अडोनिस की कविता 'तो फिर तुम गाँव में हो' के अंश...
तो फिर तुम गाँव में हो : अडोनिस
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जब वह अपनी कुल्हाड़ी लेकर घर से निकलता है तो उसे भरोसा होता है कि जैतून या विलो के एक पेड़ की छाया में सूरज उसका इंतज़ार कर रहा है, और आज रात उसके घर के ऊपर से आसमान को पार करने वाला चंद्रमा उसके क़दमों से लगा हुआ रास्ता पकड़ेगा. यह बात उसके लिए कोई अहमियत नहीं रखती कि हवा किधर जाती है.
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आसमान की नीलिमा, फल की लालिमा, पत्तियों की हरीतिमा : ये वो रंग हैं जिन्हें उसका हाथ दिन के कागज़ पर फैला देता है.
वह एक कलाकार है जो अपने हाथ के काम की फ़िक्र करता है, उस चीज की नहीं जिसे कला का हाथ बनाता है, बल्कि चीजों के भीतर की चीजों की, उस तरह नहीं जैसी कि वे दिखती हैं बल्कि जिस तरह वह उनको अंकित करता है. और क्योंकि उसे पता है कि चीजों की बातें कैसे सुनी जाएं और उनसे कैसे बोला जाए, वह लोगों की महसूसियत के हाशिए पर रहता है. उसका मानना है कि "वह व्यवस्था जो गति को कैद कर ले और कल्पना के उत्सव में बाधा पहुंचाए सिर्फ पतन की ओर ही ले जाएगी."
और बिना किसी नाटक या शोरगुल के वह नष्ट हो जाती है. वह जानता है, "कि उसके हल की जगह अब एक गोली ने ले ली है," मगर और ज्यादा निश्चितता से वह यह भी जानता है, कि "उसका हल अभी और आगे जाएगा और वह उतनी गहराई तक पहुंचेगा जहां तक कोई गोली नहीं पहुँच सकती."
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जब तुम अपना हल चलाते हुए इस किसान को देखते हो, तो तुम समझ जाते हो कि वह उसके साथ वैसे ही जोर आजमाइश कर रहा है जैसे कोई लड़ाई लड़ रहा हो. घास-फूस और काँटों की तरफ बढ़ते हुए, हल उसके आगे-आगे रहता है और वह नंगे पैर उसके पीछे लगा रहता है. झाड़-झंखाड़ और मिट्टी को चीरते हुए हल की आवाज़ तुम्हारे साथ हो लेती है, तुम्हारे भीतर धंस जाती है और उसे आसमान पर छा जाने वाली तेज और कर्कश तुरही जैसी आवाज़ बनते सुनना अच्छा लगता है.
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तो फिर तुम गाँव में हो?
अब मुझे वह बात याद आ गई है जो मैं लगभग भूल चुका था. रोशनी को नकारने के लिए गाँव में किसी को आखिरकार पहाड़ या चौक के दूसरी तरफ बैठकर या नंगे पैरों वाले बच्चों और काली बकरियों के बीच, एकांत का चुनाव करना पड़ता था.
और अब मुझे याद आ गया है कि हम जल कुम्भियों से ढँकी नदी को निहारते रहते थे और बमुश्किल उसके बहाव का अंदाजा लगा पाने में कामयाब हो पाया करते थे. हमें लगता था कि वह तकलीफ में है और कराह रही है.
और अब मैं जान गया हूँ कि नदी की स्मृति में हम सूखे हुए से क्यों महसूस करते थे.
और आज नदी तक जाने वाले रास्ते की धूल में लिखा हुआ मैं वह भी पढ़ पाता हूँ जिसे हम जानते तो थे मगर यह नहीं जानते थे कि उसे लिखा कैसे जाए:
उस सूरज को शान्ति मिले जो हमेशा हमसे आगे ही रहा करता था, तनिक भी हिले बगैर.
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