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Monday, October 8, 2012

बिली कालिंस : मृतक

बिली कालिंस की एक और कविता...   


मृतक : बिली कालिंस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

लोग कहते हैं, मृतक हमेशा ऊपर से देखते रहते हैं हमें. 
जब हम पहनते होते हैं अपने जूते या तैयार करते होते हैं एक सैंडविच, 
स्वर्ग की शीशे के तलों वाली कश्तियों से वे निहारा करते हैं हमें 
अनंत में आहिस्ता-आहिस्ता खेते हुए अपने कश्ती. 

पृथ्वी पर फिरती हमारी खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा देखा करते हैं वे, 
और जब हम लेट जाते हैं किसी मैदान में या किसी सोफे पर 
शायद एक लम्बी दोपहर की भिनभिनाहट के नशे में, 
उन्हें लगता है कि वापस उन्हें ताक रहे हैं हम, 
तब अपने चप्पू ऊपर उठाकर खामोश हो जाते हैं वे 
और इंतज़ार करते हैं, माँ-बाप की तरह कि हम बंद कर लें अपनी आँखें.  
                            :: :: :: 

इस कविता का एनीमेटेड वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें. 

Wednesday, October 3, 2012

बिली कालिंस : खामोशी

अमेरिकी कवि बिली कालिंस की एक और कविता...   


खामोशी : बिली कालिंस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक अचानक उग आई खामोशी होती है भीड़ की 
उस खिलाड़ी पर जो बेहरकत खड़ा हो मैदान में, 
और खामोशी होती है आर्किड की. 

फर्श से टकराने के पहले 
खामोशी गिरते हुए गुलदान की, 
और बेल्ट की खामोशी, जब वह पड़ न रही हो बच्चे पर. 

निःशब्दता कप और उसमें भरे हुए पानी की, 
चंद्रमा की खामोशी 
और सूरज की भभक से परे दिन की शान्ति. 

खामोशी जब मैं तुम्हें लगाए होता हूँ अपनी छाती से, 
हमारे ऊपर के रोशनदान की खामोशी, 
और खामोशी जब तुम उठती हो और चली जाती हो दूर. 

और खामोशी इस सुबह की 
जिसे भंग कर दिया है मैंने अपनी कलम से, 
खामोशी जो जमा होती रही है रात भर 

घर के अँधेरे में होती हुई बर्फबारी की मानिंद -- 
मेरे कोई शब्द लिखने के पहले की खामोशी 
व और भी घटिया खामोशी इस वक़्त की. 
                 :: :: :: 

Monday, July 2, 2012

बिली कालिन्स : भुलक्कड़पन

बिली कालिंस की यह कविता मुझे बहुत पसंद है, आप भी पढ़िए...   

 
भुलक्कड़पन : बिली कालिन्स 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

सबसे पहले जाता है लेखक का नाम 
उसके पीछे-पीछे अदब से जाता है शीर्षक, कथानक, 
वह मर्मभेदी अंत, पूरा उपन्यास, जो अचानक बन जाता है ऐसा 
कि उसे कभी पढ़ा न हो आपने, कभी सुना भी न हो नाम, 

जैसे एक-एक कर उन स्मृतियों ने, जिन्हें पनाह दिया करते थे आप 
तय किया हो मस्तिष्क के दक्षिणी गोलार्ध में जा बसने का, 
मछुआरों के किसी छोटे से गाँव में जहां फोन न हो कोई.   

नौ देवियों के नामों को तो पहले ही अलविदा कह चुके थे आप 
और द्विघाती समीकरण को देखा था अपना बोरिया-बिस्तर बांधते 
और अब भी जबकि आप याद कर रहे हैं ग्रहों के क्रम को, 

फिसलती जा रही है कोई और चीज, एक राष्ट्रीय पुष्प शायद, 
एक चाचा जी का पता, पराग्वे की राजधानी.  

जिस भी चीज को याद करने के लिए हाथ-पैर मार रहे हों आप 
आपकी जुबान की नोक पर तो नहीं ही अटकी है वह 
न ही किसी अज्ञात कोने में छिपी है आपकी तिल्ली के. 

बह चुकी है वह एक अंधेरी मिथकीय नदी से होकर 
ल से शुरू होता है जिसका नाम, जहां तक याद आ रहा है आपको   

विस्मृति के अपने ठीक रास्ते पर हैं आप, जहां आप मिलेंगे 
उन लोगों से जो भूल चुके हैं तैरना और सायकिल चलाना भी. 

कोई ताज्जुब नहीं कि आप उठते हैं आधी रात को 
एक चर्चित लड़ाई की तारीख देखने के लिए युद्ध की किसी किताब में. 
कोई ताज्जुब नहीं कि खिड़की का चाँद निकल गया लगता है 
उस प्रेम कविता में से जो जुबानी याद हुआ करती थी आपको.  
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इस कविता का एक एनीमेटेड वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें.

Friday, June 29, 2012

बिली कालिन्स : कुत्ते को तौलना

बिली कालिंस की एक और कविता...   

 
कुत्ते को तौलना : बिली कालिन्स 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यह अजीब है मेरे लिए और उसके लिए हैरत भरा 
जबकि मैं छोटे से बाथरूम में उसे थामे हुए हूँ अपने हाथों में, 
अपना संतुलन बनाता एक डगमगाती नीली तराजू पर.  

पर यही तरीका है किसी कुत्ते को तौलने का और आसान भी 
उसे एक जगह पर कायदे से बैठना सिखाने की बजाय 
अपनी जीभ बाहर निकाले, बिस्कुट का इंतज़ार करते हुए. 

पेन्सिल और कागज़ लेकर मैं अपना वजन घटाता हूँ 
हमारे कुल योग में से, बाक़ी बचा उसका वजन निकालने के लिए, 
और सोचने लगता हूँ कि क्या कोई समानता है यहाँ. 

इसका सम्बन्ध मेरे तुम्हें छोड़ने से तो नहीं हो सकता 
गोकि मैं कभी नहीं जान पाया कि क्या कुछ थी तुम, 
जब तक हमारे संयोजन में से खुद को घटा नहीं लिया मैंने.  

मेरे तुम्हें थामने की अपेक्षा तुमने ज्यादा थामा था मुझे अपनी बाहों में
उन अजीब और हैरत भरे महीनों के दौरान, और अब हम दोनों ही 
गुम हो चुके हैं अपरिचित और दूर की बस्तियों में. 
                              :: :: :: 

Tuesday, June 5, 2012

बिली कालिन्स : साथ-साथ

बिली कालिंस की एक और कविता...   

 
साथ-साथ : बिली कालिन्स 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

चाहता हूँ कि तेज हो कैंची 
और बिल्कुल समतल हो मेज 
जब तुम काटो मुझे मेरी ज़िंदगी से 
और चिपकाओ उस किताब में जिसे हमेशा लिए रहती हो साथ-साथ. 
                    :: :: :: 

Tuesday, May 1, 2012

बिली कालिन्स : भागमभाग

बिली कालिन्स की एक और कविता...  

 
भागमभाग : बिली कालिन्स 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

सुबह-सुबह काम पर जाने की भागमभाग में 
हार्न बजाता तेज रफ़्तार में निकलता हूँ कब्रिस्तान के बगल से 
जहां अगल-बगल दफ़न हैं मेरे माता-पिता 
ग्रेनाईट की एक चिकनी पटिया के नीचे. 

और फिर पूरे दिन लगता है जैसे उठ रहे हों वे 
नापसंदगी का इजहार करने वाली 
उन्हीं निगाहों से मुझे देखने के लिए,  
जबकि माँ शान्ति से उन्हें समझाती हैं फिर से लेट जाने को.  
                    :: :: :: 

Saturday, September 17, 2011

बिली कालिन्स : कविता का असली मतलब

बिली कालिन्स की एक कविता...













कविता का परिचय : बिली कालिन्स
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं उनसे कहता हूँ
किसी कविता को लेकर उसे रोशनी की तरफ करके देखो 
जैसे देखते हैं किसी रंगीन स्लाइड को 

या फिर अपना एक कान सटाओ इसके संग्रह से. 

मैं कहता हूँ कविता के भीतर एक चूहा छोड़ो
और उसे बाहर निकलने का अपना रास्ता तलाशते देखो,

या फिर दाखिल होओ कविता के कमरे के भीतर 
और दीवार टटोलो बिजली की बटन के लिए.

मैं उनसे चाहता हूँ किसी कविता की सतह पर 
वाटरस्कीइंग करवाना 
किनारे कवि के नाम की तरफ हाथ हिलाते हुए.

मगर वे तो सिर्फ 
कविता को कुर्सी से बांधकर
उससे जबरन कुछ कबुलवाना चाहते हैं. 

वे उसे पीटने लगते हैं एक पाइप से 
उसका असली मतलब जानने के लिए. 
                    :: :: :: 

Thursday, September 30, 2010

बिली कालिन्स की कविता

पहली लहर पर कदम रखने के पहले
इंतजार करता हूँ कि छुट्टियों की भीड़ समुद्र तट खाली कर दे

पैदल पार कर रहा हूँ अटलांटिक
सोचते स्पेन के बारे में
व्हेलों और लहरों को परखते
महसूसता हूँ पानी को सँभालते अपना खिसकता वजन
आज की रात इसकी डोलती सतह पर ही सोना होगा

मगर अभी तो अंदाजा लगाता हूँ
कि नीचे से मछलियों को कैसा दिखता होगा
दृश्य-अदृश्य होता मेरा तलुआ |



(अनुवाद : Manoj Patel)

Padhte Padhte
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