Wednesday, February 29, 2012

शिहाब घानम : छूमंतर


दुबई में रहने वाले शिहाब घानम इंजीनियर, मैनेजर, अर्थशास्त्री, कवि और अनुवादक हैं. उन्होंने इंग्लैण्ड के साथ-साथ रुड़की (भारत) से भी शिक्षा पाई है. अरबी भाषा में आठ कविता-संग्रह और अंग्रेजी में एक कविता-संग्रह प्रकाशित है. कुल तीस प्रकाशित पुस्तकों में कई पुस्तकें उनके अनुवाद की भी हैं.   













छूमंतर : शिहाब घानम 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

                   पोती हानूफ़ के लिए                
सिक्के को अपनी बाईं हथेली पर रखकर 
मैनें उसपर एक फूंक मारी 
और दूसरी हथेली से उसे ढँककर 
उससे कहा: "कहो छूमंतर!" 
वह बोली: "चू मंतल" 
मैनें अपना हाथ हटाया 
सिक्का कहाँ गया?... कहाँ गया?... 
पलक झपकते ही वह गायब हो गया... 
वह खिलखिलाई... ताज्जुब झलक रहा था उसकी आँखों में 
वह --ऊपर वाला उसकी हिफाजत करे-- अभी दो साल की भी नहीं हुई थी. 
"छूमंतर" 
और गायब हो जाता था हमारा फूँका हुआ सिक्का 
वह गई और जाकर 
मखमली कपड़े वाली अपनी बड़ी सी गुड़िया ले आई. 
गुड़िया को मेरे हाथों में पकड़ाकर वह बोली: "चू मंतल" 
मैं भरे हुए गले से बोला:
"इतनी खूबसूरत गुड़िया 
गायब नहीं होती मेरी बिट्टू!" 
                    :: :: :: 


Tuesday, February 28, 2012

एंतोनियो पोर्चिया : लोग स्मृति हो जाने की उम्मीद में जीते हैं

एंतोनियो पोर्चिया की कुछ और कविताएँ...  

 
आवाजें : एंतोनियो पोर्चिया 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मैं वह जानता हूँ जो मैनें तुम्हें दिया है. 
वह नहीं जानता जो तुमने पाया है. 
:: :: :: 

मेरे पिता जब गए, 
मेरे बचपन को आधी सदी का तोहफा दे गए. 
:: :: :: 

मनुष्य कहीं नहीं जाता. 
हर चीज मनुष्य तक आती है, जैसे कल. 
:: :: :: 

मैनें शायद ही मिट्टी को छुआ हो 
और मैं उसी से बना हुआ हूँ. 
:: :: :: 

लोग स्मृति हो जाने की उम्मीद में जीते हैं. 
:: :: :: 

Monday, February 27, 2012

आन्द्रास गेरेविच की दो कविताएँ

समलैंगिकता पर सरकार के बदलते रुख के बीच आज प्रस्तुत हैं आन्द्रास गेरेविच की दो कविताएँ. आन्द्रास गेरेविच का जन्म बुडापेस्ट में १९७६ में हुआ था. बुडापेस्ट से ही अंग्रेजी साहित्य में स्नातक डिग्री लेने के बाद अमेरिका से रचनात्मक लेखन एवं ब्रिटेन से पटकथा लेखन की डिग्रियां हासिल कीं. उनका तीसरा कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है. वे इस समय युवा हंगरी लेखकों के संगठन के अध्यक्ष हैं व् हंगरी के साहित्यिक मासिक 'कालिग्राम' के कविता सम्पादक होने के साथ ही लंदन से प्रकाशित होने वाली साहित्य एवं कला की पत्रिका 'क्रोमा' के भी सम्पादक हैं. बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के लिए वे एक रेडियो कार्यक्रम 'पोएट्री बाई पोस्ट' बनाते हैं. 

 
आन्द्रास गेरेविच की दो कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

कहानियों की किताब में

कहानियों की किताब में नन्हा शहजादा 
अंत-पंत पा ही जाता था नन्ही शहजादी 
या कभी-कभार एक दरजिन को, 
ठीक दादा और दादी, मम्मी और पापा 
रोमियो और जूलियट की तरह.   

सालों बाद मैं समझ पाया 
कि कभी-कभी नन्हे शहजादे को 
प्यार हो जाता है किसी और लड़के से, 
या मेरे एक अंकल 
कभी नहीं देखे गए किसी स्त्री के साथ. 

मुझे तैयार नहीं किया गया था अपनी ज़िंदगी के लिए. 
बिल्कुल सांता क्लाज की तरह है यह -- 
खुशी से बुनी हुई हताशा. एक कहानी. 
और जैसे होता है छुपमछुपाई के खेल में, 
जीतता है सबसे तगड़ा ही, 
तब भी, जब वह करता है बेईमानी.
                    :: :: :: 

एक तोहफा 

उस शाम हम लोगों ने नहीं बोला एक भी शब्द. 
मैनें जल्दी ही बुझा दी बत्ती उसकी आँखों से बचने के लिए. 
वह बिस्तर पर सोया जबकि मैं एक दरी पर, 
ताका किया छत को, उलटते-पुलटते, करवट बदलते, 
बाल्कनी पर गया सिगरेट पीने की खातिर 
और सुनता रहा उसकी चिरपरिचित भारी साँसें. 
जब मेरी आँख खुली, खाली था बिस्तर, 
कम्बल मुड़ा-तुड़ा पड़ा था फर्श पर 
और कुर्सी पर से गायब थे उसके कपड़े. 
आलमारी में से वह किताबें ले गया था अपनी, 
और बाथरूम से अपनी फेसक्रीम भी. 
मगर उसके डीओडरेंट की हल्की सी महक अब भी थी मौजूद, 
तौलिया अभी तक गीला था और थोड़ा गर्म, 
और किचन में एक काफी इंतज़ार कर रही थी मेरा.  
                    :: :: :: 

Sunday, February 26, 2012

राबर्तो हुआरोज़ : मुक्त उड़ान

राबर्तो हुआरोज़ की एक और कविता...  

 
राबर्तो हुआरोज़ की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मेरे पास एक काली चिड़िया है 
इसलिए मैं उड़ सकता हूँ रात में. 
और दिन में उड़ने के लिए 
एक खाली चिड़िया है मेरे पास. 

मगर मैनें पाया 
कि वे दोनों राजी हैं 
एक ही घोंसले में रहने के लिए, 
एक ही एकांत में. 

यही कारण है कि कभी-कभी 
मैं हटा देता हूँ उनका घोंसला, 
यह देखने के लिए कि 
घर न लौट पाने पर क्या करती हैं वे. 

और इस तरह मैं समझने लगा हूँ 
एक अद्भुत कल्पना को: 
पूरी तरह मुक्त उड़ान 
बिल्कुल खुले में. 
                             (लारा के लिए, अभी भी)
               :: :: ::  
राबर्तो हुअर्रोज 

Saturday, February 25, 2012

कासिम हद्दाद : एक टापू नहीं हैं हम

बहरीन के कवि कासिम हद्दाद की कविताएँ...  

 
कासिम हद्दाद की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक टापू नहीं हैं हम,  
सिवाय उन लोगों के लिए जो देखते हैं हमें समुन्दर से. 
:: :: :: 

आधे प्याले में शराब, 
मगर खाली नहीं था बाक़ी का आधा; 
वह गुम हुआ मदहोशी में... 
:: :: :: 

खिड़की पर खिंचा पर्दा 
जैसे एक खिदमतगार 
ज्यादा ताकतवर अपने सुल्तान से.
:: :: :: 

यह पूरी रात 
काफी नहीं है मेरे ख़्वाबों के लिए. 
:: :: :: 

एंतोनियो पोर्चिया : सिर्फ फासले हैं मेरे करीब

एंतोनियो पोर्चिया की कविताओं के क्रम में...  

 
आवाजें : एंतोनियो पोर्चिया 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

सब कुछ, कुछ नहीं है, मगर बाद में. 
सब कुछ सह लेने के बाद. 
:: :: :: 

क्योंकि वे उसका नाम जानते हैं जो मैं ढूंढ़ रहा हूँ, 
उन्हें लगता है वे जानते हैं कि मैं क्या ढूंढ़ रहा हूँ. 
:: :: :: 

प्रशंसा करने की बजाय प्यार करना मेरे लिए हमेशा आसान रहा. 
:: :: :: 

तुम्हें आंसुओं की नदी इसलिए नहीं दिखती क्योंकि उसमें तुम्हारे एक आंसू की कमी है. 
:: :: :: 

सिर्फ फासले हैं मेरे करीब. 
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अंतोनियो पोर्चिया एन्टोनियो पोर्चिया 

Friday, February 24, 2012

मोनिका रिंक : तालाब

प्रस्तुत है जर्मन कवियत्री मोनिका रिंक की एक कविता. १९६९ में जन्मी मोनिका बर्लिन में रहती हैं. अब तक उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. अंग्रेजी में अनूदित उनकी कविताएँ 'टू रिफ्रेन फ्राम एम्ब्रेसिंग' नाम से अभी हाल में प्रकाशित हुई हैं.  

monica-rinck
 











तालाब : मोनिका रिंक 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

वह कहता है: दुख एक तालाब है. 
मैं कहती हूँ: हाँ, दुख एक तालाब है. 
क्योंकि दुख पड़ा रहता है एक गड्ढे में 
नष्ट होता और दागा जाता हुआ मछलियों से.  
वह कहता है: और गुनाह एक तालाब है. 
मैं कहती हूँ: हाँ, गुनाह भी एक तालाब है. 
क्योंकि एक कीचड़दार बिल से गुजरता है गुनाह 
मेरी फैली हुई अकड़ी बाहों के 
सपाट गड्ढे तक पहुँचते हुए.   
वह कहता है: धोखा एक तालाब है. 
मैं कहती हूँ: हाँ, धोखा भी एक तालाब है. 
क्योंकि गर्मियों की रातों में 
तुम पिकनिक मना सकते हो उसके किनारे 
और हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है वहां. 
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हमदा खमीस : आग नहीं लगी दुनिया में?

हमदा खमीस की कुछ कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं. उनका जन्म १९४६ में बहरीन में हुआ था. बग़दाद यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान की पढ़ाई. संयुक्त अरब अमीरात में पत्रकार के रूप में कार्य. अब तक नौ कविता-संग्रह प्रकाशित. उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है.   

 
हमदा खमीस की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

हर देह 
एक ब्रह्माण्ड है 

हर कविता 
एक स्त्री 
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तुम्हें याद हैं 
वे राहें 
जिन पर चला करते थे हम? 

वे 
नसें बन गईं मेरी 
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देह के साथ 
देह, 
ज्वालामुखी 
ज्वालामुखी के साथ 

आग नहीं लगी दुनिया में?
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Thursday, February 23, 2012

एंतोनियो पोर्चिया : तुम कौन हो

एंतोनियो पोर्चिया की कविताएँ...  

 
आवाजें : एंतोनियो पोर्चिया 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

किसी को मैनें ऐसा नहीं पाया जिसके जैसा मैं होना चाहूँ. और मैं उसी तरह से रह गया : 
किसी की तरह नहीं. 
:: :: :: 

उन्होंने तुम्हें धोखा देना बंद कर दिया है, प्यार करना नहीं. 
और तुम्हें लगता है कि उन्होंने तुम्हें प्यार करना बंद कर दिया है. 
:: :: :: 

प्रकाश की एक किरण ने तुम्हारा नाम मिटा दिया. 
अब मुझे यह नहीं पता कि तुम कौन हो. 
:: :: :: 

जब तुम्हारा कष्ट मेरे कष्ट से थोड़ा ज्यादा होता है, 
तो मुझे लगता है कि मैं थोड़ा क्रूर हूँ. 
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अंतोनियो पोर्चिया 

Wednesday, February 22, 2012

कला के कद्रदान


प्रिय कवि-कथाकार उदय प्रकाश जी ने आज अपने इस फेसबुक नोट में मुझे टैग किया. मुझे लगा कि इसे हिन्दी में भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए.  

 

कला को 'सचमुच' सराहने वाले कितने लोग हैं 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

वह जनवरी की एक सर्द सुबह थी. वाशिंगटन के एक मेट्रो स्टेशन पर बैठा एक शख्स अचानक वायलिन बजाने लगा. तकरीबन पैंतालिस मिनट तक वह बाख की छः रचनाएं बजाता रहा. गणना की गई कि व्यस्त समय होने की वजह से उस दौरान स्टेशन से ११०० लोग गुजरे जिनमें से ज्यादातर की मंजिल अपना दफ्तर था. 

तीन मिनट बाद एक अधेड़ शख्स ने गौर किया कि एक वादक कुछ बजा रहा है. उसने अपनी रफ़्तार कम की, कुछ पलों के लिए ठिठका और फिर विलम्ब से बचने के लिए तेजी से चला गया. 

एक मिनट बाद वायलिन वादक को बख्शीश के रूप में पहला डालर मिला : एक महिला ने पैसे फेंके और बिना रुके आगे बढ़ गई. 

कुछ मिनट और बीते, उसे सुनने के लिए एक व्यक्ति ने दीवार की टेक ली मगर अपनी घड़ी पर निगाह डालकर वह फिर चल पड़ा. साफ़ था कि उसे दफ्तर के लिए देर हो रही थी. 

सबसे ज्यादा तवज्जो देने वाला इंसान तीन साल का एक बच्चा था. हड़बड़ी में दिख रही उसकी माँ उसे खींचे जा रही थी, मगर वायलिन वादक को देखने के लिए बच्चा रुक गया. आखिरकार उसकी माँ ने थोड़ा जबरदस्ती की और बच्चा चल तो पड़ा मगर पूरे समय वह गर्दन घुमाए वायलिन वादक को देखता ही रहा. कुछ और बच्चों ने भी ऐसा ही किया और बिना किसी अपवाद के सभी माता पिता उन्हें जबरन वहां से ले गए. 

उन पैंतालिस मिनटों के दौरान केवल छः लोग थोड़ी देर के लिए रुके. करीब २० लोगों ने अपनी सामान्य रफ़्तार से चलते-चलते उसे पैसे दिए. उसे कुल ३२ डालर मिले. जब उसने वायलिन बजाना बंद किया और शान्ति छा गई तो किसी ने ध्यान भी नहीं दिया. किसी ने ताली नहीं बजाई और न ही किसी ने सम्मान ही प्रदर्शित किया. 


कोई इस बात को जानता नहीं था मगर वह वायलिन वादक दुनिया के सबसे काबिल संगीतज्ञों में से एक जोशुआ बेल थे. अभी-अभी वे आज तक की सबसे जटिल धुनों को साढ़े तीन मिलयन डालर की एक वायलिन पर बजाकर हटे थे.  

स्टेशन पर इस वादन के दो दिन पहले जोशुआ ने बोस्टन के जिस खचाखच भरे थिएटर में कार्यक्रम दिया था वहां एक टिकट की औसत कीमत १०० डालर थी. 

यह एक सच्ची घटना है. मेट्रो स्टेशन पर जोशुआ का यह अप्रकट वादन वाशिंगटन पोस्ट द्वारा लोगों की समझ, रूचि और प्राथमिकताओं पर एक सामाजिक प्रयोग के तौर पर आयोजित किया गया था. उसकी रूपरेखा थी : एक आम जगह पर, एक अनुपयुक्त समय पर : क्या हम सौन्दर्य को महसूस करते हैं? क्या हम उसे सराहने के लिए रुकते हैं? क्या हम एक अनपेक्षित सन्दर्भ में योग्यता को मान्यता प्रदान करते हैं? 

इस अनुभव के संभावित निष्कर्षों में एक यह भी हो सकता है : 

यदि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञों में से एक के द्वारा बजाए जा रहे, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संगीत को एक पल ठहरकर सुनने की फुर्सत हमारे पास नहीं है तो हम और क्या कुछ गँवा रहे हैं? 
                                                             :: :: :: 

ज़िंदगी एक पेड़ की तस्वीर बनाती है

आज प्रस्तुत है राबर्तो हुआरोज़ की एक मशहूर कविता...  

 
राबर्तो हुआरोज़ की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

ज़िंदगी एक पेड़ की तस्वीर बनाती है 
मौत बनाती है एक और पेड़ की तस्वीर. 
ज़िंदगी एक घोंसला बनाती है 
और मौत भी कर लेती है उसकी नक़ल. 
घोंसले में रहने के लिए 
ज़िंदगी एक चिड़िया बनाती है 
और मौत भी फ़ौरन 
बना डालती है एक दूसरी चिड़िया. 

एक हाथ जिसने कुछ भी नहीं बनाया 
घूमता रहता है तस्वीरों के बीच 
और कभी-कभी इधर उधर कर देता है किसी एक को.  
मसलन : 
ज़िंदगी के बनाए हुए पेड़ पर 
ज़िंदगी की चिड़िया 
रहने लगती है मौत के घोंसले में. 

कभी-कभी 
कुछ भी न बनाने वाला हाथ 
मिटा देता है सिलसिले की एक तस्वीर को. 
मसलन : 
मौत के पेड़ पर होता है 
मौत का घोंसला 
मगर उसमें कोई चिड़िया नहीं होती. 

और कभी-कभी तो 
कुछ भी न बनाने वाला हाथ 
खुद ही बदल जाता है 
एक चिड़िया के आकार की, 
एक पेड़ के आकार की, 
एक घोंसले के आकार की, 
एक अतिरिक्त तस्वीर में. 
और तब, केवल तब 
न तो कुछ गायब होता है, न ही कुछ छूटा होता है. 
मसलन : 
मौत के पेड़ पर 
दो चिड़िया रहती हैं 
ज़िंदगी के घोंसले में. 

या ज़िंदगी के पेड़ पर 
होते हैं दो घोंसले 
और उनमें रहती है केवल एक चिड़िया.  

या एक अकेली चिड़िया 
रहती है एक घोंसले में 
ज़िंदगी के पेड़ पर 
और मौत के पेड़ पर. 
               :: :: :: 

Tuesday, February 21, 2012

एंतोनियो पोर्चिया : हर खिलौने को टूटने का हक है

एंतोनियो पोर्चिया की 'आवाजें' श्रृंखला से...  

 
आवाजें : एंतोनियो पोर्चिया 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

जिसका मैं इंतज़ार कर रहा था, 
उससे मेरी इंतज़ार की आदत आई. 
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स्वर्ग जरूर जाऊंगा, मगर अकेले नहीं 
अपने नरक के साथ. 
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कुछ सपने होते हैं, 
जिन्हें आराम करने की जरूरत होती है. 
:: :: :: 

खालीपन की अनुभूति 
हम उसे भरकर करते हैं. 
:: :: :: 

हर खिलौने को टूटने का हक है. 
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दिल को जख्म देना उसे रचना है. 
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मेरा अभाव सम्पूर्ण नहीं है, 
उसमें मेरी कमी है. 
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परिचय और पिछली पोस्ट यहाँ देखें : मेरी खामोशी में सिर्फ मेरी आवाज़ की कमी है  एंटोनियो पोर्चिया 

Monday, February 20, 2012

रोक डाल्टन : यकीन


रोक डाल्टन (अल सल्वाडोर, 1935 - 1975) एक कवि, लेखक, बुद्धिजीवी और क्रांतिकारी की हैसियत से लैटिन अमेरिका के इतिहास की महत्वपूर्ण शख्सियत रहे हैं. अपने छोटे से जीवन में उन्होंने कुल मिलाकर 18 किताबें लिखीं. मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों से प्रभावित डाल्टन ने क्रांतिकारी एक्टिविस्ट बनने का भी काफी प्रयास किया जिसे यह कहते हुए नकार दिया गया कि क्रान्ति में उनकी भूमिका एक कवि के रूप में ही है. मेक्सिको में निर्वासन में रहने के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया और मौत की सजा सुनाई गई लेकिन भूकंप में जेल के ध्वस्त हो जाने के कारण वे चमत्कारी ढंग से बच निकले. इसके पूर्व भी 1960 में सैनिक शासकों ने उन्हें गिरफ्तार कर किसानों को जमींदारों के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाने के आरोप में मौत की सजा सुनाई थी. जिस रात उन्हें फायरिंग स्क्वाड का सामना करना था उसी रात तत्कालीन तानाशाह कर्नल जोसे मारिया लिमोस का तख्ता पलट गया और वे बच गए. 1975 में एक अति-वामपंथी समूह ने उनकी हत्या कर दी.   


यकीन : रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

चार घंटों की यातना के बाद, अपाचे एवं अन्य दो सिपाहियों ने कैदी को होश में लाने के लिए उस पर एक बाल्टी पानी फेंक कर कहा : "कर्नल ने हमें यह बताने का हुक्म दिया है कि तुम्हें खुद को बचाने का एक मौक़ा दिया जाने वाला है. यदि तुम सही-सही यह बता दो कि हममें से किसकी एक आँख शीशे की है, तो तुम्हें यातना से छुटकारा दे दिया जाएगा." जल्लादों के चेहरे पर निगाहें फिराने के बाद, कैदी ने उनमें से एक की तरफ इशारा किया : "वह, उसकी दाहिनी आँख शीशे की है." 

अचंभित सिपाहियों ने कहा, "तुम तो बच गए ! लेकिन तुमने कैसे अंदाजा लगाया ? तुम्हारे सभी साथी गच्चा खा गए क्योंकि यह अमेरिकी आँख है, यानी एकदम बेऐब." "सीधी सी बात है," फिर से बेहोशी तारी होने का एहसास करते हुए कैदी ने कहा, "यही इकलौती आँख थी जिसमें मेरे लिए नफरत नहीं थी." 

जाहिर है, उन्होंने उसे यातना देना जारी रखा. 
                                                  :: :: :: 
(यह अनुवाद नई बात ब्लॉग एवं जनसंदेश टाइम्स में पूर्व-प्रकाशित है) 

Sunday, February 19, 2012

अरुंधती राय : अनुराधा गांधी एक अलग तरह की इंसान थीं


अनुराधा गांधी के चुने हुए लेखों का संग्रह 'स्क्रिप्टिंग द चेंज' दानिश बुक्स से प्रकाशित हुआ है. इस किताब की भूमिका अरुंधती राय ने लिखी है.  


























अनुराधा अलग तरह की थी : अरुंधती राय 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

'अनुराधा अलग तरह की थी', अनुराधा को जानने वाला हर शख्स यही कहता है. यह हर उस इंसान का ख्याल है जिसके संपर्क में वह आईं. 

उनकी मृत्यु मुम्बई के एक अस्पताल में १२ अप्रैल २००८ को मलेरिया के कारण हुई थी. इस बीमारी ने संभवतः उन्हें झारखंड के जंगलों में जकड़ा था जहां कि वे आदिवासी स्त्रियों की कक्षाएं लिया करती थीं. हमारे इस महान लोकतंत्र में अनुराधा गांधी ऐसे लोगों में से थीं जिन्हें 'माओवादी आतंकवादी' कहा जाता है, गिरफ्तार होने या अपने सैकड़ों अन्य साथियों की तरह फर्जी मुठभेड़ में मार गिराए जाने के लिए अभिशप्त. इस आतंकवादी को जब तेज बुखार हुआ तो वह जिस अस्पताल में अपने खून की जांच कराने के लिए गई वहां उसने अपना इलाज कर रहे डाक्टर के पास एक फर्जी नाम दर्ज कराया और एक फर्जी फोन नंबर छोड़ा. इसलिए वह डाक्टर उन्हें यह नहीं सूचित कर पाई कि खून की जांच से ऐसे मलेरिया का पता चला है जो जानलेवा हो सकता है. अनुराधा के अंग एक एक कर नाकाम होते गए. ११ अप्रैल को जब उन्हें अस्पताल में दाखिल कराया गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. और इस तरह बिलकुल गैरजरूरी तरीके से हमने उन्हें खो दिया. 

अपनी मृत्यु के समय वे ५४ साल की थीं और तब तक अपनी ज़िंदगी के तीस साल वे एक भूमिगत और प्रतिबद्ध क्रांतिकारी के रूप में बिता चुकी थीं.  

अनुराधा गांधी 
मुझे कभी अनुराधा गांधी से मिलने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ मगर उनकी मृत्यु के बाद मैं उनकी श्रद्धांजलि सभा में गई थी और मैं कह सकती हूँ कि वे सिर्फ एक बहुप्रशंसित महिला ही नहीं बल्कि एक ऎसी शख्स भी थीं जिनसे लोग बहुत प्यार करते थे. उन्हें जानने वाले लोगों द्वारा बार-बार उनकी 'कुर्बानियों' का जिक्र किए जाने से मैं थोड़ा चकित भी हुई. इससे संभवतः उनका आशय रैडिकल पालिटिक्स के लिए अनुराधा द्वारा की गई एक मध्य-वर्गीय जीवन के आराम और सुरक्षा की कुर्बानी से था. हालांकि मेरे लिए अनुराधा गांधी ऎसी शख्स हैं जिन्होनें अपने सपने पर काम करने के लिए खुशी-खुशी उबाऊपन से भरी घिसी-पिटी ज़िंदगी को अलविदा कह दिया. वे कोई संत या मिशनरी नहीं थीं. उन्होंने एक खुशहाल जीवन जिया जो मुश्किल किन्तु संतोषप्रद था.  

युवा अनुराधा अपनी पीढ़ी के बहुत से अन्य लोगों की तरह ही पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी आन्दोलन से प्रभावित थीं. एल्फिन्स्टन कालेज की इस छात्रा पर सत्तर के दशक में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में पड़े अकाल का गहरा असर पड़ा. हताश भूख के शिकार लोगों के साथ काम ने ही उनके विचारों को आकार दिया और उन्हें उग्रपंथी राजनीति के बिलकुल अलग रास्ते पर मोड़ दिया. अपने कामकाजी जीवन की शुरूआत उन्होंने विल्सन कालेज मुम्बई में बतौर एक लेक्चरर की मगर १९८२ में वे नागपुर चली गईं. अगले कुछ साल उन्होंने नागपुर, चंद्रपुर, अमरावती, जबलपुर में निर्धनतम लोगों, ईंट गारा करने वाले मजदूरों और कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों को संगठित करते हुए बिताए और इस दौरान वे दलित आन्दोलन की अपनी समझ को भी और पैना करने में जुटी रहीं. नब्बे के दशक में मल्टीपल सिरोसिस से पीड़ित होने के बावजूद वे बस्तर गईं और दंडकारण्य जंगल में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) के साथ तीन साल बिताए. यहाँ उन्होंने क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन (KAMS) नामक असाधारण महिला संगठन को मजबूत और विस्तारित करने के लिए कार्य किया जो नब्बे हजार सदस्यों वाला संभवतः देश का सबसे बड़ा नारीवादी संगठन है. KAMS संभवतः भारत का 'बेस्ट केप्ट सीक्रेट' है. अनुराधा हमेशा कहा करती थीं कि उनकी ज़िंदगी का सबसे संतोषप्रद दौर दंडकारण्य में पीपुल्स वार (अब सीपीआई माओवादी) के गुरिल्लों के साथ बिताए गए यही साल थे. जब मैं अनुराधा की मृत्यु के लगभग दो साल बाद उस इलाके में गई तो मैनें KAMS के प्रति उनके विस्मय एवं उत्साह को खुद महसूस किया और मुझे स्त्री एवं सशस्त्र संघर्ष के प्रति अपने कुछ सरल अनुमानों पर फिर से विचार करना पड़ा.    

दंडकारण्य के स्त्री आन्दोलन के लिए उनके स्पष्ट उत्साह ने क्रांतिकारी आन्दोलन के भीतर महिला कामरेडों की समस्याओं के प्रति उनकी आँखें नहीं मूँद रखी थी. अपनी मौत के समय वे इसी पर काम कर रही थीं कि माओवादी पार्टी को स्त्रियों के प्रति भेदभाव के अवशेषों और अपने आप को क्रांतिकारी कहने वाले पुरुष कामरेडों के भीतर जिद्दी ढंग से जड़ जमाए पितृसत्ता के विभिन्न रंगों से कैसे शुद्ध रखा जाए. बस्तर में PLGA के साथ मेरे समय बिताने के दौरान तमाम कामरेड उन्हें बहुत प्यार से याद करती थीं. वे उन्हें कामरेड जानकी के नाम से जानती थीं. उन लोगों के पास उनकी एक घिसी सी तस्वीर थी जिसमें वे वर्दी पहने और अपना ट्रेडमार्क चश्मा लगाए कंधे पर एक राइफल डाले जंगल में प्रफुल्लित खड़ी थीं. 

अनु, अवन्ती, जानकी -- वे अब नहीं हैं. और वे अपने साथी कामरेडों को दुःख के ऐसे भंवर में छोड़ गई हैं जिससे शायद वे कभी नहीं उबर पाएंगे. वे अपने पीछे कागजों का यह पुलिंदा, ये लेख, नोट्स और निबंध छोड़ गई हैं. और मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि मैं एक बड़े पाठक वर्ग के सामने इन्हें प्रस्तुत करूँ.     

यह समझना बड़ा मुश्किल रहा कि इन लेखों को कैसे  पढ़ा जाए. जाहिर है कि वे इस दृष्टिकोण से नहीं लिखे गए थे कि कभी उन्हें एक संग्रह के रूप में प्रकाशित किया जाएगा. पहली बार पढ़ने पर वे थोड़ा बुनियादी और अक्सर कुछ दुहराव भरे और कुछ उपदेशात्मक लग सकते हैं. मगर दूसरी और तीसरी बार पढ़ने पर मैं उन्हें एक अलग ढंग से देखने लगी. अब मैं उन्हें इस तरह से देखती हूँ कि वे अनुराधा द्वारा खुद अपने लिए तैयार किए गए नोट्स हैं. उनका अनगढ़पन, उबड़-खाबड़ गुण, यह तथ्य कि उनकी कुछ बातें हैण्ड ग्रेनेड की तरह कागजों से निकलकर विस्फोट करती हैं, उन्हें बहुत अधिक व्यक्तिगत बनाती हैं. उनसे गुजरते हुए आप एक ऐसे शख्स के दिमाग की झलक पा सकते हैं जो एक गंभीर अध्येता या विद्वान हो सकती थी मगर उसने अपनी अंतरात्मा की सुनते हुए चुपचाप बैठकर अपने आस-पास हो रहे भयानक अन्याय को महज सिद्धान्तबद्ध करना नामुमकिन पाया. ये लेख एक ऐसे व्यक्ति को उद्घाटित करते हैं जो सिद्धांत और व्यवहार, विचार और कार्य को जोड़ने में जी जान से जुटी है. जिस देश में वे रहती थीं और जिन लोगों के बीच रहती थीं, उनके लिए कुछ वास्तविक और जरूरी करने का फैसला कर चुकने के पश्चात, इन लेखों में अनुराधा ने हमें (और खुद को) यह बताने की कोशिश की है वे एक उदारवादी एक्टिविस्ट, एक रैडिकल फेमिनिस्ट, एक पर्यावरण-नारीवादी या अम्बेडकरवादी बनने की बजाए मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्यों बनीं. ऐसा करने के लिए वे हमें इन आन्दोलनों के इतिहास के एक बुनियादी दौरे पर ले जाती हैं और विभिन्न विचारधाराओं का एक संक्षिप्त विश्लेषण करते हुए उनकी अच्छाइयां और कमियाँ बताती चलती हैं मानो कोई टीचर मोटे फ्लोरोसेंट मार्कर से परीक्षा के प्रश्न-पत्र को सही कर रही हो. अंतर्दृष्टियाँ और टिप्पणियां कभी-कभी सरल नारेबाजी में तिरोहित हो जाती हैं मगर ज्यादातर वे गंभीर और कभी-कभी तो एकदम अद्भुत हैं जिन्हें कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जो तेज राजनीतिक दिमाग वाला हो और अपने विषय को सिर्फ इतिहास और समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों की बजाए प्रेक्षण और अनुभव के बलबूते अंतरंगता से समझता हो. 

संभवतः अपने लेखन और अपनी राजनीति में अनुराधा का सबसे बड़ा योगदान लिंग भेद और दलित मुद्दों पर उनका काम है. वे जाति की रूढ़िवादी मार्क्सवादी व्याख्या (जाति वर्ग है) की कटु आलोचक हैं और इसे बौद्धिक आलस्य मानती हैं. वे बताती हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने जाति के मुद्दे को ठीक से न समझकर अतीत में गल्तियाँ की हैं. वे दलित आन्दोलन के पहचान के संघर्ष में बदल जाने की आलोचना करती हैं जो कि क्रांतिकारी न होकर सुधारवादी है और जो आंतरिक रूप से अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में व्यर्थ ही न्याय की तलाश करता रहा है. उनका मानना है कि पितृसत्ता और जाति-व्यवस्था को ईंट दर ईंट उजाड़े बिना कोई नई लोकतांत्रिक क्रान्ति नहीं हो सकती.   

जाति और लिंग पर अपने लेखन में अनुराधा गांधी हमें ऐसे दिमाग और दृष्टिकोण से परिचित कराती हैं जो सूक्ष्म ब्यौरों में जाने से से नहीं डरता, जो मतांधता से भिड़ने में नहीं डरता और किसी चीज को ज्यों का त्यों कहने से नहीं डरता -- अपने साथी कामरेडों से और उस व्यवस्था से भी जिससे वे आजीवन संघर्ष करती रहीं. सचमुच, क्या गजब की महिला थीं वे.  
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Saturday, February 18, 2012

अरुंधती राय : राष्ट्रीय सुरक्षा और भारतीय मीडिया

प्रस्तुत है मानव भूषण के साथ अरुंधती राय की बातचीत के संपादित अंश... 











राष्ट्रीय सुरक्षा और भारतीय मीडिया : अरुंधती राय 
(अनुवाद/प्रस्तुति : मनोज पटेल)  

मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी भी तरह के प्रतिबंध के खिलाफ हूँ. एक बार प्रतिबंध लग जाने के पश्चात उनकी व्याख्याएं सामने आने लगती हैं और ये व्याख्याएं हमेशा राज्य या सत्ता के पक्ष में होती हैं. इसलिए मैं पूरी तरह से प्रतिबंधों के खिलाफ हूँ. 

यह कहना सही नहीं होगा कि फासीवाद की शुरूआत भाषणों से होती है. विभिन्न देशों में तमाम वजहों से फासीवाद की शुरूआत हुई. भाषण तो बस अभिव्यक्ति का एक तरीका था. मुझे नहीं लगता कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी तरह की पाबंदी लगाई गई होती तो फासीवाद न आया होता. हिन्दुस्तान में नफरत फैलाने वाले भड़काऊ भाषण समस्या नहीं हैं. समस्या तो तब आती है जब साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है, जब राज्य खुशी-खुशी हत्याओं और सामूहिक हत्याओं को प्रायोजित करता है और फिर कुछ नहीं होता. 

समस्या अभिव्यक्ति या भाषण नहीं है, समस्या तो कार्रवाई की है. यदि आप कहें कि आप ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें हत्याओं, सामूहिक हत्याओं, लोगों को ज़िंदा जला देने या बलात्कार जैसे अपराधों के लिए क़ानून है, और आप इनपर कोई कार्रवाई नहीं करते, उसके बाद आप भड़काऊ भाषण पर क़ानून के माध्यम से काबू पाना चाहते हैं तो सीधी सी बात है कि क़ानून का गलत इस्तेमाल किया जाएगा. उदाहरण के लिए यदि मैं यह कहूं कि कश्मीर में सात लाख फौजियों को तैनात कर देना गलत है, तो कोई यह कह सकता है कि यह भड़काऊ भाषण है. 

मुझे लगता है कि भारत में कुछ चीजें घटित हो रही हैं. एक तो यह कि यहाँ हल्ला-गुल्ला बहुत ज्यादा है. शायद इसलिए कि हमारे देश में दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा टीवी चैनल मौजूद हैं. इन टीवी चैनलों को लगातार बड़े-बड़े कारपोरेशन हथियाते जा रहे हैं जिनका कि उनमें प्रतिकूल हित है, क्योंकि ये वही निगम हैं जो कि दूरसंचार आदि क्षेत्रों में निजीकरण के चलते बहुत पैसे बना रहे हैं. अब वे या तो सीधे-सीधे या विज्ञापन के माध्यम से पूरी तौर पर मीडिया को नियंत्रित करने की स्थिति में हैं. तो यह तो हुआ नियंत्रण का पहला तरीका जो कि देखा जा रहा है.   

नियंत्रण का दूसरा तरीका वह है जब राज्य खुद ही अपनी मर्जी के खिलाफ बोल रहे लोगों के पीछे पड़ जाता है. और तीसरा यह कि बड़े पैमाने पर सेंसरशिप की आउटसोर्सिंग की जाने लगी है. राजनीतिक दल भाड़े के बदमाशों से अपना गुस्सा निकलवाते हैं. ये भाड़े के बदमाश लोगों की पिटाई, घरों पर हमले और तोड़-फोड़ करते हैं और ऐसा माहौल बना देते हैं कि कोई बात कहने के पहले आप दो बार सोचना शुरू कर देते हैं और वो भी डर की वजह से. 

यह आउटसोर्सिंग सरकार के इस भ्रम को बनाए रखने में मदद करती है कि वह लोकतांत्रिक है और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की इजाजत देती है. जबकि सच्चाई यह है कि इन सभी तरीकों से नियंत्रण ही स्थापित किया जाता है, निगमों के माध्यम से, भाड़े के बदमाशों के माध्यम से और अदालतों के माध्यम से भी. राजनीतिक दल न्यायपालिका का भी बड़े पैमाने पर दुरूपयोग करते हैं. उदाहरण के लिए जब भी मैं बोलती हूँ मेरे खिलाफ तमाम मुक़दमे दाखिल किए जाते हैं, ताकि आखिरकार वे आपको डरा सकें या इतना थका दें कि आप अपना मुंह बंद रखने के लिए मजबूर हो जाएं. और अब तो वे इंटरनेट को भी काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं.   

सरकार इस वजह से इंटरनेट पर शिकंजा कसना चाह रही है क्योंकि बड़े खिलाड़ियों को लगने लगा है कि भले ही उन्होंने टीवी और अखबारों को काबू में रखने की व्यवस्था बना ली है मगर इंटरनेट अभी भी जनता को ऐसा स्थान उपलब्ध करवा रहा है जहां कि वह वो बात कह सकती है जो कही जानी चाहिए. मगर केवल मीडिया ही नहीं बल्कि तमाम दीगर मसलों में भी असली समाधान तभी निकलेगा जब कारोबार के प्रतिकूल स्वामित्व को, क्रास ओनरशिप को ख़त्म किया जाए. बड़े-बड़े कारपोरेशन जो धीरे-धीरे जल, विद्युत्, खनिज, दूरसंचार आदि सभी क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं, उन्हें आप इस बात की इजाजत नहीं दे सकते कि वे मीडिया को भी इस तरह से नियंत्रित करें. इस बाबत कोई क़ानून बनाया जाना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि मीडिया को इस तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सकता. 

अपने किसी लेख में मैनें जिक्र किया है कि छत्तीसगढ़ के एस पी ने मुझसे कहा, "जमीन खाली करवाने के लिए वहां पुलिस या फ़ौज भेजने की जरूरत नहीं है. आपको बस सभी आदिवासी घरों में एक टीवी सेट लगा देना चाहिए. इन लोगों के साथ समस्या यह है कि ये लोग लालच करना नहीं जानते." तो यह कोई सतही खेल नहीं बल्कि बहुत गहरा धंधा है. वह धंधा जो टेलीविजन पर हो रहा है और जो बेचा जा रहा है. सिर्फ आलू के चिप्स या एयर कंडिशनर ही नहीं बल्कि एक पूरा दर्शन ही बेचा जा रहा है.      

मणिपुर के जिस सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ इरोम शर्मिला अनशन कर रही हैं वह सेना के गैर-कमीशंड अधिकारियों को भी केवल शक की बिना पर गोली चलाने की इजाजत देता है. स्त्रियों के साथ बलात्कार और उनकी हत्या करने के लिए मणिपुर में इस क़ानून का दुरूपयोग होता रहा है. मगर निरस्त करने की कौन कहे इस क़ानून का क्षेत्राधिकार बढ़ाकर नागालैंड, असम और कश्मीर तक में कर दिया गया है. आज अगर छत्तीसगढ़ में सेना को अभी तक तैनात नहीं किया गया है तो इसलिए क्योंकि सेना तब तक तैनात होने से इनकार करेगी जब तक कि उसे ऐसे विशेष अधिकार क़ानून का संरक्षण और उन्मुक्ति न हासिल हो. 

यदि आप विदेशी विद्वान् या पत्रकार हैं तो आपको भारत आने के लिए सेक्योरिटी क्लीयरेंस की जरूरत पड़ेगी, अगर आप कारोबारी हैं तो ऎसी कोई जरूरत नहीं. यदि आपको कोई खदान खरीदनी या बेचनी है तो बढ़िया है मगर यदि आप विद्वान या पत्रकार हैं तो सेक्योरिटी क्लीयरेंस लेकर आईए. और ठीक इसी समय भारत में साहित्य महोत्सवों का यह सिलसिला चल पड़ा है. दस साल पहले सौन्दर्य प्रतिस्पर्धाओं की बाढ़ सी आई थी और आज साहित्य महोत्सवों की बाढ़ आई हुई है. जहां भी आप जाएं आप पाएंगे कि खनन कम्पनियां, बड़े निगम और सरकार साहित्य महोत्सवों को प्रायोजित कर रही हैं. और आप लेखकों को आते-जाते देखते हैं. मुझे नहीं पता कि वे किस तरह के वीजा पाते हैं. मुझे नहीं लगता कि उन्हें किसी तरह के सेक्योरिटी क्लीयरेंस की जरूरत पड़ती है. तो इस तरह के अभिव्यक्ति की आजादी के झूठे जश्न भी होते हैं. तो आज हम 'सहमति-निर्माण' से बहुत आगे की अवस्था में पहुँच गए हैं. अब हमारे पास असहमति-निर्माण, ख़बरों का निर्माण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ऐसा रस्मीकरण है, जहां कुछ भी सुनना मुहाल है.   

देखिए, जैसे हमें यह समझने में बहुत ऊर्जा लगानी पड़ रही है कि क्या चल रहा है, उसी तरह से उन्हें भी यह छद्मावरण बनाए रखने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही है कि यह एक महान लोकतंत्र वगैरह है. मीडिया को चुप कराने के लिए जो यहाँ हो रहा है वह उससे बिल्कुल अलग है जो चीन या अन्य तानाशाही देशों में हो रहा है. मुझे लगता है कि यह समझदारी की लड़ाई है और यह अपनी चालाकी में ब्राह्मणवादी है. मगर यह मनुस्मृति के जमाने से बहुत आगे बढ़ चुकी है जब दलित व्यक्ति के कुछ सुन लेने पर उसके कान में सीसा डाल दिया जाता था. यह आगे भले बढ़ गई है मगर भावना उतनी अलग नहीं है. एक लोकतंत्र नजर आने, इतना शानदार मीडिया और बाक़ी सब ताम-झाम होने से निकले फायदे बैलेंस शीट में भी दिखाई पड़ते हैं. भारत को एक लोकतंत्र नजर आने के बहुत फायदे होते हैं, तभी तो तिब्बत या मध्य-पूर्व के जनउभार की जितनी चर्चा होती है, उसकी आधी भी चर्चा कश्मीर की नहीं होती. तो यदि मुख्यधारा मीडिया एक जनउभार की सूचना बहुत उत्साहपूर्वक दे और दूसरे के बारे में खामोश रहे तो इसे आपको समझने की जरूरत है -- ऐसा क्यों हो रहा है? यहाँ कहानी क्या है? 
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