अमेरिका की कवयित्री लिंडा पास्तन (27 मई, 1932) की एक कविता... 

दुनिया में कहीं न कहीं : लिंडा पास्तन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 
दुनिया में कहीं न कहीं 
कुछ न कुछ घट रहा है ऐसा 
जो खरामा-खरामा पहुँच ही जाएगा यहाँ तक. 
सर्द हवाएँ चली आएंगी कैमेलिया के पौधों को 
बर्बाद करने, या शायद गर्मी का प्रकोप 
उन्हें झुलसाने के लिए. 
बिना कागजात, बिना पासपोर्ट आ जाएगा कोई वायरस 
और धर दबोचेगा मुझे जब मैं मिला रही होऊँगी किसी से हाथ 
या चूम रही होऊँगी कोई गाल. 
कहीं न कहीं शुरू हो चुका है कोई छोटा सा झगड़ा 
गरमा-गरमी वाले कुछ शब्दों ने 
लगा दी है आग, 
और आने लगी है 
धुएँ की बू; 
बू जंग की. 
जहाँ भी मैं जाती हूँ खटखटा कर देखती हूँ लकड़ी -- 
मेजों को या पेड़ के तनों को. 
बार-बार धोती हूँ अपने हाथ, 
नजर दौड़ाती हूँ अखबारों पर 
और बनाती हूँ ऐसे चेतावनी कोड 
जो मेरे या मेरे पति की जन्मतिथि नहीं होते. 
मगर कहीं न कहीं, कुछ न कुछ घट रहा है ऐसा 
जिसके खिलाफ नहीं है कोई तैयारी, सिर्फ वही दोनों 
बुढ़ाते साज़िशकर्ता, उम्मीद और किस्मत. 
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