Monday, April 22, 2013

येहूदा आमिखाई : यही फ़ितरत होती है दिल की

यहूदा आमीखाई की एक और कविता... 

उन दिनों, इस समय  : येहूदा आमिखाई  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

धीरे-धीरे अलग होते हैं वे दिन 
इस समय  से, जैसे कोई संतरी लौट रहा हो अपने घर, जैसे मातमपुर्सी करने वाले 
लौट रहे हों किसी क्रियाकर्म से दूरदराज के अपने घरों को. 

याद है? "मैं तुम्हें जाने नहीं दे सकता था." हमारे पीछे 
नष्ट हो चुके हैं वे घर जहाँ हम रहा करते थे. अब तो 
गूँज भी बाकी नहीं रही उनके गिरने की. सोचता हूँ 
कैसे हमेशा एकवचन में होता है यह समय 
और वे दिन  होते हैं बहुवचन में. और मैं अगुवा हूँ 
बहुत सारे दिनों की एक फ़ौज का. याद है? "यह 
आखिरी लड़ाई है." खूबसूरत था संगीत 
उन दिनों. इस समय. 

अब एक दीवार है मेरा दिल, 
जिस पर झूमती डालियों की परछाईयाँ 
ज्यादा हरकत करती लगती हैं असलियत के मुकाबले. 
यही फ़ितरत होती है परछाइयों की, 
यही फ़ितरत होती है दिल की. 
                 :: :: ::

2 comments:

  1. Us Europe ko aaj yaad karna ... bahot fascinate karte hain wo bimb aur paridrashya.
    Shukriya Manoj for the relentless treats u serve us readers.

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  2. बीते हुए दिनों को याद करती खूबसूरत कविता ....सुन्दर अनुवाद ।

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