मुझे वजूद में. 
                                              दमिश्क, 18 /04 /1983  
                    * * *

ठंडक 

इस कमरे में 
जहां आसमान 
नीचे उतर आता है, बरसात की चेतावनी देते हुए...
इस कमरे में 
जहां सफेदी 
छिड़काव करती है मुझ पर 
ढालदार छत की छीलन का,
मैं कब्र की ठंडक महसूस करता हूँ. 
हड्डी का एक जोड़ कराहता है.
और गहरे धंसती है भाले की नोक. 
                                               पेरिस, 22/11/1990 
                    * * *
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

Thursday, April 21, 2011

ताकि घूमती रहे पृथ्वी


आज एक बार फिर निज़ार कब्बानी. 












गेहूं की बालियाँ : निज़ार कब्बानी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

आह ........ गेहूं की बालियाँ आंसुओं से सींची हुई,
दिल में उतर चुकी है तलवार, अब वापस नहीं हो सकते हम.
ठहरे हुए प्रेम के खतरनाक फाटक पर 
तलवार की रुपहली धार पर करता हूँ तुम्हें प्यार 
मौत के मुंह में और कांपते हुए भी.
इतने जाने-पहचाने हैं हम - 
इतिहास रोशन करता है मुझे 
और बढ़ती जाती हैं अफवाहें ....
यही होता है हमेशा सभी अच्छे संबंधों में. 

आह ...... फातिमा,
तुम्हारे साथ हिस्सा लिया है मैनें 
हजारों छोटी - छोटी बेवकूफियों में, 
जानता हूँ मैं प्यार में होने का मतलब 
इस अरबी जमाने की दीवार के पीछे 
जानता हूँ क्या मतलब होता है वादा करने,
फुसफुसाने और एलान करने का,
आज के इस अरबी समय में, 
और तुम्हारे, अपना होने का मतलब भी जानता हूँ 
ऐसे दहशत भरे दौर में. 

पुलिस बुला भेजती है मुझे पूछताछ के लिए 
जानना चाहती है मुझसे तुम्हारी आँखों के रंग के बारे में,
कि क्या है मेरी कमीज के नीचे 
और मेरे दिल में 
जानना चाहती है 
मेरे सफ़र, मेरे खयालात और मेरी नई कविताओं के बारे में. 
अगर पकड़ लेते वे मुझे 
लिखते हुए तुम्हारी आँखों से बहते काजल के बारे में   
उनकी राइफलें पीछा करतीं मेरा. 
खोल दो जुल्फें अपनी 
इस तनहा इंसान के लिए 
सताया गया है जिसे किसी पैगम्बर की तरह 
खोल दो जुल्फें अपनी, निकाल दो चिमटियां सब,
क्या पता आखिरी मौक़ा हो यह हमारा.

आह, मेरी ज़िंदगी की सुन्दरतम प्रतिमा,
वापस खींच लिए आती हो तुम मुझे हर सुबह 
बचपन के खेल के मैदानों पर 
नामुमकिन धूप खिलती है जहाँ तुम्हारी पलकों के तले 
और हकीकत हो उठते हैं नामुमकिन मुल्क 
तुम पौराणिक गाथाओं के खजाने सी साथ हुआ करती हो मेरे 
उत्तर की तरफ जाने वाली रेलगाड़ियों पर,
तुम्हारी आँखों में यह चीनी रोशनाई 
मेरे वंश से भी घटित होती है पहले, 
दौड़ा करती हो तुम मेरी रगों में 
संतरे की खुशबू की तरह.

रात में चीरकर कर देती हो मेरे दो हिस्से 
और भोर में ढाल लेती हो मुझे अपने घुटनों पर,
  जैसे दुइज का चाँद कोई.
घेरे रहती हो तुम मुझे हर ओर पूरब और पश्चिम,
दाएं और बाएँ - कितना सुहाना है यह कब्जा !
याद करता हूँ विन्डरमीयर झील पर साथ बिताए दिनों को  
जब ललकता था मैं तुम्हारे साथ पानी पर चलने को 
और चलने को बादलों पर, समय के आरपार,
और चाहता था रोना तुम्हारी छाती में मुंह छिपाए हमेशा.
ललकता हूँ देशी शराबघरों के लिए,  
अलाव के पास की अपनी उस जगह के लिए 
सभी सफ़ेद पर्वत चोटियों के लिए 
जब हिजाज़ का काजल घुलता है बर्फ में 
बहुत तरसता हूँ उम्दा शराब के लिए 
ठिठुरती सर्द रातों में.

आह, उत्तरी रेलगाड़ियों में 
मेरे बगल बैठी हुई जलपाखी,
मजबूती से थाम लो मुझे बाहों से.
कोई मतलब नहीं है मेरे लिए 
सुल्तानों के फरमान और पुलिस की फाइलों का.
डूबा रहता हूँ केवल तुम्हारे प्यार में.
उड़ा चुके हैं बहुत कुछ हम जुए में और 
लालबत्ती की हद से भी बाहर कर चुके हैं अनाधिकार प्रवेश.
थाम लो मेरी बांह ताकि घूमती रहे यह पृथ्वी...
क्योंकि घूमना बंद कर देती है यह 
किसी महान प्यार के बिना. 
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