Showing posts with label अन्ना स्विर. Show all posts
Showing posts with label अन्ना स्विर. Show all posts

Sunday, April 14, 2013

अन्ना स्विर की कविता

अन्ना स्विर की एक और कविता... 









समुद्र और इंसान : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम साध नहीं पाओगे इस समुद्र को 
विनम्रता या हर्षोन्माद से. 
मगर हँस सकते हो 
इसके मुंह पर. 

उन लोगों ने ईजाद की थी 
हँसी  
जो जीते हैं मुख़्तसर 
हँसी की एक बौछार की तरह. 

यह अंतहीन समुद्र 
कभी नहीं सीख पाएगा हँसना 
            :: :: :: 

Tuesday, November 6, 2012

अन्ना स्विर की कविता

अन्ना स्विर की एक और कविता...   


मुर्दों से मेरी बातचीत : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मुर्दों के साथ एक ही कम्बल ओढ़कर सोई मैं 
माफी मांगती हुई उनसे 
अपने अभी तक ज़िंदा रहने के लिए. 

बेमतलब था वह. उन्होंने माफ़ कर दिया मुझे. 
गलत था मेरा ख्याल. हैरान हुए वे भी. 
आखिरकार 
ज़िंदगी कितनी खतरनाक थी उस वक़्त. 
               :: :: :: 

Thursday, October 25, 2012

अन्ना स्विर : शादी वाली सफ़ेद जूतियाँ

अन्ना स्विर की एक और कविता...   


शादी वाली सफ़ेद जूतियाँ : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

रात में 
माँ ने एक संदूक खोली 
और अपनी 
रेशमी सफ़ेद शादी वाली जूतियाँ निकालीं. 
फिर धीरे से 
रोशनाई पोत दिया उन पर. 

सुबह-सुबह 
उन जूतियों को पहने वे 
निकल पडीं सड़क पर 
ब्रेड की कतार में खड़ी होने के लिए. 
शून्य से दस डिग्री नीचे के तापमान में 
तीन घंटे तक 
वे खड़ी रहीं सड़क पर. 

वे बाँट रहे थे 
प्रति व्यक्ति एक-चौथाई डबल रोटी. 
            :: :: :: 

Wednesday, October 24, 2012

अन्ना स्विर : हैरत

पोलिश कवयित्री अन्ना स्विर की एक और कविता...  


हैरत : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

इतने सालों से 
देखती आ रही हूँ तुम्हें 
कि बिल्कुल अदृश्य हो गए हो तुम. 
मगर अभी तक एहसास नहीं था मुझे इस बात का. 

कल संयोग से 
किसी और के संग चुम्बनों का आदान-प्रदान किया मैंने. 
और तब जाकर कहीं 
यह जाना मैंने हैरत के साथ 
कि लम्बे समय से 
मेरे लिए एक पुरुष नहीं रह गए हो तुम. 
               :: :: :: 

Friday, August 31, 2012

अन्ना स्विर : अजन्मी स्त्री

अन्ना स्विर की एक और कविता...   

 
अजन्मी स्त्री : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अभी जन्मी नहीं हूँ मैं,  
अपनी पैदाइश के पांच मिनट पहले तक. 
अभी भी जा सकती हूँ वापस 
अपने अजन्म में. 
अब दस मिनट पहले, 
अब, एक घंटे पहले अपनी पैदाइश से.  
वापस जाती हूँ मैं, 
दौड़ती हूँ 
अपने ऋणात्मक जीवन में. 

अपने अजन्म में चलती हूँ जैसे अनोखे दृश्यों वाली 
सुरंग में किसी. 
दस साल पहले, 
डेढ़ सौ साल पहले, 
चलती जाती हूँ मैं, धमधमाते हुए मेरे कदम 
एक शानदार यात्रा उन युगों से होते हुए 
जिनमें अस्तित्व नहीं था मेरा. 

कितना लंबा है मेरा ऋणात्मक जीवन, 
कितना अमरत्व जैसा होता है अनस्तित्व. 

यह रहा रोमैन्टसिजम, जहां कोई चिर कुमारी हो सकती थी मैं, 
यह रहा पुनर्जागरण, जहां किसी दुष्ट पति की 
बदसूरत और अनचाही पत्नी हो सकती थी मैं, 
मध्य युग, जहां पानी ढोया होता मैंने किसी शराबघर में. 

और आगे बढ़ती हूँ मैं, 
कितनी शानदार गूँज, 
धमधमाते हुए मेरे कदम 
मेरे ऋणात्मक जीवन से होते हुए.    
होते हुए मेरे जीवन के विपरीत से. 
आदम और हव्वा तक पहुँच जाती हूँ मैं 
अब और कुछ नहीं दिखता, अंधेरा है यहाँ. 
मृत्यु हो चुकी है मेरे अनस्तित्व की अब 
गणितीय गल्प की घिसी-पिटी मृत्यु के साथ. 
उतनी ही घिसी-पिटी जितनी कि रही होती मेरे अस्तित्व की मृत्यु 
गर हकीकत में जन्म लिया होता मैंने. 
                    :: :: :: 

Monday, August 27, 2012

अन्ना स्विर : वे तीसरी मंजिल से नहीं कूदे

अन्ना स्विर की एक और कविता...   

 
वे तीसरी मंजिल से नहीं कूदे : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

दूसरा विश्व युद्ध 
वारसा. 
आज रात उन्होंने बम गिराए 
थिएटर चौराहे पर. 

थिएटर चौराहे पर 
वर्कशाप थी मेरे पिता की. 
सारी पेंटिंग, मेहनत 
चालीस सालों की.   

अगली सुबह पिताजी गए 
थिएटर चौराहे की ओर. 
उन्होंने देखा. 

छत नहीं है उनकी वर्कशाप की, 
नहीं हैं दीवारें 
फर्श भी नहीं. 

पिताजी कूदे नहीं 
तीसरी मंजिल से. 
उन्होंने फिर से शुरू किया 
बिल्कुल शुरूआत से. 
            :: :: :: 

Wednesday, August 22, 2012

अन्ना स्विर : समुद्र तट पर शरीर और आत्मा

पोलिश कवियत्री अन्ना स्विर की एक कविता...   

Anna Swir 
समुद्र तट पर शरीर और आत्मा : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

समुद्र तट पर आत्मा 
एक किताब पढ़ती है दर्शनशास्त्र की. 
शरीर से पूछती है आत्मा: 
वह क्या है जो जोड़ता है हमें? 
शरीर कहता है: 
समय हो गया घुटनों पर धूप सेंकने का. 

आत्मा पूछती है शरीर से: 
क्या यह सच है 
कि असल में हमारा अस्तित्व नहीं होता? 
शरीर कहता है: 
मैं धूप सेंक रहा हूँ घुटनों पर. 

शरीर से पूछती है आत्मा: 
कहाँ होगी मृत्यु की शुरूआत, 
तुम्हारे भीतर या मेरे? 
शरीर हंसा, 
वह धूप सेंकता रहा घुटनों पर. 
            :: :: :: 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...