अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...
जहन्नम : अफ़ज़ाल अहमद सैयद
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)
मरने के बाद मुझे जहन्नम में दफनाया गया
मुझे जिस क़ब्र में दाखिल किया गया
वहाँ एक आदमी पहले से मौजूद था
यह वही आदमी था जिसे मैंने क़त्ल किया था
जब क़ातिल और मक़तूल एक ही क़ब्र में जमा हो जाएं
असल जहन्नम वहीं से शुरू होता है
अजाब के फ़रिश्ते सवाल व जवाब के लिए क़ब्र में आ गए
फ़रिश्ते नंगे थे
उन्हें देखकर मुझे मतली आने लगी
जो मैंने रोक ली
मैं अपनी क़ब्र को गंदा नहीं करना चाहता था
फ़रिश्ते डरे हुए थे
शायद दोहरी क़ब्र में उतरने का उन्हें कोई तजुर्बा नहीं था
सवाल शुरू करने के लिए
एक फ़रिश्ते ने अपने कान से एक सिक्का निकाला
जिस पर एक जानिब मेरी तस्वीर थी
और दूसरी जानिब ख़ुदा की
फ़रिश्ते ने सिक्का उछाला
हारने वाले फ़रिश्ते ने सवालात शुरू करना चाहे
मैंने तलवार खींच ली
फ़रिश्ते मेरी क़ब्र छोड़कर भाग गए
मैंने कब्र की मिट्टी पर पड़ा हुआ सिक्का उठा लिया
यह जहन्नम में मेरी पहली कमाई थी
"तुमने अजाब के फरिश्तों पर तलवार उठाकर अच्छा नहीं किया"
"मैंने तुम पर तलवार उठाकर भी अच्छा नहीं किया था सूअर के बच्चे"
"तुम मुझे क़त्ल कर सकते हो मगर गाली नहीं बक सकते"
मगर यह गलत था
मैं एक आदमी को दोबारा क़त्ल नहीं कर सकता था
"अब जहन्नम का दारोग़ा तुम्हारी खबर लेगा"
मैं जहन्नम के दारोग़ा के इंतज़ार में बैठ गया
और सोचने लगा
यह आदमी जो अपनी क़ब्र में भी मुझसे पनाह मांग रहा है
उसे किस सिलसिले में मुझसे मुक़ाबले का हौसला पैदा हुआ होगा
मगर उसकी गर्दन पर तलवार का निस्फ़ दायरा ज़िंदा था
और ऐसा ज़ख्म सारी दुनिया में सिर्फ मैं लगा सकता था
इतने में शोर हुआ
जहन्नम का दारोग़ा हमारी क़ब्र में आ गया
यह कुछ महजूब फरिश्ता था और कपड़े पहने हुए था
"क्या तुमने मेरे फ़रिश्ते पर तलवार उठाई थी?"
"जनाब इसने आपके फ़रिश्ते पर तलवार उठाई थी"
क़ब्र के दूसरे गोशे से मेरे मक़तूल ने कहा
हालांकि फ़रिश्ते के मुक़ाबले में उसे आदमी की हिमायत करनी चाहिए थी
"क्या फरिश्ता मेरी तलवार से ज़ख्मी हो सकता है?"
"नहीं"
"क्या मैं फ़रिश्ते को क़त्ल कर सकता हूँ?"
"नहीं"
"क्या मुझे ऐसे जुर्म की सजा मिल सकती है
जिसको अंजाम देना नामुमकिन हो?"
"मैं नहीं कह सकता"
"कौन कह सकता है?"
"ख़ुदा"
जहन्नम का दारोग़ा चला गया
"तुमने जहन्नम के दारोग़ा को भगा दिया?"
"मैं क़यामत को भी भगा दूंगा"
"मगर क़यामत तो आ चुकी"
मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि क़यामत हो भी चुकी और मुझे पता नहीं चला
"तुम क़यामत में नहीं मरे?"
"कुछ लोग क़यामत से नहीं मरे
ख़ुदा ने उनको बराहे रास्त जहन्नम में बुला लिया"
जहन्नम में मैंने अपनी जेब से ताश निकाला
और सब्र का खेल खेलने लगा
यहाँ तक कि पत्ते गल सड़ गए
फिर मैंने अपनी याददाश्त को बावन खानों में बाँट दिया
और सब्र का खेल खेलने लगा
एक दिन एक कामचोर फरिश्ता
हमारी क़ब्र में छुपकर आराम करने को आ गया
मैंने उसकी गर्दन पर तलवार रख दी
"मैं तुम्हें क़त्ल कर दूंगा"
"तुम मुझे क़त्ल नहीं कर सकते मगर तलवार हटा लो, मुझे डर लगता है"
"मुझे बाहर ले चलो"
"यह कभी नहीं हुआ"
जवाब में मैंने अजाब के फ़रिश्ते से हासिल किया हुआ सिक्का
कामचोर फ़रिश्ते के हाथ पर रख दिया
फ़रिश्ते ने सर झुका लिया
मैं क़ब्र से बाहर निकलने लगा
फिर मुझे अपने मक़तूल का ख्याल आया
मैंने उसे आवाज़ से झिंझोड़ा
"बाहर चलो"
"मुझे बाहर नहीं जाना है
मुझे तुम्हारे साथ कहीं नहीं जाना है"
मैंने उसके मुंह पर थूक दिया
और अपनी क़ब्र से बाहर निकल आया
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मक़तूल : जिसे क़त्ल किया गया हो
अजाब : यमलोक में पाप का दंड
जानिब : तरफ, पक्ष, पहलू
निस्फ़ : आधा
महजूब : शर्मदार
गोशे से : कोने से
बराहे रास्त : सीधे