पीटर चर्चेस की एक कविता...
अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाओ : पीटर चर्चेस
(अनुवाद : मनोज पटेल)
अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाओ, वह बोली.
मैंने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा लिया.
अपना बायाँ हाथ ऊपर उठाओ, उसने कहा.
मैंने अपना बायाँ हाथ ऊपर उठा लिया, मेरे दोनों हाथ ऊपर हो गए.
अपना दाहिना हाथ नीचे कर लो, वह बोली.
मैंने उसे नीचे कर लिया.
बायाँ हाथ नीचे कर लो, उसने कहा.
मैंने ऐसा ही किया.
दाहिना हाथ ऊपर उठाओ, वह बोली.
मैंने उसका कहा माना.
नीचे कर लो अपना दाहिना हाथ.
मैंने कर लिया.
अपना बायाँ हाथ उठाओ.
मैंने उठा लिया.
नीचे कर लो बायाँ हाथ.
मैंने नीचे कर लिया.
खामोशी छा गई. मैं दोनों हाथ नीचे किए उसके अगले हुक्म का इंतज़ार करता खड़ा रहा. थोड़ी देर बाद बेचैन होकर मैंने कहा, अब क्या करना है.
अब तुम्हारी बारी है हुक्म देने की, वह बोली.
ठीक है, मैंने कहा. मुझसे दाहिना हाथ ऊपर उठाने के लिए कहो.
:: :: ::
ह ह ह ह ....वाह वाह क्या बात है ...गज़ब ! आभार मनोज जी !
ReplyDeleteकमाल है भाई...
ReplyDeleteबहुत ताज़ा और ताजगी से भर देने वाली कविता, मनोज भाई. काफी समय बाद आप की गली में आया, बहुत मजा आया.
ReplyDeletebahut sundar !! adbhut !! इसी तरह होती है आदमी की वैचारिक कंडीशनिंग .
ReplyDeleteहा हा हा.......
ReplyDeleteबेहतरीन.................
शुक्रिया ,मनोज जी.
अनु
मैंने कहा, मुझसे दाहिना हाथ ऊपर उठाने के लिए कहो...
ReplyDeleteइन्तेहा.................!
क्या बात है...
मैंने कहा, मुझसे दाहिना हाथ ऊपर उठाने के लिए कहो...
ReplyDeleteइन्तेहा.................!
क्या बात है...
वाह !!!! क्या बात !!!
ReplyDeleteअलग हैसियत के व्यक्तियों के बीच एकतरफा रिश्ते पर सुन्दर कविता.
ReplyDeleteगुलामी की भी शगल होती है।
ReplyDeleteगुलामी भी शगल की चीज़ है।
ReplyDeleteअरे! कोई यह भी तो बताओ इसमें क्या अच्छा है? क्यों अच्छा है? अव्यक्त कथन और उसका अभिप्राय क्या है? मैं बिना कुछ जाने-समझे कैसे कह दूं-अप्रतिम, सुन्दर, वाह और बहुत खूब?
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDelete