टॉमस ट्रांसट्रोमर के गद्य संस्मरण 'मेमोरीज लुक ऐट मी' से एक अंश...
झाड़-फूंक : टॉमस ट्रांसट्रोमर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
सर्दियों के दौरान पंद्रह साल की उम्र में मैं बेचैनी की एक गंभीर तरह की बीमारी से ग्रसित हुआ. मैं एक ऎसी सर्चलाईट के जाल में फंस गया था जिससे प्रकाश नहीं अँधेरा फूटता था. हर रोज दोपहर के बाद शाम ढलते ही मैं उसमें फंस जाता और उस भयावह चपेट से अगली सुबह तक नहीं निकल पाता था. मैं बहुत कम सो पाता और अक्सर बिस्तर पर एक मोटी सी पोथी लिए बैठा रहता. उस दौरान मैनें कई मोटी-मोटी पोथियाँ पढ़ डालीं मगर मैं ठीक-ठीक यह नहीं कह सकता कि मैनें सचमुच उन्हें पढ़ा था क्योंकि उन पुस्तकों ने मेरी स्मृति में कोई चिह्न न छोड़ा था.
इसकी शुरूआत शरद बीतते-बीतते हुई. एक शाम मैं 'स्क्वैनडर्ड डेज' नाम की फिल्म देखने गया था जो एक पियक्कड़ के बारे में थी. उसका अंत उन्माद की एक अवस्था में होता है -- वह एक खौफनाक दृश्य था जो शायद आज मुझे बचकाना लगे. मगर उस समय ऐसा नहीं लगा था.
जब मैं सोने के लिए लेटा तो मैं अपने दिमाग में फिर वही फिल्म चलाने लगा जैसा कि आप अक्सर फिल्म देखकर लौटने के बाद किया करते हैं.
अचानक कमरे का माहौल तनावपूर्ण और डरावना हो गया. किसी चीज ने मुझे पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया. एकाएक मेरा बदन कांपने लगा, खासतौर से मेरे पैर. मैं चाभी भरे जाने वाले ऐसे खिलौने की तरह हो गया जिसे पूरी चाभी भरकर छोड़ दिया गया हो और अब वह बजने के साथ-साथ, लाचार उछल-कूद रहा हो. मांसपेशियों की ऐंठन मेरी नियंत्रण-शक्ति के बिलकुल बाहर हो गई थी. ऐसा एहसास मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं मदद के लिए चिल्लाया जिसे सुनकर मेरी माँ दौड़ी हुई आईं. धीरे-धीरे ऐंठन समाप्त हो गई और दुबारा नहीं लौटी. मगर मेरा डर और बढ़ गया जो कि शाम से लेकर सुबह तक मुझे जकड़े रहता. जो एहसास मेरी रातों पर हावी रहते थे वे उसी तरह के आतंक के थे जिनकी जकड़ के नजदीक फ्रिट्ज़ लैंग 'डाक्टर मबुसे'ज टेस्टामेंट' के कुछ दृश्यों में दिखाई देता है, खासकर शुरूआती दृश्य में -- जिसमें एक छापाखाना है जहां कोई छिपा होता है जबकि मशीनें और बाक़ी सब कुछ कंपन करते रहते हैं. इस दृश्य में मैनें तत्काल खुद को पहचान लिया था, हालांकि मेरी रातें अपेक्षाकृत शांत हुआ करती थीं.
मेरे अस्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण तत्व बीमारी थी. दुनिया एक बड़ा सा अस्पताल थी. मैनें अपने सामने मनुष्य को देंह और आत्मा में विरूपित होते देखा. दिया जलता रहता और भयावह चेहरों को थामने की कोशिश करता मगर कभी-कभी मेरी आँख लग जाती. मेरी पलकें बंद हो जातीं और अचानक वही भयानक चेहरे चारो ओर से मेरे पास आने लगते.
यह सबकुछ खामोशी में घटित होता, फिर भी खामोशी के भीतर आवाजें लगातार व्यस्त रहतीं. वालपेपर की डिजाइन चेहरे बनाया करती. जब-तब दीवार में किसी टिक की आवाज़ से चुप्पी टूट जाती. यह आवाज़ कहाँ से आई? किसके द्वारा? क्या, मेरे? दीवारें चिटकती थीं क्योंकि मेरे रुग्ण विचार उनसे ऐसा ही चाहते थे. फिर तो यह और भी बुरा था... क्या मैं पागल हो गया था? हाँ, लगभग.
मैं पागलपन में बह जाने से डरता जरूर था पर सामान्यतः मुझे किसी तरह की बीमारी का डर नहीं महसूस होता था. यह शायद ही रोगभ्रम का मामला रहा हो, बल्कि यह बीमारी की कुल ताकत थी जो डर पैदा करती थी. जैसा कि एक फिल्म में दिखाया गया था कि अपशकुनी संगीत सुनते ही एक सीधे-साधे अपार्टमेन्ट की आंतरिक साज-सज्जा अपना चरित्र पूरी तरह बदल लेती थी. अब मैं बाहरी दुनिया को बिल्कुल अलग तरीके से महसूस करता था क्योंकि इसमें बीमारी से व्यवस्थित होने वाले वर्चस्व का मेरा ज्ञान भी समाहित था. कुछ साल पहले तक मैं एक अन्वेषक बनना चाहता था. अब मैनें ऐसे अनजाने देश में रास्ता बना लिया था जहां मैं कभी नहीं आना चाहता था. मैनें एक शैतानी शक्ति खोज ली थी. बल्कि यों कहिए कि शैतानी शक्ति ने मुझे खोज लिया था.
हाल ही में मैनें कुछ ऐसे किशोरों के बारे में पढ़ा जो जीवन का सारा सुख ही खो बैठे क्योंकि वे इस विचार से आसक्त हो गए कि एड्स ने दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया है. वे मुझे समझ पाए होते.
मेरी माँ शरद ऋतु की उस शाम को घटित हुई मेरी ऐंठन की साक्षी थीं जब इस संकट की शुरूआत हुई थी. मगर उसके बाद उसे इन सब चीजों से बाहर ही रखा गया. सभी लोगों को बाहर कर दिया गया था क्योंकि जो कुछ चल रहा था वह इतना भयानक था कि उसके बारे में बात भी नहीं की जा सकती थी. मैं प्रेतों से घिरा हुआ था. मैं खुद भी एक प्रेत ही था. एक ऐसा प्रेत जो हर सुबह स्कूल जाता और बिना अपना राज खोले पूरे सबक के दौरान बैठा रहता. स्कूल दम लेने की एक जगह बन गया. वहां मेरा डर हूबहू पहले जैसा ही नहीं होता था. केवल मेरा निजी जीवन ही प्रेतबाधा से ग्रस्त था. सारी चीजें सर के बल खड़ी थीं.
उस समय मैं धर्म के सभी स्वरूपों के प्रति संशयी था और कभी प्रार्थना वगैरह नहीं किया करता था. यदि संकट कुछ सालों के बाद पैदा हुआ होता तो मैं इसका अनुभव एक ईश्वरोक्ति के रूप में करने में समर्थ होता. एक ऎसी चीज के रूप में जिसने मुझे सिद्धार्थ की चार मुलाकातों (बूढ़े, बीमार, मृत व्यक्तियों और भीख मांगने वाले साधू के साथ) की तरह प्रेरित किया होता. मैं विकलांगों और बीमारों के प्रति थोड़ी और सहानुभूति, और थोड़े कम डर का अनुभव करने का उपाय कर पाया होता जिन्होनें मेरी रात्रिकालीन चेतना पर कब्जा जमाया हुआ था. मगर फिर मैं अपने डर में जकड़ा हुआ था जिसे धार्मिक रूप से रंजित व्याख्याएं उपलब्ध नहीं थीं. बिना किसी प्रार्थना या मंत्र के संगीत द्वारा झाड़-फूंक के प्रयास शुरू हुए. इसी समय मैनें गंभीरता से पियानो पर हाथ आजमाना शुरू किया.
और इस सारे घटनाक्रम के दौरान मैं बढ़ता ही जा रहा था. उस शरद सत्र की शुरूआत में मैं अपनी कक्षा में सबसे छोटा था, मगर उस सत्र का अंत होते-होते मैं सबसे लंबा हो चुका था. मानो जिस भय में मैं रह रहा था वह किसी तरह का उर्वरक हो जो कि पौधे को तेजी से बढ़ने में मदद कर रहा हो.
सर्दियां अपनी समाप्ति की ओर पहुंची और दिन लम्बे होने लगे. अब चमत्कारिक ढंग से मेरी अपनी ज़िंदगी से अँधेरा छंटने लगा. यह बहुत धीरे-धीरे हुआ और मुझे भी देर से ही यह एहसास हो पाया कि क्या घटित हो रहा है. बसंत ऋतु की एक शाम मैंने यह पाया कि मेरे सारे डर अब अत्यंत कम रह गए हैं. उस शाम मैनें अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठकर दर्शन बघारा और सिगार के कश लगाए. बसंत की पीली रात से होते हुए घर लौटने का समय हो गया था और मेरा यह एहसास ख़त्म हो चुका था कि घर पर डर मेरा इंतज़ार कर रहा होगा.
फिर भी यह ऎसी चीज है जिसमें मैनें हिस्सा लिया है. शायद मेरा सबसे महत्वपूर्ण अनुभव. मगर इसका अंत हो गया. मुझे वह नरक लगता था मगर वह शुद्ध करने वाला अग्निकुंड था.
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