Thursday, December 29, 2011

दून्या मिखाइल : नया साल


दून्या मिखाइल की एक और कविता...


नया साल : दून्या मिखाइल 
(अनुवाद : मनोज पटेल)


कोई दस्तक दे रहा है दरवाजे पर.
कितना निराशाजनक है यह...
कि तुम नहीं, नया साल आया है. 


मुझे नहीं पता कि कैसे तुम्हारी गैरहाजिरी जोडूँ अपनी ज़िंदगी में.
नहीं मालूम कि कैसे इसमें से घटा दूं खुद को.
नहीं मालूम कि कैसे भाग दूं इसे 
प्रयोगशाला की शीशियों के बीच.


वक़्त ठहर गया बारह बजे 
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी कि सूइयां 
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर. 
                    :: :: :: 
Manoj Patel, Blogger and Translator 

जिबिग्न्यु हर्बर्ट : हृदय

जिबिग्न्यु हर्बर्ट की एक और कविता...

 

हृदय : जिबिग्न्यु हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सभी मनुष्यों के आंतरिक अंग गंजे और चिकने होते हैं. अमाशय, आंतें और फेफड़े गंजे होते हैं. सिर्फ हृदय में केश होते हैं - लाल रंग के, घने और कभी-कभी काफी लम्बे भी. यह एक समस्या है. हृदय के केश, जलीय पौधों की तरह रक्त के प्रवाह में बाधा डालते हैं. केश प्रायः कीटों से भरे होते हैं. आपको अपनी प्रेमिका के हृदय के केशों से इन फुर्तीले परजीवियों को निकालने के लिए बहुत गहराई से प्यार करना होगा. 
                                                         :: :: :: 
Manoj Patel, Blogger & Translator 

Wednesday, December 28, 2011

राबर्टो जुअर्रोज़ : किधर ढल जाता है पतझड़?

राबर्टो जुअर्रोज़ की एक और कविता...


किधर ढल जाता है पतझड़? : राबर्टो जुअर्रोज़ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

किधर ढल जाता है पतझड़?
क्या ढूँढ़ता है वह चीजों के नीचे?
वह क्यों झाड़ देता है सारे रंगों को 
मानो जरूरी हो रंग उड़ना सारी गिरने वाली चीजों का? 

और किधर ढल जाते हैं हम सब 
छोटे वहनीय पतझड़ों की तरह? 
किधर गिरते जाते हैं हम 
पतझड़ ख़त्म हो जाने के बाद भी? 
कौन सा अस्त-व्यस्त प्रकाश 
खोखला कर देता है हमारी बुनियादों को, या हटा देता है उन्हें? 
या बुनियादें नहीं होतीं ज़िंदगी की 
और केवल शून्य में तैरता है प्रकाश? 

पतझड़ हमें खींचता है उस गहराई की तरफ 
जिसका अस्तित्व ही नहीं है. 
और उस दौरान 
हम देखते रहते हैं ऎसी ऊंचाई की ओर 
जो और भी कम होती है अस्तित्व में.  
                    :: :: ::
Manoj Patel Blogger & Translator 

Tuesday, December 27, 2011

राबर्टो जुअर्रोज़ की कविता

अर्जेंटीना के कवि राबर्टो जुअर्रोज़ की थर्ड वर्टिकल पोएट्री से एक कविता...

 
राबर्टो जुअर्रोज़ की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

दोपहर के उजाले में 
जलती हुई एक बत्ती,
प्रकाश में विलीन होता एक प्रकाश.  

और खंडित हो जाता है प्रकाश का सिद्धांत : 
यह बड़ा प्रकाश है जो पीछे हटता है  
मानो एक पेड़ को गिरना हो अपने फल से. 
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Manoj Patel Blogger 

Monday, December 26, 2011

चेस्लाव मिलोश : यह दुनिया

चेस्लाव मिलोश की एक और कविता...


यह दुनिया : चेस्लाव मिलोश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

ऐसा लगता है कि वह सब एक गलतफहमी ही थी.

गंभीरता से ले लिया गया था एक परीक्षण जांच को. 

नदियाँ लौट जाएंगी अपने उद्गम की तरफ. 

हवा ठहर जाएगी एकदम शांत होकर. 

बढ़ने की बजाए पेड़ रुख करेंगे अपनी जड़ों की ओर. 

बूढ़े लोग पीछे भागेंगे एक गेंद के, आईने पर एक निगाह --

और फिर से बच्चे हो जाएंगे वे. 

मुर्दे ज़िंदा हो जाएंगे, समझ नहीं पाएंगे वे तमाम बातों को 

जब तक अघटित नहीं हो जातीं सारी घटित बातें. 

कितनी राहत की बात है! चैन की सांस लो तुम 

जिसने उठाई है इतनी तकलीफ. 
                    :: :: :: 
Manoj Patel

Saturday, December 24, 2011

चेस्लाव मिलोश : गोल बिंदियों की छींट वाली पोशाक

चेस्लाव मिलोश की एक और कविता...

 

गोल बिंदियों की छींट वाली एक पोशाक : चेस्लाव मिलोश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

उसकी गोल बिंदियों की छींट वाली पोशाक -- बस 
इतना ही जानता हूँ उसके बारे में. 
एक बार, अपनी बन्दूक लिए एक जंगल में चुपचाप घूमते हुए 
मैं ठोकर खा गया था उससे, जो खाली जगह पर एक कम्बल बिछाए  
लेटी हुई थी माइकल के साथ. 
एक छोटी सी मांसल चीज,
लोग बताते थे कि वह किसी अधिकारी की बीवी है.
जरूर ज़ोसिया रहा होगा उसका नाम.  

शाम हो गई थी मुझे काले समुन्दर तक पहुँचते-पहुँचते. 
वे सभी मर चुके हैं, यह बहुत पहले की बात है. 

तुम्हें शान्ति मिले ज़ोसिया, और तुम्हारे कारनामों को भी. 

छुट्टी बिताने जाते हुए, ऐसा नहीं होता 
कि उम्मीद की जाए कुछ घटित हो जाने की : 
इश्तहारों में से काले बालों वाला कोई आदमी, 
या माइकल की तरह कोई सुनहरे बालों वाला,  
बस रोजमर्रा की ऊब से थोड़े बदलाव के तौर पर, 
फोन करे प्रेमिका को, चाय की दूकान में केक लेने जैसा. 
हम ऊब और जिज्ञासा से प्रेरित होते हैं पाप की तरफ, 
मगर उसके अलावा मासूम होते हैं हम. 

तुम्हें समझना चाहिए ज़ोसिया, कैसी मुश्किल में होता हूँ मैं 
जब ध्यान से सोचना चाहता हूँ तुम्हारी ज़िंदगी के बारे में 
और यहाँ, जहां तुम मेरी हो, पा जाता हूँ वह जो अनोखा है तुम्हारे भीतर,
हालांकि वह छिपा होता है आम बातों के नीचे. 

शायद तुमने मदद की हो कोई मोर्चा बाँधने में. 
या शायद खुद को कुर्बान किया हो किसी बीमार बच्चे की खातिर.
शायद तुम्हें तकलीफ रही हो किसी जख्म या बीमारी की वजह से, 
और पहुँच गई हो समर्पण की उच्चावस्था में. 
जैसा भी रहा हो, चाहे तुम नष्ट हो गई अपने जलते हुए शहर के साथ,  
या भटकती फिरी उसमें बूढ़ी होकर, सड़कों को न पहचानते हुए, 
मैं कोशिश करता हूँ हर जगह तुम्हारे साथ होने की, व्यर्थ में ही. 
और सिर्फ स्पर्श कर पाता हूँ तुम्हारे वक्षों की भरपूर गोलाइयों का,  
सफ़ेद बिंदियों की छींट वाली तुम्हारी लाल पोशाक को याद करते हुए.  
                    :: :: :: 
manojpatel 

Friday, December 23, 2011

चेस्लाव मिलोश : प्यार

चेस्लाव मिलोश की एक कविता...

 
 प्यार : चेस्लाव मिलोश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

प्यार का मतलब होता है खुद को उस तरह से देखना सीखना 
जिस तरह कोई देखता है दूर की चीजों को 
क्योंकि तुम तमाम चीजों में से सिर्फ एक चीज भर हो. 
और जो कोई भी देखता है उस तरह से, वह अनजाने ही 
चंगा कर लेता है अपने दिल को अनेक बीमारियों से -
एक चिड़िया और एक पेड़ उससे कहते हैं : दोस्त.

फिर वह इस्तेमाल करना चाहता है खुद को और चीजों को 
ताकि वे रहें परिपक्वता की दीप्ति में. 
यह जरूरी नहीं कि वह जानता ही हो अपनी सेवा के बारे में : 
सबसे बेहतर सेवा करने वाला हमेशा समझता नहीं है.    
                    :: :: :: 
manojpatel 

Thursday, December 22, 2011

चेस्लाव मिलोश : सूरज

चेस्लाव मिलोश की एक कविता...


सूरज : चेस्लाव मिलोश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सारे रंग आते हैं सूरज से. मगर उसका नहीं है 
कोई एक रंग, क्योंकि सारे रंग समाए हैं उसके भीतर.
और पूरी पृथ्वी है एक कविता की तरह 
जबकि ऊपर सूरज प्रतीक है कलाकार का. 

जो कोई भी रंगना चाहता है बहुरंगी दुनिया को 
उसे कभी मत देखने दो सीधे सूरज की तरफ 
वरना वह गँवा बैठेगा अपनी देखी हुई चीजों की स्मृति. 
केवल जलते हुए आंसू रह जाएंगे उसकी आँखों में. 

उसे घुटनों के बल बैठकर झुकाने दो अपना चेहरा घास की ओर, 
और देखने दो जमीन से परावर्तित प्रकाश को. 
वहां उसे मिलेंगी वे सारी चीजें जो हम गँवा चुके हैं : 
तारे और गुलाब, शाम और सुबहें तमाम.   
                                                                       वारसा, १९४८ 
                    :: :: :: 
manojpatel 

Wednesday, December 21, 2011

महमूद दरवेश : यदि तुम नदी लिखने में गलती न करो

सिनान अन्तून द्वारा अनूदित महमूद दरवेश के गद्य की तीसरी और अंतिम किताब 'इन द प्रजेंस आफ एब्सेंस' हाल ही में प्रकाशित हुई है. यहाँ उसका एक संपादित अंश प्रस्तुत है...


अक्षर-अक्षर शब्द : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब एक अक्षर को दूसरे अक्षर के साथ, यानी एक निरर्थकता को दूसरी निरर्थकता के साथ, मिलाया जाता है तो एक दुरूह रूप, एक ध्वनि विशेष की स्पष्टता को प्रकट करता है. यह धीमी स्पष्टता एक छवि का आकार लेने हेतु अर्थ का मार्ग प्रशस्त करती है. कुछ अक्षर मिलकर एक दरवाजा या एक मकान बन जाते हैं. 

कितना मजेदार खेल है यह! एकदम जादू! शब्दों से धीरे-धीरे पूरी दुनिया जन्म लेती है. इस तरह पाठशाला कल्पना के लिए खेल का मैदान बन जाती है... जो कुछ भी दूर है वह पास आ जाता है. जो बंद है, वह खुल जाता है. यदि तुम "नदी" लिखने में गलती न करो तो नदी तुम्हारी कापी से होकर बहने लगेगी. आसमान को यदि तुम ठीक-ठीक लिख दो तो वह भी तुम्हारा एक निजी सामान हो जाता है.  

यदि तुम त्रुटिहीन लिखाई में महारत हासिल कर लो तो जो कुछ भी तुम्हारे नन्हें हाथों की पहुँच से परे है वह तुम्हारे दामन में आ गिरेगा. जो कोई कुछ लिखता है वह उस पर मिल्कियत भी रखता है. 

अक्षर तुम्हारे सामने पड़े हुए हैं, उन्हें उनकी तटस्थता से मुक्त करो और उनके साथ बेसुध ब्रह्माण्ड में खेल रहे एक विजेता की भांति खेलो. अक्षर बेचैन हैं, वे एक छवि के भूखे है और छवि एक अर्थ की प्यासी है. अक्षर, अर्थ के मार्ग में बिखरे हुए कंकड़ों के रूप में एक मौन निवेदन हैं. एक अक्षर को दूसरे अक्षर के साथ रगड़ो तो एक तारे का जन्म हो जाता है. एक अक्षर को दूसरे अक्षर के पास लाओ तो तुम बारिश की आवाज़ सुन सकते हो. एक अक्षर को दूसरे अक्षर के ऊपर रख दो तो तुम अपना नाम थोड़े से डंडों वाली एक सीढ़ी के रूप में बना पाओगे. 
                                                             :: :: :: 
manojpatel

Tuesday, December 20, 2011

इन्गे पेडरसन : चंचल बेटी के नाम एक चिट्ठी

डेनमार्क की कवि-कथाकार इन्गे पेडरसन के चार कविता-संग्रह, दो कहानी-संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें कई पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं. 



 








चंचल बेटी के नाम एक चिट्ठी : इन्गे पेडरसन 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मत सुनना मेरी 
जब कहूं 
मानो मेरी बात 

अनदेखा कर जाना 
जब कहूँ 
ख़त्म हो चुकी है इंसानियत 

नजरअंदाज कर देना 
जब रोजाना जताने लगूँ 
अपनी यंत्रवत ज़िंदगी के बारे में  

इस्तेमाल तो करना 
मेरा सुरक्षा जाल  
मगर निकल जाना उससे 
जब वह बन जाए एक कपटी फंदा   

मदद लेना मेरे हाथों की 
मगर तोड़ देना उन्हें 
यदि वे बन जाएं तुम्हें घेरे रहने 
और कुरूप करने वाले घिनौने शिकंजे 

मत देखना 
मत सुनना मुझे 
कसूरवार मत समझना खुद को 

उड़ना ! 
                    :: :: :: 
manoj patel 

Monday, December 19, 2011

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : मिट्टी की कान

आज अफ़ज़ाल अहमद सैयद की यह कविता, 'मिट्टी की कान', यानी मिट्टी की खदान...  

















मिट्टी की कान : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)

मैं मिट्टी की कान का मज़दूर हूँ 
काम ख़त्म हो जाने के बाद हमारी तलाशी ली जाती है 
हमारे निगराँ हमारे बंद बंद अलग कर देते हैं 
फिर हमें जोड़ दिया जाता है 
हमारे निगराँ हमें लापरवाही से जोड़ते हैं 

पहले दिन मेरे किसी हिस्से की जगह 
किसी और का कोई हिस्सा जोड़ दिया गया था 
होते होते 
एक एक रवाँ 
किसी न किसी और का हो जाता है 
खबर नहीं मेरे मुख्तलिफ़ हिस्सों से जुड़े हुए मज़दूरों में कितने 
कान बैठने से मर गए होंगे ? 
मिट्टी चुराने के एवज ज़िंदा जला दिए गए होंगे 

मिट्टी की कान में कई चीज़ों पर पाबंदी है 
मिट्टी की कान में पानी पर पाबंदी है 
पानी मिट्टी की हाकमियत को ख़त्म करके उसे अपने साथ बहा ले जाता है 

अगर निगरानों को मालूम हो जाए 
कि हमने मिट्टी की कान में आने से पहले पानी पी लिया था 
तो हमें शिकंजे में उल्टा लटकाकर 
सारा पानी निचोड़ लिया जाता है 
और पानी के जितने कतरे बरामद होते हैं 
उतने दिनों की मज़दूरी काट ली जाती है 

मिट्टी की कान में आग पर पाबंदी नहीं है 
कोई भी निगराँ आग पर पाबंदी नहीं लगाते 
आग कान के मुख्तलिफ़ हिस्सों के दरमियान दीवार का काम करती है 
मैं भी आग की चारदीवारियों के दरमियान काम करता हूँ 
कोई भी मज़दूरी आग की चारदीवारियों के बगैर नहीं हो सकती 

मिट्टी की कान में आग का एक और काम भी है 
कभी कभी निगराँ सारी कान को अचानक खाली कराना चाहते हैं 

उस वक़्त कान में आग फैला दी जाती है 
उस दिन कोई अगर सलामत निकल जाए 
तो उसकी तलाशी नहीं ली जा सकती 
मिट्टी ऐसे ही दिन चुराई जा सकती है 
मैनें एक ऐसे ही दिन मिट्टी चुराई थी 

वो मिट्टी मैनें एक जगह रख दी है 
एक ऐसे ही आग भड़काए जाने के दिन 
मैनें बेकार आज़ा के अंबार से 
अपने नाखून और अपने दिल की लकीर चुराई थी 
और उन्हें भी एक जगह रख दिया है 

मुझे किसी न किसी तरह आग की खबर हो जाती है 
और मैं चोरी के लिए तैयार हो जाता हूँ 

मैनें कूड़े के ढेर पर एक पाँव देख रखा है 
जो मेरा नहीं है 
मगर बहुत खूबसूरत है 
अगली आग लगने के वक़्त उसे उठा ले जाऊंगा 
और उसके बाद कुछ और-- और कुछ और-- और कुछ और 

एक दिन मैं अपनी मर्ज़ी का एक पूरा आदमी बनाऊंगा 
मुझे उस पूरे आदमी की फिक्र है 
जो एक दिन बन जाएगा 
और मिट्टी की कान में मज़दूरी नहीं करेगा  
मैं उसके लिए मिट्टी चुराऊंगा 
और तहक़ीक करूंगा 
कान में आग किस तरह लगती है 
और कान में आग लगाऊँगा  
और मिट्टी चुराऊँगा 

इतनी मिट्टी कि उस आदमी के लिए 
एक मकान, एक पानी अंबार करने का कूज़ा और एक चिराग बना दूँ 

और चिराग के लिए आग चुराऊँगा  
आग चोरी करने की चीज़ नहीं 
मगर एक न एक ज़रुरत के लिए हर चीज़ चोरी की जा सकती है 

फिर उस आदमी को मेरे साथ रहना गवारा हो जाएगा 
आदमी के लिए अगर मकान हो, पीने के पानी का अम्बार हो 
और चिराग में आग हो 
तो उसे किसी के साथ भी रहना गवारा हो सकता है 
मैं उसे अपनी रोटी में शरीक करूंगा 
और अगर रोटियाँ कम पड़ीं 
तो रोटियाँ चुराऊँगा 

वैसे भी निगराँ उन मज़दूरों को जो कान में शोर नहीं मचाते 
बची खुची रोटियाँ देते रहते हैं 

मैनें मिट्टी की कान में कभी कोई लफ्ज़ नहीं बोला 
और उससे बाहर भी नहीं 
मैं अपने बनाए हुए आदमी को अपनी ज़बान सिखाऊंगा 
और उससे बातें करूंगा  

मैं उससे मिट्टी की कान की बातें नहीं करूंगा 
मुझे वो लोग पसंद नहीं जो अपने कामकाज की बातें घर जाकर भी करते हैं 

मैं उससे बातें करूंगा 
गहरे पानियों के सफ़र की 

और अगर मैं उसके सीने में कोई धड़कने वाला दिल चुराकर लगा सका 
तो उससे मुहब्बत की बातें करूंगा 
उस लड़की की जिसे मैनें चाहा है 
और उस लड़की की जिसे वह चाहेगा 

मैं उस आदमी को हमेशा अपने साथ नहीं रखूंगा 
किसी भी आदमी को कोई हमेशा अपने साथ नहीं रख सकता 
मैं उसमें सफ़र का हौसला पैदा करूंगा 
और उसे उस खित्ते में भेजूंगा 
जहाँ दरख़्त मिट्टी में पानी डाले बगैर निकल आते हैं 

और वह उन बीजों को मेरे लिए ले आएगा 
जिनके उगने के लिए 
पानी की ज़रुरत नहीं होती 

मैं रोज़ाना एक एक बीज 
मिट्टी की कान में बोता जाऊंगा 
बोता जाऊंगा 
एक दिन किसी भी बीज के फूटने का मौसम आ जाता है 

मिट्टी की कान में मेरा लगाया हुआ बीज फूटेगा 
और पौधा निकलना शुरू होगा 

मेरे निगराँ बहुत परेशान होंगे 
उन्होंने कभी कोई दरख़्त नहीं देखा है 
वे बहुत दहशतज़दा होंगे और भागेंगे 

मैं किसी भी निगराँ को भागते देखकर 
उसके साथ कान के दूसरे दहाने का पता लगा लूँगा 
किसी भी कान का दूसरा दहाना मालूम हो जाए तो 
उसकी दहशत निकल जाती है 

जब मेरी दहशत निकल जाएगी 
मैं आग की दीवार से गुज़र कर 
मिट्टी की कान को दूर-दूर जाकर देखूंगा 
और एक वीरान गोशे में 
ऊपर की तरफ एक सुरंग बनाऊँगा 

सुरंग ऎसी जगह बनाऊँगा 
जिसके ऊपर 
एक दरिया बह रहा हो 

मुझे एक दरिया चाहिए 

मैं वह आदमी हूँ जिसने अपना दरिया बेचकर 
एक पुल खरीदा था 
और चाहा था कि अपनी गुजर औकात 
पुल के महसूल पर करे 
मगर बे-दरिया के पुल से कोई गुजरने नहीं आया 
फिर मैनें पुल बेच दिया 
और एक नाव खरीद ली 
मगर बे-दरिया की नाव को कोई सवारी नहीं मिली 

फिर मैनें नाव बेच दी 
और मजबूत डोरियों वाला एक जाल खरीद लिया 
मगर बे-दरिया के जाल में कोई मछली नहीं फंसी 

फिर मैनें जाल बेच दिया 
और एक छतरी खरीद ली 
और बे-दरिया की ज़मीन पर मुसाफिर को साया फराहम करके गुजर करने लगा 

मगर धीरे धीरे 
मुसाफिर आने बंद होते गए 

और एक दिन जब 
सूरज का साया मेरी छतरी से छोटा हो गया 
मैनें छतरी बेच दी 
और एक रोटी खरीद ली 

किसी भी तिज़ारत में यह आखिरी सौदा होता है 

एक रात 
या कई रातों के बाद 
जब वह रोटी ख़त्म हो गई 
मैनें नौकरी कर ली 

नौकरी मिट्टी की कान में मिली 
                    :: :: :: 

कान : खदान 
निगराँ : निरीक्षक 
बंद : अंगों के जोड़ 
हाकमियत : सत्ता 
आज़ा : अंग 
अंबार : ढेर 
तहक़ीक : खोज 
कूज़ा : कुल्हड़ 
खित्ता : इलाका 
गोशा : कोना 
महसूल : किराया 
Afzal Ahmad Syed افضال احمد سيد manojpatel 

Sunday, December 18, 2011

चार्ल्स सिमिक : मिट्टी के सिपाही

आज प्रस्तुत है चार्ल्स सिमिक की यह कविता...

 

बड़ी जंग : चार्ल्स सिमिक 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

हम जंग-जंग खेला करते थे जंग के दौरान, 
मार्गरेट. बड़ी पूछ थी सिपाही वाले खिलौनों की,
मिट्टी से बने सिपाहियों की. 
रांगे वाले खिलौने शायद पिघला दिए गए थे गोलियां बनाने के लिए. 

बहुत खूबसूरत लगती थी 
वह मिट्टी की पलटन. मैं फर्श पर पड़ा 
घंटों देखा करता था उनकी आँखों में. 
मुझे याद है कि वे भी मुझे ताका करते थे ताजुब्ब से भरे.  

कितना अजीब लगता रहा होगा उन्हें 
अकड़ कर सावधान खड़े रहना 
दूध से बनी मूंछों वाले 
एक बड़े और अबूझ प्राणी के सामने. 

समय के साथ वे टूट गए, या मैनें जानबूझकर तोड़ दिया उन्हें. 
तार था उनके अंगों, उनकी छातियों के भीतर,
मगर कुछ नहीं था खोपड़ी में !
मार्गरेट, मैनें जांची थी यह बात. 

कुछ भी नहीं था खोपड़ी में... 
सिर्फ एक बांह, एक ओहदेदार की बांह, 
कभी-कभार मेरी बहरी दादी की रसोई की फर्श के 
किसी छेद से तलवार चलाती हुई.  
                    :: :: :: 
manojpatel
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