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Wednesday, October 17, 2012

महमूद दरवेश : एयरपोर्ट पर


महमूद दरवेश की तीसरी और आखिरी गद्य पुस्तक 'इन द प्रजेंस आफ एब्सेंस' के अनुवाद के लिए इराकी कवि, कथाकार और अनुवादक सिनान अन्तून को हाल ही में अमेरिकन लिटरेरी ट्रांसलेटर्स एसोसिएशन द्वारा राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है. इस किताब से एक अंश आप पहले भी यहाँ पढ़ चुके हैं. आज प्रस्तुत है एक और अंश...  










एयरपोर्ट पर : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

किसी इंसान के एयरपोर्ट पर रहने का क्या मतलब होता है? तुम सोचते हो: अगर मैं, मैं होता तो मैंने एयरपोर्ट पर अपनी आजादी की तारीफ़ में कुछ लिखा होता: मैं और मक्खी आज़ाद हैं. मक्खी, मेरी बहन नर्मदिल है. वह मेरे कन्धों और हाथों पर बैठ जाती है. मुझे लिखने की याद दिलाकर उड़ जाती है और मैं एक पंक्ति लिख लेता हूँ. जैसे एयरपोर्ट उन लोगों का वतन हो जिनका कोई वतन नहीं. कुछ देर बाद मक्खी फिर आ जाती है. एकरसता को तोड़कर वह फिर उड़ जाती है. मैं किसी से बात नहीं कर पाता. मेरी बहन, वह मक्खी कहाँ है? मैं कहाँ हूँ आखिर?   

तुम खुद को एक फिल्म में देखते हो जिसमें तुम कैफेटेरिया में सामने बैठी एक स्त्री को घूर रहे हो. जब वह तुम्हें निहारते हुए देख लेती है, तुम अपनी कमीज पर गिर आई शराब की एक बूँद को पोछने का बहाना करने लगते हो, वह बूँद जो उन बातों में से एक भगोड़े शब्द जैसी है जिसे तुमने उससे कहा होता गर वह तुम्हारे साथ होती: मेरे लिए आपकी खूबसूरती आसमान की तरह बहुत ज्यादा है, इसलिए बराएमेहरबानी आसमान को थोड़ा सा उठा लीजिए ताकि मैं बात कर सकूं. तुम भाप छोड़ते सूप के कटोरे से अपनी निगाहें उठाते हो और पाते हो कि वह तुम्हें देख रही है. मगर वह अपने खाने पर एक ऐसे हाथ से नमक छिड़कने में मशगूल होने का बहाना करने लगती है जिस पर रोशनी कांपती रहती है. तुम चुपचाप उससे बातें करते हो: मेरी तरह अगर तुम भी कहीं जाने से प्रतिबंधित होती, अगर तुम भी होती मेरी तरह! तुम्हें लगता है कि तुमने उसे शर्मिन्दा कर दिया है इसलिए तुम वेटर से बात करने का दिखावा करने लगते हो: नहीं, सॉरी. उसकी गर्दन पर पसीने का एक मोती झिलमिलाने लगता है और जैसे तारीफ़ के लिए बढ़ने लगता है. तुम चुपके से उसे बताते हो: अगर मैं तुम्हारे साथ होता तो पसीने की उस बूँद को चाट जाता. हसरत उतनी ही जाहिर और नुमायाँ हो गई है जितना कि प्लेट, काँटा, चम्मच, छुरी, पानी की बोतल, मेजपोश और मेज के पाए. हवा में खुश्बू है. दो निगाहें मिलती हैं, लजाती हैं और जुदा हो जाती हैं. वह शराब के प्याले से एक घूँट भरती है, जिसमें वह मोती भी घुल चुका है. तुम्हें महसूस होता है कि वह किसी गहरे समंदर में व्हेल का रूदन सुन चुकी है. नहीं तो इस गाढ़ी खामोशी में उसे क्या डुबो रहा होता? तुम चोरी से उसे बताते हो: अगर वे यह एलान करें कि एयरपोर्ट पर एक बम फटने वाला है तो इस बात का भरोसा मत करना! यह अफवाह मैं ही फैला रहा हूँ, तुम तक पहुँचने के लिए और तुमसे यह कहने के लिए कि कोई और नहीं मैं ही हूँ इस अफवाह को फैलाने वाला. तुम्हें लगता है कि वह आश्वस्त हो गई है, और जैसे ही वह तुम्हारी तंदरुस्ती के नाम अपना जाम उठाती है, उसकी उँगलियों के पोरों से हसरत का एक धागा फिसल जाता है और तुम्हारी रीढ़ की हड्डी में बिजली का करंट दौड़ा जाता है. एक सिहरन तुम्हें हिला देती है. मंत्रमुग्ध होकर तुम गहरी साँसे लेने लगते हो. हवा में लटकते एक पोशीदा पलंग से आम की महक तैरती हुई आती है. कहीं दूर ग़मज़दा वायलिनें विलाप करती हैं, चरम पर पहुँचने के बाद उनके तार शांत हो जाते हैं.     

तुम उस पर निगाह नहीं डालते क्योंकि तुम्हें पता है कि उसकी निगाहें तुम पर हैं, फिर भी वह तुम्हें देख नहीं रही है. तुम्हारी मेज को धुंध ने ढँक लिया है जो अब उन तमाम व्याख्यात्मक औजारों के नीचे दबी ऊंघ रही है जिन्हें तुमने उस पर जमा कर रखा है और उन सफ़ेद कागजों के नीचे दबी हुई भी जिन्हें बीस लेखक मिलकर भी शब्दों की बाजीगरी से भर नहीं सकते. यह वेटर नहीं, वह थी जिसने तुम्हारी मूर्छा तोड़कर तुमसे पूछा था: खाना ठीक था? तुमने उससे पूछा: और तुम्हारा? उसने कहा: तुमसे मिलकर खुशी हुई... क्या तुम्हें मेरी याद है? तुमने कहा: एयरपोर्टों पर किसी की याददाश्त जा भी सकती है. उसने कहा: खुदाहाफिज़! तुमने उसे जाते हुए नहीं देखा, क्योंकि तुम नहीं चाहते थे कि पूजाघरों के संगमरमर पर दो ऊंची हीलों को देखकर हसरत फिर सर उठाने लगे और वायलिनों की सूरत में जुदाई के लिए कोई लालसा भड़कने लगे. लेकिन तुमने उसे याद किया जब नींद घिर आई, तुम्हारी देह पर शराब के सुन्न कर देने वाले असर की तरह जो घुटनों से उस हिस्से की तरफ बढ़ता रहता है जिसे बदन के जंगल में तुम याद नहीं रख पाते. और जहां तक उसके नाम की बात है, उसे शायद तुम कल जान सको, किसी और मेज पर, किसी और एयरपोर्ट पर. 
                                                                :: :: :: 
(शीर्षक हिन्दी अनुवादक की ओर से)

Friday, March 30, 2012

महमूद दरवेश : इंतज़ार करते वक़्त

महमूद दरवेश की एक और कविता...   

 
इंतज़ार करते वक़्त : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

इंतज़ार करते वक़्त मुझे जूनून सा हो जाता है तमाम संभावनाओं पर 
गौर करने का: क्या पता वह ट्रेन में ही भूल गई हो 
अपना छोटा सा सूटकेस, और गुम हो गया हो मेरा पता 
और उसका मोबाइल फोन भी, उसकी इच्छा न रह गई हो 
और कहा हो उसने: इस बूंदा-बांदी में मैं क्यों भीगूँ उसके लिए / 
या शायद किसी जरूरी काम में व्यस्त हो गई हो वह, या निकल गई हो 
दक्खिन की तरफ सूरज से भेंट करने के लिए, और फोन किया हो मुझे 
और मुझसे बात न हो पाई हो सुबह-सुबह, क्योंकि मैं तो चला गया था 
गार्जीनिया के कुछ फूल और वाइन की दो बोतलें खरीदने के लिए
अपनी शाम के वास्ते  / 
या फिर शायद कोई झगड़ा था उसका अपने पूर्व-पति से 
कुछ यादों को लेकर, और कसम खा ली हो उसने किसी मर्द से न मिलने की 
जिससे डर हो उसे कुछ नई यादों के पैदा होने का / 
या दुर्घटनाग्रस्त हो गई वह एक टैक्सी में मुझसे मिलने आते समय 
जिसने बुझा दिए हों उसकी आकाश गंगा के कुछ सितारे 
और अब भी उसका इलाज चल रहा हो शांतिकर दवाओं और नींद से / 
या क्या पता बाहर निकलने के पहले उसने आईना देखा हो खुद से ही 
और महसूस किया हो दो नाशपातियों को लहरें पैदा करती हुईं 
अपनी रेशमी पोशाक में, फिर आह भरी हो और हिचकिचाई हो: 
क्या मेरे अलावा कोई और मेरे स्त्रीत्व का हकदार हो सकता है / 
या शायद संयोगवश ही वह टकरा गई हो एक पुराने प्यार से 
जिससे उबर न सकी हो अभी तक, और उसके साथ चली गई हो डिनर पर / 
या क्या पता मर ही गई हो वह, 
क्योंकि मौत को भी अचानक होता है प्यार, मेरी तरह 
और मेरी तरह मौत को भी पसंद नहीं इंतज़ार 
                    :: :: :: 

Thursday, March 15, 2012

महमूद दरवेश : जैसे तुम कोई और हो


महान फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश की लम्बी कविता 'निर्वासन' से एक अंश...                                                                          












मंगलवार, एक चमकीला दिन : महमूद दरवेश 
 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मंगलवार, एक चमकीला दिन. 
मैं शाहबलूत के पेड़ों से ढंकी,
एक गली से गुजरता हूँ. बहुत 
आहिस्ता-आहिस्ता चलता हूँ मैं, जैसे 
किसी कविता से तय हो मुलाक़ात मेरी. 
बेखयाली में देखता हूँ अपनी घड़ी.
सुदूर बादलों के पलटता हूँ पन्ने, जिसमें आसमान दर्ज करता है ऊंचे विचारों को. 
मोड़ देता हूँ अपने दिल के मामले 
अखरोट के पेड़ों की तरफ : खाली जगहें, बिना 
बिजली के जैसे समुन्दर किनारे एक छोटी सी झोपड़ी. 
तेज, धीमे, तेज चलता हूँ.
निहारता हूँ दोनों तरफ लगे साइनबोर्डों को...
गौर नहीं करता शब्दों पर. एक धुन गुनगुनाने लगता हूँ,
धीरे-धीरे, जैसे गुनगुनाते हैं बेरोजगार लोग : किसी बछड़े 
की तरह भागती है नदी अपनी नियति की तरफ, समुन्दर की तरफ. 
नदी के कन्धों से परिंदे झपट लेते हैं दाने.
और मैं बुदबुदाता हूँ, बुदबुदाता हूँ चुपके से : कल को आज ही जी लो !
चाहे जितने दिन ज़िंदा रहो तुम, कल तक कभी नहीं पहुँच पाओगे.
कल की कोई जमीन नहीं होती. सपना देखो धीरे-धीरे,
और चाहे जितना सपना देख लो, समझ जाओगे 
कि परवाने तुम्हें रोशनी देने के लिए नहीं जला करते. 

बहुत आहिस्ता-आहिस्ता चलता हूँ मैं, अपने आस-पास देखता हुआ.
शायद कोई समरूपता देख पाऊँ अपने विशेषणों 
और इस जगह के विलो के पेड़ों में. 
मगर मैं ऎसी कोई चीज नहीं देख पाता जो मेरी तरफ इशारा कर रही हो. 

(अगर कनारी चिड़िया तुम्हें गीत नहीं सुनाती, मेरे दोस्त,
जान लो कि तुम अपने खुद के जेलर हो,
अगर कनारी चिड़िया गीत नहीं गाती.)

कोई जमीन गमले जितनी संकरी नहीं होती, 
तुम्हारी जमीन की तरह. कोई जमीन किताब जितनी 
विस्तृत नहीं होती, जैसे कि तुम्हारी अपनी जमीन. और तुम्हारे सामने पसरा 
तुम्हारा निर्वासन है एक ऎसी दुनिया में जहां किसी परछाईं की 
कोई पहचान, कोई गुरुता नहीं होती. 

तुम ऐसे चलते हो जैसे तुम कोई और हो. 
                    :: :: :: 

Wednesday, December 21, 2011

महमूद दरवेश : यदि तुम नदी लिखने में गलती न करो

सिनान अन्तून द्वारा अनूदित महमूद दरवेश के गद्य की तीसरी और अंतिम किताब 'इन द प्रजेंस आफ एब्सेंस' हाल ही में प्रकाशित हुई है. यहाँ उसका एक संपादित अंश प्रस्तुत है...


अक्षर-अक्षर शब्द : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब एक अक्षर को दूसरे अक्षर के साथ, यानी एक निरर्थकता को दूसरी निरर्थकता के साथ, मिलाया जाता है तो एक दुरूह रूप, एक ध्वनि विशेष की स्पष्टता को प्रकट करता है. यह धीमी स्पष्टता एक छवि का आकार लेने हेतु अर्थ का मार्ग प्रशस्त करती है. कुछ अक्षर मिलकर एक दरवाजा या एक मकान बन जाते हैं. 

कितना मजेदार खेल है यह! एकदम जादू! शब्दों से धीरे-धीरे पूरी दुनिया जन्म लेती है. इस तरह पाठशाला कल्पना के लिए खेल का मैदान बन जाती है... जो कुछ भी दूर है वह पास आ जाता है. जो बंद है, वह खुल जाता है. यदि तुम "नदी" लिखने में गलती न करो तो नदी तुम्हारी कापी से होकर बहने लगेगी. आसमान को यदि तुम ठीक-ठीक लिख दो तो वह भी तुम्हारा एक निजी सामान हो जाता है.  

यदि तुम त्रुटिहीन लिखाई में महारत हासिल कर लो तो जो कुछ भी तुम्हारे नन्हें हाथों की पहुँच से परे है वह तुम्हारे दामन में आ गिरेगा. जो कोई कुछ लिखता है वह उस पर मिल्कियत भी रखता है. 

अक्षर तुम्हारे सामने पड़े हुए हैं, उन्हें उनकी तटस्थता से मुक्त करो और उनके साथ बेसुध ब्रह्माण्ड में खेल रहे एक विजेता की भांति खेलो. अक्षर बेचैन हैं, वे एक छवि के भूखे है और छवि एक अर्थ की प्यासी है. अक्षर, अर्थ के मार्ग में बिखरे हुए कंकड़ों के रूप में एक मौन निवेदन हैं. एक अक्षर को दूसरे अक्षर के साथ रगड़ो तो एक तारे का जन्म हो जाता है. एक अक्षर को दूसरे अक्षर के पास लाओ तो तुम बारिश की आवाज़ सुन सकते हो. एक अक्षर को दूसरे अक्षर के ऊपर रख दो तो तुम अपना नाम थोड़े से डंडों वाली एक सीढ़ी के रूप में बना पाओगे. 
                                                             :: :: :: 
manojpatel

Tuesday, May 31, 2011

महमूद दरवेश की कविताएँ


महमूद दरवेश की इन कविताओं का मेरा अनुवाद समालोचन ब्लॉग पर कवि मित्र अरुण देव की इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ था :
अनुवाद एक गम्भीर सभ्यतागत गतिविधि है. यह भाषाओं के बीच सेतु ही नहीं संस्कृतिओं की साझी लिपि भी है.
अंग्रेजी और उर्दू से हिंदी के अनुवाद क्षेत्र में मनोज पटेल आज एक जरूरी नाम है. हिंदी के अपने मुहावरे और बलाघात के सहारे मनोज मेहमान रचनाकारों को कुछ इस तरह आमंत्रित करते हैं कि कि उनसे सहज ही घनिष्टता हो जाती है. कायान्तरण का यह चमत्कार वह  लगभग रोज ही कर रहे हैं.



एक कैफेऔर अखबार के साथ आप 

एक कैफेऔर बैठे हुए आप अखबार के साथ.
नहींअकेले नहीं हैं आप. आधा भरा हुआ कप है आपका,
और बाक़ी का आधा भरा हुआ है धूप से...  
खिड़की से देख रहे हैं आपजल्दबाजी में गुजरते लोगों को,
लेकिन आप नहीं दिख रहे किसी को. (यह एक खासियत है  
अदृश्य होने की : आप देख सकते हैं मगर देखे नहीं जा सकते.)
कितने आज़ाद हैं आपकैफे में एक विस्मृत शख्स !
कोई देखने वाला नहीं कि वायलिन कैसे असर करती है आप पर.
कोई नहीं ताकने वाला आपकी मौजूदगी या नामौजूदगी को
या आपके कुहासे में नहीं कोई घूरने वाला जब आप 
देखते हैं एक लड़की को और टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं उसके सामने. 
कितने आज़ाद हैं आपअपने काम से काम रखतेइस भीड़ में,
जब कोई नहीं है आपको देखने या ताड़ने वाला !
जो मन चाहे करो खुद के साथ.
कमीज उतार फेंको या जूते.
अगर आप चाहेंआप भुलाए गए और आज़ाद हैंअपने ख़यालों में.
आपके चेहरे या आपके नाम पर कोई जरूरी काम नहीं यहाँ. 
आप जैसे हैं वैसे हैं - न कोई दोस्त न दुश्मन 
आपकी यादों को सुनने-गुनने के लिए.
दुआ करो उसके लिए जो छोड़ गया आपको इस कैफे में    
क्यूंकि आपने गौर नहीं किया उसके नए केशविन्यास,
और उसकी कनपटी पर मंडराती तितलियों पर.   
दुआ करो उस शख्स के लिए 
जो क़त्ल करना चाहता था आपको किसी रोजबेवजह
या इसलिए क्यूंकि आप नहीं मरे उस दिन 
जब एक सितारे से टकराए थे आप और लिखे थे 
अपने शुरूआती गीत उसकी रोशनाई से.
एक कैफेऔर बैठे हुए आप अखबार के साथ
कोने मेंविस्मृत. कोई नहीं खलल डालने वाला 
आपकी दिमागी शान्ति में और कोई नहीं चाहने वाला आपको क़त्ल करना. 
कितने विस्मृत हैं आप,
कितने आज़ाद अपने खयालों में ! 
                     * * *


ढलान पर हिनहिनाना 

ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े. नीचे या ऊपर की ओर.
अपनी प्रेमिका के लिए बनाता हूँ अपनी तस्वीर 
किसी दीवार पर टांगने की खातिरजब न रह जाऊं इस दुनिया में.
वह पूछती है : क्या दीवार है कहीं इसे टांगने के लिए 
मैं कहता हूँ : हम एक कमरा बनाएंगे इसके लिए. कहाँ किसी भी घर में. 

ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े. नीचे या ऊपर की ओर.

क्या तीसेक साल की किसी स्त्री को एक मातृभूमि की जरूरत होगी 
सिर्फ इसलिए कि वह फ्रेम में लगा सके एक तस्वीर ?
क्या पहुँच सकता हूँ मैं चोटी परइस ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी की ?
या तो नरक है ढलानया फिर पराधीन. 
बीच रास्ते बँट जाती है यह. कैसा सफ़र है ! शहीद क़त्ल कर रहे एक-दूसरे का.
अपनी प्रेमिका के लिए बनाता हूँ अपनी तस्वीर. 
जब एक नया घोड़ा हिनहिनाए तुम्हारे भीतरफाड़ डालना इसे.

ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े. नीचे या ऊपर की ओर. 
                    * * *


अगर ऎसी सड़क से गुजरो 

अगर तुम किसी ऎसी सड़क से गुजरो जो नरक को न जा रही हो,
कूड़ा बटोरने वाले से कहोशुक्रिया ! 

अगर ज़िंदा वापस आ जाओ घरजैसे लौट आती है कविता
सकुशलकहो अपने आप सेशुक्रिया ! 

अगर उम्मीद की थी तुमने किसी चीज कीऔर निराश किया हो तुम्हारे अंदाजे ने
अगले दिन फिर से जाओ उस जगहजहां थे तुमऔर तितली से कहोशुक्रिया ! 

अगर चिल्लाए हो तुम पूरी ताकत सेऔर जवाब दिया हो एक गूँज नेकि
कौन है पहचान से कहोशुक्रिया ! 

अगर किसी गुलाब को देखा हो तुमनेउससे कोई दुःख पहुंचे बगैर खुद को
और खुश हो गए होओ तुम उससेमन ही मन कहोशुक्रिया ! 

अगर जागो किसी सुबह और न पाओ अपने आस-पास किसी को 
मलने के लिए अपनी आँखेंउस दृश्य को कहोशुक्रिया ! 

अगर याद हो तुम्हें अपने नाम और अपने वतन के नाम का एक भी अक्षर
एक अच्छे बच्चे बनो ! 
ताकि खुदा तुमसे कहेशुक्रिया ! 
                    * * * 


एथेंस हवाईअड्डा 

एथेंस हवाईअड्डा छिटकाता है हमें दूसरे हवाईअड्डों की तरफ. 
कहाँ लड़ सकता हूँ मैं ? पूछता है लड़ाकू. 
कहाँ पैदा करूँ मैं तुम्हारा बच्चा चिल्लाती है एक गर्भवती स्त्री. 
कहाँ लगा सकता हूँ मैं अपना पैसा सवाल करता है अफसर. 
यह मेरा काम नहींकहता है बुद्धिजीवी. 
कहाँ से आ रहे हो तुम कस्टम अधिकारी पूछता है. 
और हम जवाब देते हैं : समुन्दर से ! 
कहाँ जा रहे हो तुम 
समुन्दर कोबताते हैं हम. 
तुम्हारा पता क्या है 
हमारी टोली की एक औरत बोलती है : मेरी पीठ पर लदी यह गठरी ही है मेरा गाँव. 
सालोंसाल इंतज़ार करते रहें हैं हम एथेंस हवाईअड्डे पर.
एक नौजवान शादी करता है एक लड़की सेमगर उनके पास कोई जगह नहीं अपनी सुहागरात के लिए. 
पूछता है वह : कहाँ प्यार करूँ मैं उससे ?
हँसते हुए हम कहते हैं : सही वक़्त नहीं है यह इस सवाल के लिए. 
विश्लेषक बताते हैं : वे मर गए गलती से 
साहित्यिक आदमी का कहना है : हमारा खेमा उखड़ जाएगा जरूर.  
आखिर चाहते क्या हैं वे हमसे 
एथेंस हवाईअड्डा स्वागत करता है मेहमानों काहमेशा. 
फिर भी टर्मिनल की बेंचों की तरह हम इंतज़ार करते रहे हैं बेसब्री से 
समुन्दर का. 
अभी और कितने सालकुछ बताओ एथेंस हवाईअड्डे ?
                    * * *












मैं कहाँ हूँ ?  (गद्यांश)

गर्मियों की एक रात अचानक मेरी माँ ने मुझे नींद से जगाया मैंने खुद को सैकड़ों दूसरे गांववालों के साथ जंगलों में भागते हुए पाया. मशीनगन की गोलियों की बौछार हमारे सर के ऊपर से गुजर रही थी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये हो क्या रहा है. अपने एक रिश्तेदार के साथ पूरी रात बेमकसद भागते रहने के बाद... मैं एक अनजान से गाँव में पहुंचा जहां और भी बच्चे थे. अपनी मासूमियत में मैं पूछ बैठा, "मैं कहाँ हूँ ?"और पहली बार यह लफ्ज़ सुना "लेबनान." कोई साल भर से भी ज्यादा एक पनाहगीर की ज़िंदगी बसर करने के बादएक रात मुझे बताया गया कि हम अगले दिन घर लौट रहे हैं. हमारा वापसी का सफ़र शुरू हुआ. हम तीन लोग थे : मैंमेरे चचा और हमारा गाइड. थका कर चूर कर देने वाले एक सफ़र के बाद मैनें खुद को एक गाँव में पायामगर मैं यह जानकार बहुत मायूस हुआ कि हम अपने गाँव नहीं बल्कि दैर अल-असद गाँव आ पहुंचे थे. 

जब मैं लेबनान से वापस आया तो मैं दूसरी कक्षा में था. हेडमास्टर एक बढ़िया इंसान थे. जब कोई तालीमी इन्स्पेक्टर स्कूल का दौरा करता तो हेडमास्टर मुझे अपने दफ्तर में बुलाकर एक संकरी कोठरी में छुपा देतेक्यूंकि अफसरान मुझे बेजा तौर पर दाखिल कोई घुसपैठिया ही मानते. 

जब कभी पुलिस का गाँव में आना होता तो मुझे आलमारी में या किसी कोने-अंतरे में छुपा दिया जाता क्यूंकि मुझे वहांअपने मादरे वतन में रहने से मनाही थी. वे मुझे मुखबिरों से यह कहकर बचाते कि मैं लेबनान में हूँ. उन्होंने मुझे यह कहना सिखाया कि मैं उत्तर के बद्दू कबीलों में से किसी के साथ रह रहा था. मैनें अपना इजराइली पहचान-पत्र पाने के लिए यही किया.    
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल)
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