Friday, September 28, 2012

डान पगिस : बातचीत

इजरायली कवि डान पगिस की एक और कविता...   

 
बातचीत : डान पगिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

चार लोग चीड़ के पेड़ के बारे में बात कर रहे थे. एक ने उसकी जाति, उपजाति और तमाम किस्मों के बारे में बताया. एक ने लकड़ी उद्योग की बाबत उसके नुकसानों का आकलन किया. एक ने चीड़ के पेड़ पर कई भाषाओं की कविताएँ सुनाईं. एक ने जड़ पकड़ लिया, शाखाएं फैला लिया और लहराने लगा. 
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Wednesday, September 26, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : कौन क्या देखना चाहता है


रोकोको और दूसरी दुनियाएं' संग्रह से अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   

कौन क्या देखना चाहता है : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)  

वेंडी डी 
हशरात के खिलाफ हमारी जंग 
अपने तमाशबीनों के लिए महफ़ूज करना चाहती हैं 
(उन्हें इस बात के लिए पैसे मिलेंगे)

उनकी खुशकिस्मती से 
हम इस वक़्त टिड्डी दल की ज़द में हैं 

इस बार गर्मियों में 
वह 
ईपानेमा या कोपा काबाना जाने का मंसूबा 
तर्क कर चली हैं 
और इस फ़िक्र से आज़ाद हैं कि 
अल्टीमेट बिकनी क्या है 

खुराक, लिबास  और मुमकिन ख़तरात के 
प्रिंटआउट के साथ 
वह हमारी साईकाडेलिक धूप में 
आना चाहती हैं 

डाक्टर डी 
अपने दांत सफ़ेद करने के लिए 
बेकिंग सोडा नहीं इस्तेमाल करतीं 
और उन्हें 
फ़्रांसीसी मेनिक्योर से दिलचस्पी नहीं है 
(यह काफी महंगा अमल है)

उन्हें टिड्डी दल से दिलचस्पी है 
जिसका जिक्र ख़ुदा, पावसानियास और प्लिनी कर चुके हैं 

वह 
अट्रोक्सन शहंशाहों के मुक़ाम से 
हमें एरीना में शिकस्त खाते देखना चाहती हैं 

हम चाहते हैं 
वेंडी  
फारफारा तखल्लुस कर ले 
अपने बदन के किसी हिस्से को (आरिज़ी या मुस्तक़िल तौर पर) गोदाए 
और 
एक मूवी में बेडरूम सीन करे 
जो हम क़रीबतरीन वीडियो लाइब्रेरी से 
हासिल कर सकें  
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हशरात = कीड़े-मकोड़े 
ईपानेमा कोपा काबाना = समुद्र तटों के लिए प्रसिद्द ब्राजील के दो पर्यटन-स्थल  
तर्क = त्याग, छोड़ 
मुमकिन ख़तरात = संभावित  खतरे 
तखल्लुस = उपनाम 
आरिज़ी = अस्थायी 
मुस्तक़िल = स्थायी 
क़रीबतरीन  =  निकटतम 

Monday, September 24, 2012

डान पगिस : मालगाड़ी के डिब्बे में पेन्सिल से लिखा हुआ

इजरायल के होलोकास्ट सर्वाइवर कवि डान पगिस का परिचय और एक कविता आप पिछली पोस्ट में पढ़ चुके हैं. आज उनकी एक और चर्चित कविता 'मालगाड़ी के एक सीलबंद डिब्बे में पेन्सिल से लिखा हुआ'. नीचे तस्वीर में पगिस की इस कविता को कंजनकत्यूनस्लागा बेल्ज़ेक विक्टिम्स मेमोरियल (Konzentrationslager Belzec Victims Memorial) पर उत्कीर्ण देखा जा सकता है.  

 
मालगाड़ी के सीलबंद डिब्बे में पेन्सिल से लिखा हुआ : डान पगिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यहाँ ठसाठस भरे इस डिब्बे में 
मैं हव्वा हूँ 
अपने बेटे हाबिल के साथ 
यदि आपको कहीं दिखे मेरा बड़ा बेटा 
कैन पुत्र आदम 
उससे कहिएगा कि मैं 
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आलोचकों के अनुसार पगिस को बाइबिल की अच्छी जानकारी थी और सन्देश को अधूरा छोड़ देने की प्रेरणा उन्हें संभवतः जेनेसिस चैप्टर 4 की वर्स 8 से मिली होगी जिसमें कैन द्वारा अपने भाई हाबिल की हत्या किए जाने का उल्लेख है : 
“Cain said to his brother Abel…and when they were in the field, Cain set upon his brother Abel and killed him.”
इस कविता के बारे में और पढ़ने के लिए यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिए. 

Saturday, September 22, 2012

डान पगिस : सरहद पार करने के लिए निर्देश

इजरायली कवि डान पगिस (१६ अक्टूबर १९३० -- २९ जुलाई १९८६) ने अपने किशोर जीवन के तीन साल यूक्रेन के एक नाजी यातना शिविर में बिताए थे. १९४४ में वे बच निकले और १९४६ में इजराइल पहुँच कर एक स्कूल में टीचर हो गए. येरुशलम यूनिवर्सिटी से पी एच डी की डिग्री हासिल करने के बाद वे वहीं पर मध्यकालीन हिब्रू साहित्य पढ़ाने लगे. उन्हें कई भाषाएँ आती थीं और उन्होंने कई साहित्यिक कृतियों का अनुवाद भी किया. १९८६ में कैंसर से जूझते हुए उनकी मृत्यु हो गई. यहाँ उनकी एक चर्चित कविता प्रस्तुत है जिसमें नाजियों के अत्याचार से बचने के लिए ट्रेन द्वारा एक नकली पहचान के साथ बार्डर क्रास करने जा रहे व्यक्ति को 'निर्देश' दिए जा रहे हैं. उसे कुछ याद रखने की अनुमति नहीं है, और कुछ भूलने की भी नहीं...   

 
सरहद पार करने के लिए निर्देश : डान पगिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

काल्पनिक मनुष्य, जाओ. यह रहा तुम्हारा पासपोर्ट. 
याद रखने की इजाजत नहीं है तुम्हें. 
तुम्हें बने रहना है दिए गए विवरण जैसा ही: 
पहले से ही नीली हैं तुम्हारी आँखें. 
चिमनी के भीतर की चिंगारियों के साथ 
बच निकलने का जतन मत करो तुम. 
तुम एक मनुष्य हो. ट्रेन में बैठो. 
बैठो आराम से. 
अब एक अच्छा सा कोट है तुम्हारे पास, 
एक दुरुस्त किया हुआ बदन, एक नया नाम 
तैयार तुम्हारे गले में. 
जाओ, भूलने की इजाजत नहीं है तुम्हें. 
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Wednesday, September 19, 2012

वेंडी कोप : सुबह तीन बजे

वेंडी कोप की एक कविता...   

 
सुबह तीन बजे : वेंडी कोप 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कोई आवाज़ नहीं है कमरे में 
सिवाय घड़ी की टिक-टिक के 
जो घबड़ाने लगी है 
किसी बड़े से बक्से में 
बंद हो गए एक कीड़े की तरह. 

किताबें खुली पड़ी हुई हैं कालीन पर. 

कहीं और 
सो रहे हो तुम 
और तुम्हारे बगल है एक स्त्री 
जो रो रही है चुपचाप 
कि कहीं जाग न जाओ तुम. 
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Monday, September 17, 2012

डोनाल्ड जस्टिस : तुम्हें संबोधित नहीं है यह कविता

अमेरिकी कवि डोनाल्ड जस्टिस की एक और कविता...   

 
कविता : डोनाल्ड जस्टिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम्हें संबोधित नहीं है यह कविता. 
तुम आ सकती हो इसमें थोड़ी देर के लिए, 
मगर कोई तुम्हें पाएगा नहीं यहाँ, कोई भी नहीं. 
तुम बदल गई होगी, कविता समाप्त होने के पहले. 

इस समय भी जब तुम बैठी हो यहाँ, अचल, 
अदृश्य होने लगी हो तुम. और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. 
कविता जारी रहेगी तुम्हारे बिना भी. 
झूठी तड़क-भड़क है इसके पास कुछ ख़ास रिक्तताओं की. 

सच में उदास नहीं सिर्फ खाली है यह.  
पहले कभी शायद उदास थी यह, किसी को पता नहीं क्यों. 
और अब यह कुछ भी याद नहीं रखना चाहती. 
अतीत की यादें बहुत पहले ही छील कर उतारी जा चुकी हैं इससे. 

तुम्हारे जैसी खूबसूरती की कोई जगह नहीं है यहाँ. 
अँधेरा आसमान है इस कविता के ऊपर. 
बहुत अंधेरा है यह सितारों के लिए. 
और तलाश मत करो रोशनी की एक झलक की भी. 

तुम न समझ सकती हो और न तुम्हें समझना ही चाहिए इसका मतलब. 
सुनो, यह आ रही है बिना गिटार के, 
न तो चिथड़े लपेटे और न ही किसी फैशनेबुल पहनावे में. 
और इसमें कुछ भी नहीं है तुम्हें दिलासा देने के लिए. 

बंद कर लो अपनी आँखें, उबासी लो, जल्द ही समाप्त हो जाएगी यह. 
तुम गढ़ोगी कविता को, लेकिन उससे पहले 
तुम्हें भूल चुकी होगी यह. और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. 
अपने मिटाने के कामों में बहुत खूबसूरत रही है यह. 

ओ धुंधले आईनों! डूब मरने वालों के सागरों! 
एक खामोशी बराबर नहीं होती दूसरी खामोशी के. 
और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या सोचती हो तुम. 
तुम्हें संबोधित नहीं है यह कविता. 
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Thursday, September 13, 2012

डोनाल्ड जस्टिस की कविता

अमेरिकी कवि डोनाल्ड जस्टिस (१२ अगस्त १९२५ -- ६ अगस्त २००४) की एक कविता...   

 
सुबह तीन बजे पढ़ने के लिए एक कविता : डोनाल्ड जस्टिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

बाहरी इलाके के 
ढाबों को छोड़कर, 
अँधेरा था 
लडोरा कस्बे में 
सुबह तीन बजे, 
सिवाय मेरी हेडलाइटों 
और वहां ऊपर 
दूसरी मंजिल के एक कमरे में जलती 
एक अकेली बत्ती को छोड़कर,  
जहां कोई 
बीमार था, या 
पढ़ रहा था शायद 
जबकि मैं गुजरा 
सत्तर मील की रफ़्तार से 
बिना कुछ सोचे हुए. 
उसके लिए है यह कविता 
जिसने भी 
जला रखी थी बत्ती. 
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Tuesday, September 11, 2012

नाओमी शिहाब न्ये : ट्रे

नाओमी शिहाब न्ये की एक और कविता...   

 
ट्रे : नाओमी शिहाब न्ये 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

किसी ग़मी वाले दिन भी 
भाप छोड़ती गर्मागर्म चाय से भरी 
बिना हत्थे वाली छोटी सफ़ेद प्यालियाँ 
पेश हो जाती थीं 
ट्रे पर एक वृत्त में, 
और हम कुछ बोल पाएं   
या न बोल पाएं,    
ट्रे आगे बढ़ाई जाती रहती थी, 
चुस्कियां लिया करते थे हम 
खामोशी से, 
यह एक और तरीका था  
होंठों के साथ-साथ बोलने का,   
प्याली की गरम कोर पर खुलते 
और सुड़कते हुए एक सुर में. 
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Sunday, September 9, 2012

दानियाल मुइनुद्दीन की कहानी : नवाबदीन बिजली मिस्त्री


इस ब्लॉग की दूसरी सालगिरह के मौके पर आज पढ़ते हैं पाकिस्तानी-अमेरिकी लेखक दानियाल मुइनुद्दीन की बहुचर्चित कहानी नवाबदीन बिजली मिस्त्री. इस कहानी का चयन सलमान रश्दी द्वारा २००८ की सर्वश्रेष्ठ अमेरिकी कहानियों के लिए किया गया था.   


नवाबदीन बिजली मिस्त्री : दानियाल मुइनुद्दीन  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 
मीटर को धीमा कर बिजली कंपनी को चूना लगाने के अपने जिस खास हुनर पर वह फल-फूल रहा था, उसे वो इतने तरीके से अंजाम देता था कि उसके ग्राहक इच्छित मासिक बचत के सौ रुपये के नोट तक की ठीक-ठीक शिनाख्त कर सकते थे. मुल्तान से सटे पाकिस्तान के इस रेगिस्तानी इलाके में जहाँ ट्यूबवेल दिन-रात पाताल से पानी खींचने के काम में लगी रहती थीं, नवाब की यह खोज पारस पत्थर को भी मात देने वाली साबित हो रही थी. कुछ लोगों का मानना था कि इस काम के लिए वह चुम्बक का इस्तेमाल करता है जबकि दूसरे किसी गाढ़े तेल, चीनी मिट्टी के चिप या मधुमक्खियों के छत्ते से निकाले गए किसी पदार्थ के इस्तेमाल की बात बताते थे. शंकालु लोगों की सूचना यह थी कि कंपनी के मीटर विभाग के लोगों से उसने साठ-गाँठ कर रखी है. जो भी हो यह तरकीब, अपने सरपरस्त के. के. हारुनी के खेतों पर और उनके बाहर नवाब के रोजगार की गारंटी थी. 

खेत, बाजार को जाने वाली उस संकरी और गड्ढों से भरी सड़क से लगे हुए थे जो उन्नीस सौ सत्तर के दशक में तब बनी थी जब इस्लामाबाद नौकरशाही में हारुनी का खासा असर अभी बाकी था. गन्ने और कपास के खेतों, आम के बागों, लौंग और गेहूं के खेतों के बीच, जो उन ट्यूबवेलों द्वारा रोज सींचे जाते थे जिनकी देखभाल नवाबदीन बिजली मिस्त्री के जिम्मे थी, बादामी या लवणयुक्त सफ़ेद रेगिस्तान जगह-जगह निकला हुआ था. नूरपुर हारूनी के फेरों से शुरू होने वाली अपनी घुमंतू सुबहों में से एक, जब उसे किसी ख़राब पम्प को ठीक करने के लिए बुलाया गया, नवाब अपनी हिचकोले खाती साइकिल पर आया, जो फ्रेम से जुड़े झूलते तारों पर लगे प्लास्टिक के फूलों से सजी थी. उसके औजार जिसमें खासतौर पर तीन पौंड वजनी गोल सिरे वाला एक हथौड़ा शामिल था, हैंडल से लटके एक चीकट झोले में खनखना रहे थे. खेत मजदूर और मैनेजर बरगद के साए की ठंडक में, जो सालों पहले प्रत्येक ट्यूबवेल को छाया देने के लिए लगाए गए थे, उसका इंतज़ार कर रहे थे. "नहीं, नहीं, चाय नहीं" नवाब ने चाय के कप को हाथों से दूर करते हुए जोर देकर मना किया. 

किसी जंगली की कुल्हाड़ी की तरह हथौड़े को अपने हाथों में झुलाते हुए नवाब ने पम्प और बिजली की मोटर वाले फिसलनयुक्त कमरे में प्रवेश किया. खामोशी छा गई. लोग भीड़ लगाए दरवाजे पर तब तक जमा रहे जब तक कि उसने चिल्लाकर कह न दिया कि उसे रोशनी की सख्त जरुरत है. वह समस्या पैदा कर रही चीज तक सतर्कतापूर्वक पहुंचा, मगर बढ़ते हुए गुस्से के साथ उसे पकड़कर हल्का सा धक्का दिया, थोड़ा आराम से काम करना शुरू किया, व्यवस्थित हुआ फिर एक कप चाय मंगाई और आख़िरकार उसे खोलना शुरू कर दिया. अपने लम्बे और कुंद पेचकस से उसने मशीन के अंदरूनी हिस्से को ढंकने वाली फरी को अलग किया. एक पेंच ढीला होकर उछला और अँधेरे में छिटक गया. उसने हथौड़ा उठाया और एक नपा-तुला प्रहार किया. यह हस्तक्षेप नाकामयाब रहा. स्थिति पर विचार करते हुए उसने एक खेत मजदूर से चमड़े का ठीक-ठाक मोटा एक टुकड़ा और पास के किसी पेड़ से आम का चिपचिपा लासा लाने के लिए कहा. नवाब कभी एक कोशिश करता कभी दूसरी, पाइपों को गरम करते, ठंडा करते, तारों को जोड़ते, स्विचों और फ्यूजों को ठीक करते पूरी सुबह और दोपहर बीत गई. आखिरकार किसी तरह, मानो स्थानीय प्रतिभा के अपरिष्कृत प्रदर्शन को संतुष्ट करते हुए पम्प ने फिर से चलना शुरू कर दिया.  

इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, नवाब ने काफी पहले ही असाधारण उर्वरता वाली एक प्यारी सी औरत से शादी कर ली थी और उसने, अगर नौ महीने से कम नहीं तो ज्यादा भी नहीं, के नियमित अंतराल पर बच्चे पैदा करना शुरू कर दिया था. जब तक कि लड़के का बहुप्रतीक्षित आगमन नहीं हो गया, एक के बाद एक, एक के बाद एक, सभी लड़कियां ही पैदा होती गईं जिसने नवाब को, दुधमुहीं बच्ची से लेकर ग्यारह साल की उम्र तक के बारह बच्चों के पूरे सेट तक ला छोड़ा जिसमें अब एक विषम संख्या भी आ जुड़ी. अगर वो कहीं पंजाब का गवर्नर होता तो उनके दहेजों का इंतजाम उसे कंगाल बना देता. किसी बिजली मिस्त्री के लिए, वह कितना ही हुनरमंद कारीगर क्यों न हो उन सब की शादी कर पाने का सवाल ही नहीं था. कोई भी साहूकार, यदि उसका दिमाग दुरुस्त हो, कितनी भी ब्याज दर पर हर लड़की के लिए जरुरी सामान खरीदने भर को पर्याप्त पैसे उधार नहीं देने वाला था : बेड, सिंगारदान, बक्से, बिजली के पंखे, बर्तन, छः जोड़ी कपड़े दूल्हे मियां के लिए, छः जोड़ी दुल्हन के लिए, शायद एक टेलीविजन और भी बहुत कुछ.  

कोई और शख्स होता तो अपने हाथ खड़े कर देता लेकिन वह तो नवाबदीन था. बेटियों ने उसके हुनर के लिए प्रेरणा का काम किया और वह प्रत्येक सुबह बड़े संतोष से आईने में युद्ध के लिए बाहर निकल रहे एक योद्धा का चेहरा देखा करता. नवाब ठीक-ठीक जानता था कि उसे अपनी आय के साधनों को बढ़ाना ही बढ़ाना है - ट्यूबवेलों की देखभाल के लिए के. के. हारुनी से मिलने वाली तनख्वाह से गुजर-बसर मुश्किल है. उसने एक कमरे की एक आटा चक्की लगाई, अपने द्वारा कबाड़ घोषित एक बेकार बिजली की मोटर को चलाया. उसने अपने मालिक के खेतों के एक छोर पर स्थित एक तालाब में मछली-पालन में हाथ आजमाया. खराब रेडियो खरीदे, उनको ठीक करके दुबारा बेचा. घड़ी ठीक करने के लिए कहे जाने पर वह उससे भी नहीं हिचका. हालाँकि उसका यह उद्दयम गैरमामूली ढंग से नाकामयाब रहा क्योंकि जिस घड़ी को भी उसने खोला वो फिर कभी वक्त बताने के काबिल न रही और उसके हिस्से तारीफों की बजाए ठोकरें ही अधिक आईं.  

के. के. हारुनी ज्यादातर समय लाहौर में ही रहते थे और खेतों को देखने बहुत कम ही आते थे. जब कभी भी बुजुर्गवार आते, नवाब दिन-रात उसी दरवाजे पर मंडराता रहता जो नौकरों के बैठने की जगह से, दीवारों से घिरे पुराने बरगदों के उस बाग़ की ओर खुलता था जहाँ पुराना फार्महाउस स्थित था. सफ़ेद हो चुके बालों पर दाग-धब्बे युक्त, तुड़ा-मुड़ा अनोखा एविएटर चश्मा लगाए नवाब एयर कंडिशनर, वाटर हीटर, रेफ्रिजरेटर, पम्प जैसे घरेलू उपकरणों की देखभाल यूँ करता गोया अटलान्टिक के तूफानों में कोई इंजिनियर अपने डूबते स्टीमर के बायलर को ठीक कर रहा हो. अपनी अलौकिक कोशिशों से वह के. के. हारुनी को उसी यांत्रिक ककून में बनाए रखने का बंदोबस्त करने में लगभग कामयाब रहता था जिसे वो लाहौर में भोगने के आदी थे : ठन्डे, रोशन और नहाए-खाए हुए.  

हारुनी सहज ही इस सर्वत्र उपस्थित शख्स से घनिष्ठ हो गए जो न केवल मुआयना दौरों में उनके साथ रहता था बल्कि सुबह और रातों को भी उनके शयन कक्ष में बिजली के तारों को दुबारा बिछाते या गुसलखाने में वाटर हीटर में झांकते पाया जाता था. आख़िरकार एक शाम चाय के समय अनुकूल क्षण का मनोवैज्ञानिक अंदाजा लगाकर नवाब ने कुछ कहने की इजाज़त मांगी. जमींदार ने, जो शीशम के चटचटाते अलाव के सामने बखुशी अपने नाख़ून तराश रहे थे, उसे अपनी बात रखने की इजाजत दे दी.  

"जनाब जैसा कि आप जानते ही हैं आप की जमीनें यहाँ से लेकर सिन्धु नदी तक फैली हुई हैं, और इन जमीनों में पूरी की पूरी सत्रह ट्यूबवेल हैं, और इन सभी सत्रह ट्यूबवेलों की देखभाल करने के लिए एक ही आदमी है, मैं, आपका खादिम. आपकी खिदमत करते हुए मेरे बाल सफ़ेद हो गए हैं" - यहाँ उसने सफेदी दिखाने के लिए सर झुकाया - "लेकिन अब मैं अपना फ़र्ज़ उस तरह नहीं अदा कर पा रहा हूँ जैसा कि चाहिए. बहुत हो चुका जनाब मैं आपसे दरख्वास्त करता हूँ, मेरी कमजोरियों के लिए मुझे माफ़ करें. अँधेरा घर और पानीदार भूख बेहतर है दिनदहाड़े की इस शर्म से. मेरी छुट्टी कर दें, मैं आपसे विनती करता हूँ , भीख मांगता हूँ."  


बुजुर्गवार जो ऐसे भाषणों, हालांकि इतने सजे-संवरे नहीं, के आदी थे अपने नाख़ून तराशते हुए हवा के थमने का इंतज़ार करते रहे.
"मामला क्या है नवाबदीन?"

"मामला, जनाब? ओह आपकी खिदमत में क्या मामला हो सकता है? इतने सालों से तो मैं आपका नमक खाता आ रहा हूँ. लेकिन जनाब इन बूढ़े पैरों से - जो कई बार भारी मशीनें गिरने से चोट खा चुके हैं - अब साइकिल नहीं चलाई जाती. अब मैं एक नए-नवेले दूल्हे की तरह इस खेत से उस खेत साइकिल चलाता नहीं फिर सकता जैसा कि तब किया करता था जब पहले पहल किस्मत से मुझे आपकी खिदमत का मौका मिला था. मैं आपसे भीख मांगता हूँ जनाब, मुझे जाने दें."

"इसका उपाय क्या है?" यह देखते हुए कि वे असली बात तक आ पहुचे हैं, हारुनी ने पूछा. मामला चाहे जिस करवट बैठता उन्हें कोई खास परवाह नहीं थी अलावा इसके कि इसका कुछ सम्बन्ध उनके आराम से था जो उनकी गहरी दिलचस्पी का विषय था.

"जी जनाब, अगर मेरे पास एक मोटरसाइकिल होती तो लंगड़ाते हुए भी मैं उसे चला लेता, कम से कम तब तक, जब तक कि मैं किसी नौजवान को काम सिखा नहीं देता."

उस साल फसलें अच्छी हुई थीं. हारुनी आग के सामने खुद को खुला-खुला महसूस कर रहे थे, इसलिए फार्म मैनेजरों को बेहद नाखुश करते हुए, नवाब को एक नई-नकोर मोटरसाइकिल, एक होण्डा 70 मिल गई. वह गैसोलीन के लिए भत्ते के रूप में भी कुछ पैसों की व्यवस्था करने में कामयाब रहा.

मोटरसाइकिल ने उसकी हैसियत में इजाफा किया, उसे वजन बख्शा जिसकी वजह से लोग उसे चचा पुकारने लगे और दुनियावी मामलों में उसकी राय पूछने लगे, जिनके बारे में उसे कुछ भी पता न था. अब उसकी हद बढ़ गई थी और वह बड़े पैमाने पर धंधा कर सकता था. सबसे अच्छी बात तो यह हुई कि वह अब हर रात अपनी बीवी के साथ गुजार सकता था जिसने काफी पहले ही गाँव में नवाब के घर पर रहने की बजाय अपने परिवार के साथ फिरोजा में रहने देने की दरख्वास्त की थी जहाँ कि उस इलाके का इकलौता लड़कियों का स्कूल था. फिरोजा के निकट नहर के बैराज से एक लम्बी सीधी सड़क के. के. हारुनी के खेतों से होती हुई सिन्धु नदी तक जाती थी. यह सड़क एक पुराने राजमार्ग के अवशेषों पर बनी थी जिसका निर्माण तब हुआ था जब ये जमीनें किसी शाही रियासत का हिस्सा थीं. कोई डेढ़ सौ साल पहले इस सुदूर जिले में किसी शादी या अंतिम क्रिया में हिस्सा लेने के लिए कोई शहजादा इस रास्ते गुजरा था और गर्मी लगने पर आने-जाने वालों को छाया देने के लिए शीशम के इन पेड़ों को लगवाने का हुक्म दिया था. कुछ ही घंटों में वह इस हुक्म के बारे में भूल गया और बदले में कुछ दर्जन सालों में वह भी भुला दिया गया, लेकिन ये पेड़ अब भी खड़े थे, बहुत बड़े, उनमें से कुछ सूखे हुए, छाल और पत्तियों के बगैर सफ़ेद तथा संकटग्रस्त. नवाब अपनी नई मोटरसाइकिल से इस सड़क पर हवा से बातें करता चलता, मोटरसाइकिल की सभी घुंडियों और जोड़ों से झोले या रिबन लटके होते जिससे कि जब भी कभी झटका लगता यूँ दिखता मानो मोटरसाइकिल ढेर सारे छोटे अल्पविकसित पंख फड़फड़ा रही हो; जिस किसी ट्यूबवेल को मरम्मत की जरुरत होती वह मुस्कराते चेहरे के साथ उधर मुड़ता, उसके कान सनसनाते होते लेकिन वो अपने आगमन की रफ़्तार से खुश होता.

ऊपर से देखने पर नवाब के दिन उतने ही बेमकसद दिखते जितने कि किसी तितली के : सुबह वरिष्ठ मैनेजर के घर लगनपूर्वक सलाम बजाते, फिर खेत की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाते इस या उस ट्यूबवेल को, शीशम के पेड़ों की छाँव वाली सड़क से होते हुए बहुत तेजी से फिरोजा कस्बे की ओर, गोली की तरह आवाज करते, कस्बे में आराम से चलते, अपने निजी फायदों के लिए चुपके से किनारा कसते - अपने चचेरे भाई के सब्जियों के खेतों में पक रहे मौसम के पहले खरबूजों की बिक्री के लिए सौदा तय करते, चूजों के झुण्ड के अपने आधे हिस्से से होने वाले मुनाफे का सपना देखते - उसके बाद वापस नूरपुर हारूनी, और फिर बाहर को. इन दिनों के नक़्शे यदि एक के ऊपर एक रखे जाते तो वे उलझन पैदा करते, लेकिन प्रत्येक सुबह सूरज निकलते ही वह एक ही स्थान से प्रकट होता और प्रत्येक शाम वहीँ लौटता, थका, बुझा-बुझा, मोटरसाइकिल बंद करता, दरवाजे के लकड़ी के चौखट से उसे पार कराकर आँगन में लाता और इंजन टिक-टिक कर ठंडा होता. नवाब प्रत्येक शाम मोटरसाइकिल को स्टैंड पर खड़ा कर अपनी बेटियों के आने का इंतज़ार करता, वे सभी उसे घेर लेतीं और उसपर कूदने लगतीं. उसके चेहरे पर भी इस क्षण अक्सर वही भाव होते - निर्दोष बचकानी ख़ुशी का भाव, जिससे उसका चेहरा अपने भारीपन, झुर्रियों, और हल्की दाढ़ी के चलते बड़े अजीब और उदास ढंग से विरोधाभासी दिखता. यह जानने के लिए कि उसकी बीवी आज खाने में क्या पका रही है वह अपनी नाक ऊपर उठा कर सूंघता फिर उसके पास जाता, हमेशा उसे एक ही मुद्रा में पाता, उसके लिए चाय बनाते, सिगड़ी की आग को हवा करते.

"सुनो मेरी जान, मेरी प्यारी," एक दिन उसने अँधेरे झोपड़े में घुसते हुए बड़ी कोमलता से कहा. इस झोपड़े से रसोई का काम लिया जाता था, इसकी मिट्टी की दीवारें कोयले से काली पड़ गईं थीं. "मेरे लिए इस बर्तन में क्या है?" उसने कड़ाही को खोल दिया, जो केतली द्वारा विस्थापित हो घिसे हुए कच्चे फर्श पर पड़ी थी, और लकड़ी की कड़छुल उसके अन्दर चलाते हुए खोजने लगा.

"बाहर! बाहर!" उसकी बीवी ने कड़छुल वापस लेकर तरी में डुबो कर उसे चखाते हुए कहा.

उसने आज्ञाकारी ढंग से अपना मुहं खोल दिया जैसे कोई बच्चा दवा ले रहा हो. तेरह बच्चे पैदा करने के बाद भी उसकी बीवी की देह लचीली और मजबूत थी, उसके तंग कुर्ते से उसकी रीढ़ के जोड़ स्पष्ट हो रहे थे. उसका लम्बा मर्दाना चेहरा अभी भी त्वचा के नीचे से दमकता हुआ उसे पके गेरुए रंग की आभा प्रदान कर रहा था. अब भी, जब उसके बाल विरल और सफ़ेद हो रहे थे, उसने उन्हें गाँव की नौजवान औरतों की तरह कमर तक की एक लम्बी चोटी में गूँथ रखा था. हालांकि यह ढंग उस पर जंचता नहीं था, नवाब अब भी उसमें बीस साल पहले की वही लड़की पाता था जिससे उसने शादी की थी. वह दरवाजे पर खड़ा हो अपनी बेटियों को खेलते हुए देखने लगा और जब उसकी बीवी उसके पास से गुजरी उसने अपने कूल्हे बाहर की ओर उभार दिए ताकि वह जब सिकुड़ती हुई निकलने लगे तो उससे रगड़ते हुए ही जा पाए.

सबसे पहले नवाब ने खाना खाया, फिर लड़कियों ने और सबसे अंत में उसकी बीवी ने. डकार लेता और एक सिगरेट पीता वह बाहर आँगन में बैठा ऊपर दुइज के चाँद को देखने लगा जो अभी-अभी क्षितिज पर प्रकट हुआ था. आखिर चन्द्रमा किस चीज से बना हुआ है? उसने बिना बहुत जोर लगाए सोचा. उसे रेडियो पर सुनी हुई वह बात याद आई जब अमरीकियों ने कहा था की वे उस पर चल चुके हैं. उसका ख्याल सभी स्पर्शनीय चीजों पर भटकने लगा. उसके आस-पास के टोले के निवासी भी अपना भोजन समाप्त कर चुके थे और गाय के गोबर से बने उपलों का कच्ची तम्बाकू सरीखी तीखी उत्तेजक गंध वाला धुआं कालिमा ओढ़ती छतों पर फ़ैल रहा था. नवाब के घर में कई बढ़िया मशीनें लगी हुई थीं - सभी तीनों कमरों में पानी की व्यवस्था, एक नलिका जिससे रात को कमरों में ठंडी हवा आती थी, और एक श्वेत-श्याम टेलीविजन भी जिसे उसकी बीवी एक कपड़े से ढँक कर रखती थी जिस पर उसने फूल काढ़ रखे थे. नवाब ने एक गियर यंत्रावली भी बना रखी थी ताकि बेहतर रिसेप्शन के लिए छत पर लगे एंटीना को घर के अन्दर से ही घुमाया जा सके. बच्चे घर में बैठे तेज आवाज़ कर उसे देख रहे थे.  उसकी बीवी बाहर आई और बुनी हुई खाट पर औपचारिक ढंग से पैरों की तरफ झोलदार रस्सियों पर अपने पैर हिलाते बैठ गई.

"मेरी जेब में कुछ है - क्या तुम जानना चाहोगी कि क्या?" उसने उसकी तरफ खीझी हुई सी हंसी हँसते हुए देखा.

"मैं जानती हूँ यह खेल," उसने उसके चेहरे पर चश्मे को सीधा करते हुए कहा. "तुम्हारा चश्मा हमेशा टेढ़ा क्यूँ रहता है ? मुझे लगता है कि तुम्हारा एक कान दूसरे के मुकाबले कुछ ऊपर है."

"अगर तुम इसे पा जाओ, तो ये तुम्हारा."

बच्चों को यह जांचने के लिए देखते हुए कि वे अब भी टेलीविजन में तल्लीन थे, वह उसके पास घुटनों के बल बैठकर उसकी जेबें थपथपाने लगी. "नीचे... नीचे...," उसने कहा. उसके कुरते के नीचे पहनी हुई चीकट बनियान की  जेब से उसने अखबार में लिपटे गुड़ के टुकड़े बरामद किए.

"मेरे पास और भी है ढेर सारा," उसने कहा. उसे देखो. ऐसी चीज तुम बाज़ार से नहीं खरीद सकती. मुझे गन्ने के कोल्हू की मरम्मत करने के बदले पांच किलो मिले हैं. मैं इसे कल बेचूंगा. हमारे लिए कुछ पराठे बनाओ, हम सभी के लिए? बनाओगी न सुन्दरी?"

"मैं आग बुझा चुकी हूँ."

"तो फिर से जला दो. या रुको, तुम यहीं बैठो - मैं जला देता हूँ."

"तुम उसे कभी नहीं जला पाओगे. मुझे तो वैसे भी यही करते हुए ऊपर जाना है." उसने उठते हुए कहा.

तवे पर घी के गर्म होने की महक सूंघकर छोटे बच्चे इकठ्ठा हो गुड़ को पिघलता हुआ देखने लगे, आख़िरकार बड़ी बच्चियां भी आ गईं, यद्यपि वे अकड़ में एक किनारे खड़ी रहीं.

आग के पास पालथी मारे झुंझलाए बैठे नवाब ने उनकी तरफ इशारा किया. "आओ शहजादियों, कोई चालाकी नहीं, मैं जानता हूँ तुम्हें भी यह चाहिए."

भूरी रवादार चाशनी को रोटी के तले टुकड़ों पर गिराकर उन्होंने खाना शुरू किया, कुछ देर बाद नवाब मोटरसाइकिल के पास जाकर डिग्गी से गुड़ का एक और बड़ा टुकड़ा निकाल लाया और लड़कियों को यह चुनौती पेश की कि देखें कौन ज्यादा खा पाता है.

उसके परिवार के इस छोटे से मीठे उत्सव के कुछ हफ्ते बाद एक शाम नवाब उस चौकीदार के पास बैठा था जो नूरपुर हारुनी के अनाज के गोदामों की रखवाली करता था. अनाज पीटने के लिए बनी फर्श के बगल केवल तीस साल पहले लगाया गया बरगद का एक पेड़ बड़ा होकर चालीस या पचास फिट की छतरी बन चुका था, और गोदाम पर काम करने वाले सभी आदमी सावधानी से इसकी देखभाल करते व कनस्तर से इसे पानी दिया करते थे. बूढ़ा चौकीदार इसी पेड़ के नीचे बैठा करता, नवाब और कुछ दूसरे नौजवान शाम को उसके पास बैठते, उसके तेज मिजाज को भड़काने के लिए उसे छेड़ते रहते और आपस में भी एक-दूसरे से मजाक करते. वे इस बुजुर्ग शख्स की उस वक़्त की कहानियाँ सुना करते जब नदी किनारे के इस इलाके में सिर्फ कच्ची पगडंडियाँ ही थीं और जंगली कबीले के लोग मन बहलाव के लिए मवेशी चुरा लिया करते, ऐसा करते समय अक्सर मानो चटपटापन लाने के लिए एक-दूसरे का खून भी कर दिया करते.  

हालांकि बसंत ऋतु आ गई थी फिर भी चौकीदार अपने पैरों को गर्म रखने के लिए और वहां एकत्र होने वाले समूह को एक केंद्र उपलब्ध कराने के लिए, टीन के तसले में आग जलाकर रखता. जैसा कि अक्सर होता था बिजली नहीं थी, आसमान पे चढ़ता हुआ पूर्णिमा का चाँद दृश्य को अप्रत्यक्ष रूप से रोशन कर रहा था, सफेदी की हुई दीवारों पर पड़ रही रोशनी से इधर-उधर बिखरी मशीनों - हल और बुआई के औजार, कुदालों और हेंगे - पर हल्की छाया सी पड़ रही थी.

"ऐसा करता हूँ, बुजुर्गवार," नवाब ने चौकीदार से कहा "मैं आपको बांध कर गोदाम में बंद कर दूंगा ताकि ये डकैती जैसी लगे और फिर मैं तेल के पीपे से अपनी टंकी भर लूंगा."

"मेरे लिए मजेदार नहीं है ये," चौकीदार ने कहा. "जाओ तुम, मुझे लगता है तुम्हारी बीवी तुम्हें बुला रही है."

"मैं समझता हूँ,बुजुर्गवार, आप अकेले होना चाहते हैं."

नवाब उठा और चौकीदार से हाथ मिला कर झुकते हुए चौकीदार के घुटने सम्मानपूर्वक हाथों से छू लिए, जैसा कि वह सामंत के. के. हारुनी के प्रति किया करता था - यह मजाक वह चौकीदार के साथ पिछले दस सालों से करता आ रहा था.

"संभल के, बच्चे," चौकीदार ने बांस की लाठी, जिसके सिरे पर लोहा जड़ा हुआ था, के सहारे उठते हुए कहा.

नवाब ने अपनी मोटरसाइकिल को किक मार कर स्टार्ट किया, एक हल्के झटके से लाईट जला वो गोदाम के गेट से, चौथाई मील लम्बी उस राहदारी पर निकल गया जो खेतों के बीचोबीच से मुख्य मार्ग तक ले जाती थी. उसे ठण्ड महसूस हुई लेकिन यह सोचकर अच्छा लगा कि घर पर कमरा गर्म होगा, दो छड़ों वाला हीटर चोरी की बिजली से दिन-रात जला करता था, भले ही बसंत ऋतु आ गई थी उसका परिवार इस अतिरिक्त गर्मी में ऐश कर रहा था. मुख्य-मार्ग पर मुड़ने के बाद उसने रफ़्तार बढ़ा दी, कमजोर हेडलाईट के चलते अवरोध उसकी प्रतिक्रिया करने की क्षमता से अधिक तेज गति में प्रकट हो रहे थे. उसे ऐसा लग रहा था मानो वह चलती लालटेन की रोशनी में आगे भाग रहा हो. पतंगों का शिकार करने के लिए सड़क के अगल-बगल बैठे पक्षी अँधेरे में उसके पहियों के नीचे आते-आते रह जा रहे थे. पायदान पर पैर टिकाए रफ़्तार का आनंद लेते हुए नवाब ने बाइक को मजबूती से पकड़ रखा था और गड्ढों के ऊपर से उसे उड़ाये लिए चला जा रहा था. निचले खेतों के बीच जहाँ गन्ने की बहुत अधिक सिंचाई हुई थी, कुहासा उठ रहा था और ठंडी हवाओं ने उसे घेर लिया. नहर के साथ चल रही छोटी सड़क पर मुड़ते हुए उसने रफ़्तार कम की. बैराज पर बांधों से पानी के टकराने की आवाज उसे सुनाई दे रही थी.

एक बाँध के बगल से एक आदमी निकला और हाथ लहरा कर नवाब को रुकने का इशारा करने लगा.

"भाई," इंजन की फिटफिटाहट में वो आदमी कह रहा था, "मुझे भी कस्बे तक लिए चलो, जरुरी काम है और मुझे देर हो गई है."

इतनी रात गए क्या काम हो सकता है, नवाब ने सोचा, मोटरसाइकिल की टेल-लाईट से एक लाल रंग की आभा उनके आस-पास की जमीन पर पड़ रही थी. वे किसी भी रिहायशी इलाके से बहुत दूर थे. एक मील दूर सड़क के किनारे दाश्तियान गाँव पड़ता था- उसके पहले कुछ भी न था. उसने उस आदमी के चेहरे को गौर से देखा.

"तुम कहाँ के हो?" वह आदमी सीधा उसकी आँखों में देख रहा था, उसका चेहरा भावहीन किंतु निर्भीक लग रहा था.

"कश्मोर का, घंटे भर से ऊपर हो गए आप इधर से गुजरने वाले पहले शख्स हैं. मैं पूरे दिन चलता रहा हूँ."

कश्मोर, नवाब ने सोचा, नदी उस पार का गरीब इलाका. हर साल ये लोग नूरपुर हारूनी और आस-पास के दीगर खेतों में आम तोड़ने आते थे, लगभग मुफ्त में काम करते और फसल कटते ही वापस चले जाते. मौसम की समाप्ति पर पुरुष एक छोटी सी दावत देते जहाँ सैकड़ों लोग मिलकर भैंस खरीदने के लिए चन्दा जमा किया करते थे. नवाब कई बार इन दावतों में सम्मानपूर्वक शामिल हो उनके साथ बैठकर मांस के कुछ टुकड़े पड़े हुए नमकीन चावल का मजा ले चुका था.

नवाब ने मुस्कराते हुए ठुड्डी से पिछली सीट की तरफ इशारा किया. "ठीक है तब, पीछे बैठ जाओ."

पीछे बढ़े हुए वजन के कारण नहर की गड्ढेदार सड़क पर संतुलन बनाते हुए बाइक चलाना थोड़ा कठिन हो गया था किन्तु नवाब शीशम के पेड़ों के नीचे से होते हुए आगे बढ़ता रहा.

बैराज से वे कोई आधा मील चले होंगे जब पीछे बैठा आदमी नवाब के कानों में चिल्लाया, "रुको!"

"क्या हो गया?" हवा की सरसराहट के चलते नवाब को सुनने में दिक्कत हो रही थी.

उस आदमी ने कोई सख्त चीज उसकी पसलियों में चुभोया.

"मेरे पास रिवाल्वर है. मैं तुम्हें गोली मार दूंगा."

घबरा कर नवाब ने सरकते-सरकते मोटरसाइकिल को रोका और उसे दूर धक्का देते हुए एक तरफ को कूद गया, मोटरसाइकिल गिर गयी और लुटेरा भी जमीन पर गिर पड़ा. कारबोरेटर से तेल बहने लगा, मिनट भर के लिए इंजन की रफ़्तार बहुत तेज हो गई और पहिए तब तक नाचते रहे जब तक कि इंजन तड़तड़ाते हुए बंद नहीं हो गया जिससे हेडलाईट भी बुझ गई.

"क्या कर रहे हो तुम?" नवाब गिड़गिड़ाया.

"पीछे हटो नहीं तो गोली मार दूंगा," नवाब की तरफ रिवाल्वर ताने लुटेरे ने एक घुटने पर उठते हुए कहा.

वे अचानक हुए अँधेरे में, नीचे गिरी मोटरसाइकिल के पास अनिश्चित से खड़े थे. मोटरसाइकिल से गैसोलीन निकलकर पैरों तले मिट्टी में समा रही थी. उनके बगल नरकट से होकर बहता नहर का पानी भंवर खाते हुए हर-हर की हल्की आवाज कर रहा था. जब उसकी आँखें अँधेरे की अभ्यस्त हो गईं, नवाब ने देखा कि वह आदमी अपनी हथेली के घाव को चाट रहा है जबकि दूसरे हाथ से उसने रिवाल्वर पकड़ रखी थी.

जब वह आदमी मोटरसाइकिल उठाने लगा तो नवाब एक कदम आगे बढ़ा.

"कहा न, मैं तुम्हें गोली मार दूंगा."

नवाब ने चिरौरी में हाथ जोड़ लिए. "मैं तुमसे भीख मांगता हूँ, मेरी छोटी लड़कियां हैं, तेरह बच्चे. सच कह रहा हूँ, तेरह. मैंने तो बस तुम्हारी मदद करनी चाही थी. मैं तुम्हें फिरोजा तक लिए चलूँगा, और किसी से कुछ नहीं कहूंगा. मोटरसाइकिल मत ले जाओ - यह मेरी रोजी-रोटी है. मैं भी तुम्हारी ही तरह हूँ, तुम्हारे जितना ही गरीब."

"खामोश रहो."

बिना सोचे, आँखों में चतुराई की चमक लिए नवाब रिवाल्वर की तरफ झपटा, लेकिन चूक गया. थोड़ी देर तक वे गुत्थम गुत्था होते रहे, आखिरकार लुटेरे ने खुद को आज़ाद कर लिया, वह पीछे हटा और गोली चलाई. आश्चर्यचकित नवाब, जांघ और पेट के बीच के भाग को जकड़े हुए जमीन पर गिर पड़ा. वह यूँ भौचक्का था जैसे उस शख्स ने बिना वजह उसे थप्पड़ जड़ दिया हो.

लुटेरे ने मोटरसाइकिल को दूर घसीटा, उस पर सवार हुआ और किक पर अपना वजन देते हुए उसे ऊपर-नीचे झटका देकर स्टार्ट करने की कोशिश करने लगा लेकिन इंजन घर्र-घर्र करके रह जा रहा था. कारबोरेटर में ज्यादा तेल भर गया था तिस पर उसने पूरा एक्सीलरेटर घुमा रखा था जो स्थिति को और भी खराब कर रहा था. गोली की आवाज़ सुनकर दाश्तियान गाँव के कुत्ते भौंकने लगे थे जिनकी आवाज़ रह-रह कर मंद बहती हवा में सुनाई दे रही थी.

जमीन पर पड़े हुए पहला ख्याल नवाब को यह आया कि लुटेरे ने उसे मार डाला है. शीशम के पेड़ की डालों से होकर दिखता चांदनी में नहाया पीला आसमान, कटोरे में हिलते पानी की भांति आगे-पीछे डगमगा रहा था. उसने उस पैर को सीधा किया जो गिरते समय मुड़कर उसके नीचे दब गया था. जब उसने अपने घाव को छुआ तो उसके हाथ चिपचिपे हो उठे. "ओ खुदा, ओ माँ, ओ खुदा," बहुत जोर से नहीं, जैसे रट लगाते हुए वह कराहा. उसने उस आदमी की तरफ देखा, उसकी तरफ उसकी पीठ थी, वेध्य, पागलों की तरह किक लगाता हुआ, छः फिट से भी कम की दूरी पर. नवाब उसे यह नहीं ले जाने दे सकता था - नहीं मोटरसाइकिल नहीं, उसका खिलौना, उसकी आज़ादी.

वह फिर उठ खड़ा हुआ और लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ा, लेकिन उसका चोटग्रस्त पैर मुड़ गया और वह गिर पड़ा, उसका माथा मोटरसाइकिल के पिछले बम्पर से टकराया. मोटरसाइकिल की गद्दी से पीछे मुड़कर हाथ में रिवाल्वर थामे लुटेरे ने पांच बार और गोली चलाई, एक दो तीन चार पांच, नवाब चेहरे पर अविश्वास लिए ऊपर रिवाल्वर की नली के मुहं पर शोलों की पुनरावृत्ति देखता रहा. उस शख्स ने कभी हथियार इस्तेमाल नहीं किया था, इस गैर-लाइसेंसी रिवाल्वर से भी उसने केवल एक बार उस समय जांचने के लिए फायर किया था जब वह इसे एक तस्कर से खरीद रहा था. वह धड़ या सर को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं कर पाया था, बल्कि पेट और जांघ के मध्य के भाग और पैरों पर ही गोली चलाई थी. अंतिम दो गोलियां तो इतनी बुरी तरह चूकी थीं कि उनसे सड़क पर मिट्टी उड़ने लगी थी. कराहते हुए लुटेरा मोटरसाइकिल को करीब बीस फिट आगे धकेलता ले गया और फिर से उसे स्टार्ट करने की कोशिश करने लगा. दाश्तियान की ओर से एक टार्च की रोशनी सड़क पर हिलती हुई दौड़ गई. मोटरसाइकिल को जमीन पर फेंककर लुटेरा नरकटों की बाड़ की तरफ भाग गया जो एक खेत की सरहद बना रहे थे.

 नवाब सड़क पर पड़ा रहा, वो हिलना नहीं चाहता था. जब गोली लगी थी तब तुरंत इस तरह डंक लगने जैसा दर्द नहीं हो रहा था, लेकिन अब दर्द बढ़ता ही जा रहा था. पैंट के अन्दर बहता हुआ खून गर्म महसूस हो रहा था.

यह सब बहुत शांत प्रतीत हो रहा था. कहीं दूर कुत्ते भौंक रहे थे और चारो तरफ इतने झींगुरों के बोलने की आवाजें आ रही थीं कि वो सभी एक में मिलकर, भली सी अकेली आवाज़ बन गई थी. नहर के पार आम के एक बाग़ में कुछ कौओं ने कांव-कांव मचाना शुरू कर दिया, उसे ताज्जुब हुआ कि वे भला इतनी रात गए क्यूँ चिल्ला रहे हैं. शायद पेड़ पर उनके घोंसले में कोई सांप आया हो. सिन्धु की बसंत की बाढ़ से ताज़ी मछलियाँ बाज़ार में अभी-अभी आई थीं, उसे याद आता रहा कि वो रात के खाने के लिए थोड़ी खरीदना चाहता था, शायद अगली रात को. दर्द बढ़ता जा रहा था, वो उसी के बारे में, तली जाती मछलियों की गंध के बारे में सोचता रहा.

गाँव से दो आदमी दौड़ते हुए आए, एक आदमी दूसरे के मुकाबले काफी कम उम्र का था और दोनों ने ही शरीर के ऊपरी हिस्से पर कुछ नहीं पहन रखा था. बड़े, जिसकी तोंद निकली थी, के हाथों में एक पुराने ढंग की एक-नली बन्दूक थी जिसके बट को अनगढ़ तरीके से तार से बांधकर रखा गया था.

"हे भगवान, इसको तो मार ही डाला है. कौन है यह?"

कम उम्र नौजवान उसके पास आकर झुका. "यह तो नवाब है, बिजली मिस्त्री, नूरपुर हारूनी वाला."

"मैं मरा नहीं हूँ," नवाब ने बिना सर उठाए कहा. वह इन बाप-बेटों को जानता था, बेटे की शादी में बिजली की व्यवस्था उसी ने की थी. "वो हरामजादा वहां है, उन नरकटों में."

आगे बढ़कर, झुरमुट के बीच में निशाना लगाते हुए बूढ़े व्यक्ति ने गोली चलाई, दुबारा गोली भरा और फिर चलाया. ऊंची उठी और बीजयुक्त पंखों से आच्छादित, हरी पत्तीदार डंठलों में कोई हलचल नहीं हुई.

"वह भाग गया," कम उम्र शख्स ने नवाब के पास बैठते हुए उसकी बांह थाम कर कहा.

बाप बन्दूक को अपने कंधे पर टिका कर ताने हुए सावधानी से आगे बढ़ा. कुछ हलचल हुई और उसने गोली चला दिया. लुटेरा आगे की ओर खुले मैदान में गिर पड़ा. "हे माँ बचाओ," वो चिल्लाया और कमर को हाथों से पकड़े घुटनों के बल खड़ा हुआ. उसके पास जाकर बाप ने बन्दूक की बट से उसकी पीठ के मध्य भाग पर प्रहार किया, फिर बन्दूक फेंककर उसका कालर पकड़े उसे सड़क तक घसीट लाया. खून से लथपथ शर्ट को उठाकर उसने देखा कि लुटेरे के पेट में आधे दर्जन छर्रे लगे थे - टार्च की रोशनी में उफनते काले छेदों से होकर खून बह रहा था. लुटेरा बिना किसी ताकत के बार-बार थूक रहा था.

लड़का उठ खड़ा हुआ और गियर बिना छुड़ाए ही मोटरसाइकिल को सड़क पर धकेल कर स्टार्ट कर लिया. चिल्ला कर यह बताते हुए कि वो किसी सवारी का इंतजाम करने जा रहा है, वह तेजी से निकल गया, इधर आवाज़ से ही यह जानकर नवाब ने बुरा सा मुंह बनाया कि अपनी जल्दबाजी में नवयुवक ने बिना क्लच लिए ही गियर बदल लिए थे.

"सिगरेट पिएंगे चचा?," अधिक उम्र के ग्रामीण ने नवाब से पूछा.

"मेरी हालत देख रहे हो" नवाब ने इन्कार में सर हिलाते हुए कहा.

खामोशी में कोई भूली हुई बात नवाब को परेशान करती रही, कोई जरुरी बात. तब एकाएक उसे याद आया.

"उस आदमी का रिवाल्वर खोजो, भोले. पुलिस के लिए तुम्हें उसकी जरुरत पड़ेगी."

"मैं आपको छोड़कर नहीं जा सकता," उसने कहा. लेकिन एक मिनट बाद वह सिगरेट फेंककर उठ खड़ा हुआ.

अधिक उम्र वाला आदमी अभी नरकट में खोज ही रहा था जब किसी गाडी की हेडलाईट नहर बैराज पर पड़ी और सड़क पर उछलने लगी. पूरे मामले से सशंकित ड्राइवर परे खड़ा रहा जबकि बाप-बेटे ने नवाब और मोटरसाइकिल लुटेरे को पीछे लादा. वो गाड़ी से ही फिरोजा के, महज एक फार्मेसिस्ट द्वारा चलाए जा रहे निजी अस्पताल में पहुंचे जो अपने अक्खड़ और अचूक ढंग तथा सभी प्रचलित रोगों का इलाज केवल कुछ ही दवाओं से करने में कामयाब रहने के चलते अच्छी ग्राहक-संख्या वाला था.

अस्पताल से कीटाणुनाशक और शरीर से बहे तरल पदार्थों की तीखी मीठी सी बू आ रही थी. एक कमरे में चार बेड पड़े थे जिनपर ट्यूबलाईट की मद्धम रोशनी पड़ रही थी. जब बाप-बेटे उसको अन्दर लेकर आए, दर्द के चलते सचेत हुए नवाब ने कुछ अस्त-व्यस्त चादरों पर खून के निशान देखे, जंग के रंग का एक दाग. फार्मेसिस्ट अस्पताल के ऊपर ही रहता था और वह लुंगी बनियान पहने ही नीचे आ गया था. अगर किसी को यह लगता रहा हो कि वह इतनी रात गए उठाए जाने पर कुछ परेशान होगा, तो वह पूरी तरह से शांत नजर आ रहा था.

"इन्हें उन दो बेडों पर लिटा दो."

"अस सलाम आलेकुम डाक्टर साहब," नवाब ने कहा, उसे ऐसा लग रहा था कि वह बहुत दूर खड़े किसी व्यक्ति से बात कर रहा है. फार्मेसिस्ट बहुत गंभीर और महत्वपूर्ण व्यक्ति प्रतीत हो रहा था और नवाब उससे औपचारिक ढंग से बोल रहा था.

"क्या हुआ था नवाब?"

"उसने मेरी मोटरसाइकिल छीनने की कोशिश की, लेकिन मैंने उसे ऐसा नहीं करने दिया."

फार्मेसिस्ट ने नवाब की सलवार खींच कर निकाल दी, एक कपड़ा लिया और खून साफ़ किया, फिर बड़ी बेदर्दी से यहाँ-वहां कोंचता रहा, नवाब बेड के पाए पकड़े-पकड़े बड़ी मुश्किल से अपनी चीख रोके रहा. "तुम बच जाओगे," उसने कहा. "खुशकिस्मत हो. गोलियां नीचे लगीं."

"क्या वहां तो गोली..."

फार्मेसिस्ट ने कपड़े से उसे थपथपाया. "वो भी नहीं, खुदा का शुक्र है."

लुटेरे को लगता है फेफड़े में गोली लगी थी, उसका खून बहता ही जा रहा था.

"तुम्हें इसे पुलिस को देने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी," फार्मेसिस्ट ने कहा. "यह मरने वाला है."

"सुनिए," लुटेरे ने उठने की कोशिश करते हुए याचना की. "मेरे ऊपर दया करिए, मुझे बचा लीजिए. मैं भी एक इंसान हूँ."

फार्मेसिस्ट बगल के कमरे में स्थित अपने आफिस में गया और एक पैड पर दवाएं लिखकर ग्रामीण के लड़के को पास की गली में रहने वाले दवा विक्रेता के यहाँ भेजा.

"उसे जगा देना और कहना कि ये बिजली मिस्त्री नवाबदीन के लिए है. उसे बता देना कि पैसे उसे मैं दिला दूंगा"

नवाब ने पहली बार लुटेरे की तरफ देखा. उसके तकिए पर खून था, वह इस तरह जोर-जोर से साँसें ले रहा था जैसे अपनी नाक उड़ा देना चाहता हो. उसकी पतली और बहुत लम्बी गर्दन कुटिलतापूर्वक उसके कंधे पर यूँ लटक आई थी, जैसे उसका जोड़ टूट गया हो. नवाब का जितना ख्याल था, वह उससे ज्यादा उम्र का था, वह लड़का नहीं था, पक्के रंग का, धंसी हुई आँखें और बाहर निकले धूम्रपान करने वाले दांत, जो हर बार सांस लेने के लिए झटका लेने पर दिखने लगते थे.  

"मैंने तुम्हारे साथ गलत किया," लुटेरे ने फीके ढंग से कहा. "मैं यह जानता हूँ. तुम मेरी जिंदगी के बारे में नहीं जानते, उसी तरह से जैसे मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानता. मुझे भी यह नहीं पता कि मैं यहाँ कैसे आ पहुंचा. हो सकता है तुम गरीब होओ, लेकिन मैं तुमसे भी गरीब हूँ. मेरी बूढी और अंधी माँ है जो मुल्तान के बाहरी इलाके की झुग्गी में रहती है. उनसे कहो मेरा इलाज कर मुझे ठीक कर दें, अगर तुम कहोगे तो वे तुम्हारी बात मानेंगे." वह रोने लगा, आंसुओं को वह पोछ नहीं रहा था जो उसके सांवले चेहरे पर पंक्तिबद्ध बह रहे थे.

"भाड़ में जाओ," नवाब ने उसकी तरफ से मुंह फेरते हुए कहा. "तुम्हारे जैसे लोग अपराध स्वीकारने में बहुत निपुण होते हैं. मेरे बच्चे गली-गली भीख मांगते फिरते."

लुटेरा उबकाई लेता और अपने अगल-बगल उंगलिया रगड़ता पड़ा रहा. फार्मेसिस्ट कहीं चला गया लगता था.

"वे अभी कह रहे थे कि मैं मरने वाला हूँ. मैंने जो कुछ भी किया उसके लिए मुझे माफ़ कर दो. मैं लातों-घूसों के साथ बड़ा हुआ हूँ, मुझे कभी भर पेट खाने को नहीं मिला. मेरे पास खुद की कभी कोई चीज नहीं हुई, न जमीन, न घर, न बीवी, न पैसे, कभी नहीं, कुछ भी नहीं. सालों मैं मुल्तान रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर सोता रहा हूँ. मेरी माँ तुम्हें दुआएं देगी. मेरे ऊपर मेहरबानी करो, मुझे बिना माफ़ी के न मरने दो." वह और जोर-जोर से खांसने और सांस लेने लगा, और फिर उसे हिचकियाँ आने लगीं.

अब नवाब को कीटाणुनाशक की गंध तेज और अच्छी लगने लगी थी. फर्श जैसे चमक रहा था. उसके आस-पास की दुनिया और फ़ैल गई थी.

"कभी नहीं. मैं तुम्हें माफ़ नहीं करूंगा. तुम्हारे पास अपनी ज़िन्दगी थी, मेरे पास अपनी. सड़क के हर कदम पर मैं सही रास्ते चला और तुम गलत. खुद को देखो, होंठो के कोरों पर अटके हुए खून के बुलबुलों को देखो. तुम्हें क्या लगता है यह इंसाफ नहीं है? मेरी बीवी और बच्चे सारी ज़िन्दगी रोते बिताते, और तुम ताश के छः बदकिस्मत दांव और देशी खिंची जहर की कुछ बोतलों पर लुटाने के लिए मेरी मोटरसाइकिल बेंच देते. अगर तुम इस समय यहाँ न पड़े होते तो कब के नदी किनारे के जुए के अड्डों तक पहुँच चुके होते."

"मेहरबानी करो, मेहरबानी, मेहरबानी," हर बार अधिक कोमलता से उसने कहा, और फिर वह छत की तरफ घूरने लगा. "यह सच नहीं है," वह फुसफुसाया. कुछ मिनटों के बाद वह ऐंठा और मर गया. फार्मेसिस्ट ने, जो अब तक लौट आया था और नवाब के घाव धो रहा था, उसकी कोई मदद नहीं की.

फिर भी नवाब का दिमाग उस शख्स की बातों और उसकी मौत पर अटका रहा, जैसे कोई चिड़िया किसी चमकीली चीज में चोंच मारने के उद्देश्य से उसके चारों ओर फुदक रही हो. फिर उसने इस ख्याल को झटक दिया. उसने मोटरसाइकिल के बारे में सोचा, उसे बचाने के बारे में और उसे बचाने की खुशी के बारे में. छः गोलियां, उछाले गए छः सिक्के, छः मौके, और इनमें से कोई भी उसे, नवाबदीन बिजली मिस्त्री को, मार नहीं पाया था.
                                                           :: :: :: :: 

Friday, September 7, 2012

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : गुलाबी कान

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...   

 
गुलाबी कान : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मुझे लगता था 
कि बहुत अच्छी तरह जानता हूँ मैं उसे 
इतने सालों से हम रह रहे हैं साथ 

जानता हूँ 
उसका चिड़ियों जैसा सर 
गोरी बाहें 
और पेट 

उस वक़्त तक रहा यह गुमान 
जब सर्दियों की एक शाम 
वह बैठी थी मेरे बगल 
और हमारे पीछे से पड़ रही 
लैम्प की रोशनी में 
मैंने देखा एक गुलाबी कान 

त्वचा की एक मौजूं पंखुड़ी 
अपने भीतर प्रवाहमान रक्त भरे 
एक सीपी 

मैंने कुछ नहीं कहा उस वक़्त -- 
बेहतर होगा एक कविता लिखना 
गुलाबी कान के बारे में 
पर ऎसी नहीं कि लोग कहें 
कैसा विषय चुना है उसने 
सनकी दिखना चाहता है वह. 

ऎसी कि हंस भी न सके कोई 
ऎसी कि उन्हें लगे 
एक रहस्य को प्रकट किया मैंने 

मैंने कुछ नहीं कहा उस वक़्त 
मगर उस रात जब हम साथ-साथ थे बिस्तर में 
बड़ी कोमलता से मैं जांचता रहा 
एक गुलाबी कान के 
विलक्षण स्वाद को. 
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Wednesday, September 5, 2012

रॉबर्ट ब्लाय : पुराने गुरुजनों के प्रति आभार

आज शिक्षक दिवस पर रॉबर्ट ब्लाय की यह कविता...    

 
पुराने गुरुजनों के प्रति आभार  : रॉबर्ट ब्लाय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब हम चहलकदमी करते हैं किसी जमी हुई झील पर, 
हम वहां रखते हैं अपने कदम जहां वे पहले कभी नहीं पड़े थे. 
अछूती सतह पर चहलकदमी करते हैं हम. मगर होते हैं बेचैन भी.
कौन होता है वहां नीचे, सिवाय हमारे पुराने गुरुजनों के ?

पानी जो कभी संभाल नहीं पाता था इंसान का वजन 
--तब हम विद्यार्थी हुआ करते थे-- अब टिकाए रहता है हमारे पैरों को,
और कोई मील भर फैला होता है हमारे सामने. 
हमारे नीचे होते हैं गुरुजन, और खामोशी होती है हमारे चारों ओर. 
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Monday, September 3, 2012

येहूदा आमिखाई : इस छोटे से देश में

येहूदा आमिखाई की एक और कविता...   

 
इस छोटे से देश में कितनी उलझन : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

इस छोटे से देश में कितनी उलझन, 
कितना भ्रम! "पहले पति का दूसरा बेटा 
जाता है अपने तीसरे युद्ध पर, पहले ईश्वर का 
दूसरा मंदिर नष्ट हो जाता है हर साल." 
मेरा डाक्टर इलाज करता है मोची की आँतों का 
जो मरम्मत करता है उस आदमी के जूतों की 
जिसने मेरा बचाव किया था मेरे चौथे मुक़दमे में. 
पराए बाल मेरी कंघी में, मेरी रुमाल में पराया पसीना, 
चिपक जाती हैं मुझसे दूसरों की स्मृतियाँ 
जैसे गंध से चिपक जाते हैं कुत्ते, 
और उन्हें भगाना ही होगा मुझे 
डांटते हुए, एक छड़ी उठाकर. 

सभी प्रदूषित हैं एक-दूसरे से, 
एक-दूसरे को स्पर्श करते हैं सभी, 
छोड़ जाते हैं उँगलियों के निशान, 
और बहुत काबिल गुप्तचर होता होगा यमदूत 
उनमें फर्क करने के लिए. 

एक फ़ौजी को जानता था मैं, जो मर गया था एक युद्ध में, 
तीन या चार स्त्रियों ने मातम मनाया था उसका: 
वह मुझसे प्रेम करता था. मैं प्रेम करती थी उससे. 
वह मेरा था. मैं थी उसकी. 

बर्तन और मोर्टार दोनों ही बनाती है सोल्टाम कम्पनी 
और मैं नहीं बनाता कुछ भी. 
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