Showing posts with label गद्द्य. Show all posts
Showing posts with label गद्द्य. Show all posts

Friday, March 18, 2011

जोसे सारामागो : किसी मनुष्य की हत्या का नुस्खा


आप इस ब्लॉग पर जोसे सारामागो के कुछ कोट्स और महमूद दरवेश से सम्बंधित उनका गद्यांश पढ़ चुके हैं. आज प्रस्तुत है उनके गद्य की एक और बानगी, 'किसी मनुष्य की हत्या का नुस्खा'. 











किसी मनुष्य की हत्या का नुस्खा : जोसे सारामागो 


प्रचलित आकार-प्रकार के अनुसार, दो-चार दर्जन किलो मांस, हड्डियां और खून लीजिए. इन्हें उचित तालमेल के साथ सर, धड़ एवं अन्य अंगों में व्यवस्थित करके, कल-पुर्जों और नसों एवं तंत्रिकाओं के एक संजाल से भर दीजिए. यह कार्य, निर्माता के दोषों से बचने का ध्यान रखते हुए करिए, अन्यथा जिनका परिणाम असामान्य डील-डौल हो सकता है. चमड़ी के रंग का तनिक भी महत्व नहीं होता. 

इस पेचीदा कार्य से निर्मित उत्पाद को मनुष्य का नाम दीजिए. अक्षांश, मौसम, उम्र, और मनोदशा के अनुसार गर्म या ठंडा परोसिए. यदि आप अपने इन नमूनों को बाज़ार में उतारना चाहते हों तो उनमें कुछ ऐसे गुणों को भी बिठा दीजिए जो उसे आम माल से अलग कर सकें : साहस, बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता, चरित्र, न्यायप्रियता, दयालुता, अपने पड़ोसियों और दूर रहने वालों के लिए सम्मान. दोयम दर्जे के उत्पादों में तमाम नकारात्मक गुणों के साथ-साथ, इन सकारात्मक गुणों में से एकाध गुण ही, कम या ज्यादा मात्रा में, पाए जाएंगे, और उनमें नकारात्मक गुण ही हावी रहेंगे. विनम्रता का तकाजा है कि हम पूर्णतः सकारात्मक या पूर्णतः नकारात्मक उत्पादों को व्यवहार्य न मानें. हर हाल में, ध्यान रहे कि इन सभी मामलों में चमड़ी के रंग का तनिक भी महत्व नहीं है. 

लेकिन किसी मनुष्य को उसी की तरह कारखाने से निकले एवं समाज कही जाने वाली इमारत में रहने वाले अपने साथियों से अलगाने के लिए, एक व्यक्तिगत लेबल द्वारा ही वर्गीकृत किया जाता है. वह इस इमारत के किसी एक या अन्य तल पर जगह लेगा, किन्तु कदाचित ही उसे सीढ़ियों से ऊपर जाने की इजाजत होगी. नीचे जाने की अनुमति रहती है और समय-समय पर इसे सुगम भी बनाया जाता है. इमारत के तलों पर ढेर सारे घर होते हैं जिन्हें कभी सामाजिक हैसियत के अनुसार और कभी पेशे के अनुसार आवंटित किया जाता है. आदत, प्रथा, एवं पूर्वाग्रह कही जाने वाली धारा में ही गति मिलती है. इस धारा के खिलाफ तैरना खतरनाक है, हालांकि कुछ मनुष्य जीवन भर यही करते रहते हैं.  इन मनुष्यों में, जिनके शरीर में लगभग पूर्णता की हद तक पहुंचे गुण मौजूद होते हैं, या जिन्होनें जानबूझ कर इन गुणों का चुनाव किया होता है, उनकी चमड़ी के रंग के आधार पर कोई भी भेद नहीं किया जा सकता. इनमें से कुछ गोरे हैं और कुछ काले, कुछ पीले हैं और कुछ भूरे. इनमें कुछ ताम्बई रंग वाले भी हैं, किन्तु ये लगभग लुप्तप्राय प्रजाति है.   

मनुष्य की अंतिम नियति, जैसा कि हम दुनिया की शुरूआत से ही जानते रहे हैं, मृत्यु है. ठीक-ठीक अपने क्षण में, मृत्यु सभी के लिए एक समान होती है. इसके ठीक पहले के क्षण सभी के लिए एक समान नहीं होते. कोई साधारण ढंग से मर सकता है, जैसे कोई सोते-सोते ही मर जाए ; कोई उन बीमारियों में से किसी एक के चंगुल में आकर मर सकता है जिन्हें शिष्टाचारपूर्वक निर्मम कहा जाता है ; कोई यातना शिविर में यातना की वजह से मर सकता है ; कोई नाभिकीय विकिरण के कारण मर सकता है ; कोई जगुआर चलाते हुए या उसके नीचे आकर मर सकता है ; किसी दोपहर, कोई राइफल की गोली से भी मर सकता है जबकि अभी दिन है और आप सोच भी नहीं सकते कि मौत नजदीक खड़ी है. लेकिन किसी मनुष्य की चमड़ी के रंग का कोई महत्व नहीं होता. 

मार्टिन लूथर किंग हममें से किसी की तरह ही एक मनुष्य थे. उनमें बहुत सी अच्छाईयां थीं जिनके बारे में हम जानते हैं, और निसंदेह कुछ दोष भी जो किसी भी तरह उनकी अच्छाइयों को कम नहीं करते. उनके जिम्मे बहुत सा काम था - और वे उन्हें अंजाम दे रहे थे. वे आदत, प्रथा एवं पूर्वाग्रह की धाराओं के खिलाफ संघर्ष करने में गले तक डूबे थे. जब तक कि राइफल की एक गोली ने हम जैसे अन्यमनस्क लोगों को फिर से याद नहीं दिला दिया कि किसी मनुष्य की चमड़ी का रंग सचमुच बहुत महत्वपूर्ण होता है. 

(अनुवाद : मनोज पटेल)
Jose Saramago Hindi Anuvad 

Monday, March 14, 2011

महमूद दरवेश : एक मामूली दुःख का रोजनामचा


"हर अच्छी कविता प्रतिरोध की एक कार्रवाही है." ऐसा मानने वाले फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश ने अपनी कविताओं जितना ही अच्छा गद्य भी लिखा है. इस आत्मकथात्मक किस्म के गद्य में उनकी नजरबंदी, इजरायली अधिकारियों की पूछताछ और जेल में बिताए उनके दिनों का ब्योरा है. यहाँ भी निर्वासन और अपनी मातृभूमि के लिए उनकी गहरी तड़प कदम-कदम पर दिखती है. उनका गद्य इतना काव्यात्मक है कि इसे उनकी कविताओं से अलगाना बेहद मुश्किल है. यहाँ प्रस्तुत अंश 'जर्नल आफ ऐन आर्डिनरी ग्रीफ' से... 
















एक मामूली दुःख का रोजनामचा 





-- तूफ़ान के गुजरने तक नीचे झुक जाओ मेरी जान. 

-- हमेशा के इस नीचे झुकने से मेरी पीठ धनुष हो गयी है. तुम अपना तीर कब चलाने जा रहे हो ? 
    [ आप अपना हाथ दूसरे हाथ तक ले जाते हैं, और मुट्ठी भर आटा पाते हैं ]

-- तूफ़ान के गुजरने तक नीचे झुक जाओ मेरी जान. 

-- हमेशा के इस नीचे झुकने से मेरी पीठ पुल हो गयी है. तुम पार कब उतरोगे ? 
    [ आप अपना पैर बढ़ाने की कोशिश करते हैं, लेकिन लोहा हिलता भी नहीं ]

-- तूफ़ान के गुजरने तक नीचे झुक जाओ मेरी जान. 

-- हमेशा के इस नीचे झुकने से मेरी पीठ एक सवालिया निशान हो गयी है. तुम जवाब कब दोगे ?
    [ सवाल पूछने वाला एक रिकार्ड बजाता है जिसमें तालियों की गड़गड़ाहट है ]

जब तूफ़ान ने उन्हें छिटका दिया, तो वर्तमान, अतीत पर चिल्ला रहा था : "यह तुम्हारी गलती है." और अतीत अपने अपराध को क़ानून में बदल रहा था. जहां तक भविष्य की बात है, वह एक तटस्थ पर्यवेक्षक मात्र था. 

तूफ़ान के गुजर जाने के बाद, ये सभी झुकाव पूरे होकर एक वृत्त में बदल गए जिसकी शुरूआत और अंत अज्ञात हैं.     
                              * *

-- हर सिसकी के बाद थोड़ा रुको, और हमें बताओ कि तुम कौन हो.

जब तक वह दुबारा होश में आया, खून सूख चुका था.

-- मैं पश्चिमी किनारे से हूँ.

-- और उन्होंने तुम्हें इतनी यातना क्यों दिया ?

-- तेल अवीव में कोई विस्फोट हुआ था, इसलिए उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया.

-- और तेल अवीव में तुम क्या करते हो ?

-- मैं ईंट-गारा करने वाला एक मजदूर हूँ.

इजरायली शहरों में, पश्चिमी किनारे या गाजा पट्टी के अरबी मजदूरों के कामकाज के हालात अभी तक सामान्य नहीं हो पाए हैं. पिछली पराजय के फ़ौरन बाद ही, अरब जनता को उम्मीद थी कि अरबी मजदूरों को निष्ठा बनाए रखने और कब्जे को नामंजूर करने के वास्ते भूखो मरना पडेगा. जिम्मेदारी के ओहदे पर बैठे किसी भी शख्स ने अधिग्रहीत क्षेत्र में रह रहे लोगों को रोजी-रोटी का कोई साधन मुहैया कराने के बारे में नहीं सोंचा, ताकि वे अपनी निष्ठा बनाए रख सकें और जीतने वालों के साथ किसी किस्म का सहयोग करने से इनकार करते रह सकें. 

-- जब बंदूकें खामोश हों, तो क्या मुझे भूख महसूस करने का हक़ नहीं है ?

आप किसी ऐसे शख्स से क्या कहेंगे जो इस ढंग से अपने सवाल रख रहा हो ? राष्ट्र गानों और उत्तेजक भाषणों को पीसकर, उन्हें गूंथकर, रोटी में बदलने का बूता हममें नहीं है. 

अधिग्रहीत मातृभूमि का रोटी के किसी टुकड़े में बदल जाना सबसे खतरनाक है. यह भी भयानक है कि फ़ौजी कब्जे में रह रही आबादी को वर्तमान परिस्थितियों और राजनैतिक और सैन्य चुप्पी के चलते जबरन भूखों रहना पड़े. 

-- जंग के दौरान जब भीषण लड़ाइयां छिड़ी हों, हम जीवन की गुणवत्ता के बारे में कुछ ख़ास ध्यान नहीं देते. युद्ध की घोषणा कर दीजिए या कोई लड़ाई शुरू कर दीजिए तो हम हर तरह का बलिदान करने के लिए तैयार हैं. लेकिन जब बंदूकें खामोश हों, तो हमें भूख महसूस करने का हक़ है.

और हम यह क्यूं भूल जाते हैं, या भूलने का बहाना करते हैं कि खुद इजरायल का निर्माण भी अरब के लोगों के ही हाथों हुआ था ? 

कितना विरोधाभासी ! कितना शर्मनाक ! 
                              * *


-- तुम कहाँ के हो, भाई ?

-- गाजा का.

-- तुमने क्या किया था ?

-- मैनें विजेताओं की कार पर ग्रेनेड फेंका था, लेकिन उनकी बजाए खुद को ही उड़ा बैठा.

-- और...

-- उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया और मुझ पर खुदकशी की कोशिश का इल्जाम लगाया. 

-- तुमने जाहिर है, कबूल कर लिया होगा.

-- ठीक-ठीक ऐसा नहीं है. मैनें उन्हें बताया कि खुदकशी की कोशिश कामयाब नहीं हुई थी. इसलिए उन्होंने दया करते हुए मुझे इस आरोप से मुक्त कर दिया, और उम्रकैद की सजा सुना दी. 

-- मगर तुम मारने की नियत रखते थे, न कि खुदकशी की ?

-- लगता है तुम गाजा को नहीं जानते. वहां फर्क एक खयाली चीज है. 

-- मैं समझा नहीं.

-- लगता है तुम गाजा को नहीं जानते. तुम कहाँ के हो ?

-- हईफ़ा का.

-- और तुमने क्या किया था ?

-- मैनें विजेताओं की कार पर एक कविता फेंकी थी, और इसने उन्हें उड़ा दिया था. 

-- और...

-- उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया और मुझ पर सामूहिक हत्याओं का इल्जाम लगाया. 

-- तुमने जाहिर है, कबूल कर लिया होगा.

-- ठीक-ठीक ऐसा नहीं है. मैनें बताया कि क़त्ल की कोशिश कामयाब हो गयी थी. इसलिए उन्होंने मेरी गुजारिश के जवाब में कृपा की और मुझे दो महीने की कैद की सजा दी. 

-- मैं समझा नहीं. 

लगता है तुम हईफ़ा को नहीं जानते. वहां फर्क एक खयाली चीज है. 

जेल का चौकीदार आया, उसे जेल में डाल दिया, और मुझे रिहा कर दिया. 
                              * *









जाओ. और फिर से वापस आओ, जबकि मैं बेखुदी से खुद तक वापस आऊँ. 

जब तक ख्वाब मेरा बदन छोड़ न दे, दूर ही रहना.

मैनें तुम्हें धुंआ उड़ाना सिखाया. और तुमने मुझे धुंए की सोहबत सिखा दी. 

जाओ. और फिर से वापस आओ ! 

-- और, तुमने उससे और क्या-क्या कहा ?

-- मैनें प्रेम की कोई बात नहीं की. मेरे शब्द अस्पष्ट थे, और जब तक वह सो नहीं गयी, मैं उन्हें नहीं समझ पाया था. वह बहुत गाया करती थी और ख़्वाबों में छोड़कर, मैं उसके गीतों को समझ नहीं पाता था. और वह खूबसूरत है ! खूबसूरत ! जिस पल मैनें उसे देखा, मेरे दिमाग से बादल छंट गए थे. मैं उसे झपटकर अपने घर ले आया और कहा था, "इसे प्रेम समझो." 

वह हँसी. सबसे अँधेरे समय में भी वह हँसी. 

मैं उसे उधार लिए हुए एक नाम से बुलाया करता था क्योंकि यह अधिक खूबसूरत है. जब मैं उसे चूमता था तो एक चुम्बन से दूसरे चुम्बन के बीच इतनी कामना से भरा हुआ होता था, कि ऐसा महसूस होता था यदि मैनें उसे चूमना बंद कर दिया तो उसे खो बैठूंगा. 

रेत और पानी के बीच में, उसने कहा था, "मैं तुमसे प्रेम करती हूँ."

और कामना और यातना के बीच में, मैनें कहा, "मैं तुमसे प्यार करता हूँ."

और जब एक अफसर ने उससे पूछा कि वह यहाँ क्या कर रही थी, उसने जवाब दिया, "तुम कौन हो ?" और उसने कहा, "और तुम कौन हो ?"

वह बोली, "मैं उसकी प्रेमिका हूँ, हरामजादे, और मैं इस कैदखाने के फाटक तक उसे विदा करने उसके साथ आयी हूँ. तुम उससे क्या चाहते हो ?'   

वह बोला, "तुम्हें पता होना चाहिए कि मैं एक अफसर हूँ."

"अगले साल मैं भी एक अफसर हो जाऊंगी," उसने कहा. 

उसने फ़ौज में दाखिले के अपने कागजात निकाले. तब अफसर मुस्कराया, और मुझे कैदखाने की तरफ खींच ले गया. 

अगले साल [1967] जंग भड़क उठी, और मुझे फिर से जेल में डाल दिया गया. मुझे उसकी याद आयी : "वह इस समय क्या कर रही होगी ?" वह नाबलुस में हो सकती है, या किसी और शहर में, बाक़ी विजेताओं की तरह हल्की रायफल लिए हुए, और शायद इस क्षण कुछ लोगों को अपने हाथ ऊपर उठाने या जमीन पर झुकने का हुक्म दे रही हो. या शायद वह, अपनी ही उम्र की और अपने ही जैसी खूबसूरत, किसी अरबी लड़की से पूछताछ और यंत्रणा की प्रभारी हो. 

उसने खुदाहाफिज नहीं कहा था. 

और तुमने नहीं कहा : "जाओ, और वापस आना."

तुमने उसे धुंआ उड़ाना सिखाया, और उसने तुम्हें धुंए की सोहबत सिखा दी. 
                              * *

  

नए साल के दिन आप क्या करते हैं ?

आप किसी दोस्त को भेजने के लिए एक खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड की तलाश में सड़क पर जाते हैं, और आपके हाथ क्या लगता है ? गुलाब की एक भी तस्वीर नहीं, समुन्दर के किनारे, पक्षी, या किसी स्त्री का कोई रेखाचित्र नहीं. टैंक, तोप, लड़ाकू विमान, रोती हुई दीवार, अधिगृहीत कस्बों, और स्वेज नहर की खातिर जगह बनाने के लिए ये सभी गायब हो गए हैं. और जब आप जैतून की एक टहनी को मौक़ा देने के लिए सोचते हैं, तो आप इसे फ्रांस में बने  एक लड़ाकू जेट के डैनों पर बना पाते हैं. 

जब आप एक खूबसूरत लड़की को देखते हैं, तो उसे पूरी तरह हथियारबंद पाते हैं. और जब आपकी निगाह किसी शहर पर पड़ती है, आप पृष्ठभूमि में किसी फौजी के बूट पाते हैं. आपका दिल डूब जाता है. कुछ नहीं बचा, सिवाय इसके कि इन रंग-बिरंगे छुट्टियों के कार्डों, जिन्हें ऐतिहासिक पुनर्जन्म की खुशी में यहूदियों को दुनिया भर में भेजा जाना है, की तरफ बढ़े हजारों हाथों को जगह देने के लिए,  भीड़ भारी सड़क के एक कोने में सिमट जाया जाए. मगर आप अपने दोस्तों को कुछ नहीं भेजते सिवाय अपने दिल की खामोशी के, जो अपने गंतव्य तक नहीं पहुंचती.  

सड़क पर यह मेले जैसा माहौल आपको आश्चर्य में डाल देता है. रोशनी आप पर उसी तरह उतरती है जैसे तब, जब आप एक अंधेरी कोठरी से बाहर आए थे, और जैसे यह पूरी तरह हथियारों से लैस बच्चों / फाख्तों के झुण्ड पर उतरती है. खिलौने हथियार हैं. और खुशी भी एक हथियार है. 

और आप ? आपके बचपन या जवानी में और कुछ नहीं है सिवाय लकड़ी के एक घोड़े के. 
                              * *   

(अनुवाद : मनोज पटेल) 
Mahmoud Darwish, Journal of an Ordinary Grief in Hindi 

Thursday, March 10, 2011

महमूद दरवेश पर जोसे सारामागो


महान पुर्तगाली उपन्यासकार जोसे सारामागो ने फिलिस्तीनी अवाम की आवाज़ महमूद दरवेश की प्रथम पुण्यतिथि के पूर्व, उन्हें याद करते हुए यह आत्मीय गद्य अपने ब्लॉग के लिए लिखा था. साथ में पढ़िए महमूद दरवेश की एक कविता.  













महमूद दरवेश : जोसे सारामागो 

आने वाली 9 अगस्त को महान फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश की प्रथम पुण्यतिथि होगी. यदि हमारी दुनिया थोड़ा और संवेदनशील और समझदार होती, और अपने द्वारा पैदा किए जाने वाले लोगों की जिंदगियों की लगभग उत्कृष्ट महत्ता के प्रति थोड़ा और जागरूक होती, तो उनका नाम उतना ही प्रसिद्द और प्रशंसित होता, जितना कि उदाहरण के लिए, अपने जीते जी पाब्लो नेरुदा का था. फिलिस्तीनी जनता के कष्ट और उनकी शाश्वत अभिलाषा से उपजी, दरवेश की कविताओं में एक सुघड़ सुन्दरता है जो अक्सर हमें चंद साधारण से शब्दों के सहारे अनिर्वचनीय गूढ़ क्षणों में ला छोडती है, ठीक किसी डायरी की तरह, जहां कोई भी व्यक्ति कदम दर कदम, आंसू की बूँद दर बूँद, ऐसे लोगों की दुर्गति का - साथ ही गहरे, किन्तु दुर्लभ खुशी के क्षणों का भी - सुराग पा सकता है जो पिछले साठ सालों से एक यंत्रणा से होकर गुजरे हैं, और जिसका अभी तक कोई अंत नजर नहीं आता. महमूद दरवेश को पढ़ना एक अविस्मर्णीय कलात्मक अनुभव के साथ-साथ, अपमान और अन्याय की टूटी-फूटी सड़कों पर होते हुए फिलिस्तीनी भू-भाग की किंचित कष्टसाध्य यात्रा के लिए निकलना भी है, जिसने इजरायल के हाथों बेरहमी से कष्ट सहा है.  इजरायल यहाँ एक जल्लाद की भूमिका में है, जैसा कि इजरायली लेखक डेविड ग्रासमैन ने कहा है, निर्णायक क्षणों में किसी भी तरह की संवेदना से नितांत अजनबी.   

महमूद दरवेश की पुण्यतिथि पर रामल्ला में फिल्माए जाने वाले एक वृत्तचित्र के लिए, मैनें आज पुस्तकालय में उनकी कविताएँ पढीं. मुझे वहां जाकर इन कविताओं को पढने के लिए निमंत्रित किया गया है, लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि मेरे लिए इतनी लम्बी यात्रा करना मुमकिन हो पाएगा या नहीं, ऎसी यात्रा जो निश्चित रूप से इजरायली पुलिस को पसंद नहीं आएगी. वहां पहुँचने पर मैं वे स्थान याद करूंगा जहां यह सब घटित हुआ था :  वह जगह जहां सात साल पहले हमने अत्यंत आत्मीयता से एक-दूसरे को गले से लगा लिया था ; वे बातें जो हमने एक-दूसरे से कीं और जिन्हें अब हम कभी दुहरा नहीं पाएंगे. कभी-कभी ज़िंदगी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक हाथ बढ़ाती है. महमूद दरवेश के साथ मेरी मुलाक़ात में ऐसा ही कुछ था. 
                                                                      * * * *












कविता 

रुक गई है आखिरी रेलगाड़ी  : महमूद दरवेश 

आख़िरी रेलगाड़ी रुक गई है आखिरी प्लेटफार्म पर. गुलाब बचाने के लिए 
वहां कोई नहीं है, कोई फाख्ते नहीं लफ़्ज़ों से बनी औरत पर उतरने के लिए.
ख़त्म हो चला है वक़्त. झाग से ज्यादा मौजूं नहीं रह गई है कविता. 
ज्यादा ईमान न लाओ हमारी रेलगाड़ियों पर मेरी जान. मत करो भीड़ में किसी का इंतज़ार. 
आखिरी रेलगाड़ी रुक गई है आखिरी प्लेटफार्म पर. लेकिन रात के आईने में 
नर्गिस की झलक कोई नहीं दिखा सकता. 
कहाँ लिख सकता हूँ मैं अपनी देंह के अवतार की ताजा दास्ताँ ?
यह ख़ात्मा है उसका जिसे होना ही था ख़त्म ! कहाँ है वह जो ख़त्म हो जाता है ? 
कहाँ आज़ाद कर सकता हूँ खुद को अपनी देंह में मौजूद अपने वतन से ? 
ज्यादा ईमान न लाओ हमारी रेलगाड़ियों पर मेरी जान. उड़ गया है आखिरी फाख्ता भी. 
आख़िरी रेलगाड़ी रुक गई है आखिरी प्लेटफार्म पर. और वहां कोई नहीं था. 


(अनुवाद : मनोज पटेल)
Jose Saramago on Mahmoud Darwish 

Monday, February 7, 2011

शकीरा पर मार्केज : जादूगरनी पर एक जादुई यथार्थवादी

(ज्यादातर लेखकों में किसी लोकप्रिय विधा या लोकप्रिय कलाकार पर लिखते हुए एक किस्म का संकोच ही होता है. लोकप्रिय होना अगंभीर और अछूत माना जाता है. इस लेख का महत्त्व इसलिए ही है कि मार्केज जैसे पाए के लेखक ने अपने से बहुत कम उम्र की हमवतन  पॉप गायिका शकीरा पर कलम चलाई है. मार्केज और शकीरा कोलंबिया के दो सबसे मशहूर लोगों में हैं. लेख आज से करीब नौ साल पुराना है और अन्य बहुत सी जगहों के साथ-साथ 8 जून 2002 के गार्जियन में प्रकाशित हुआ था.)


शायर और शहजादी 

शकीरा ने 1 फरवरी को मियामी से ब्यूनस आयर्स के लिए उड़ान भरी. उसका पीछा एक पत्रकार कर रहा था जो उससे एक रेडियो कार्यक्रम के लिए फोन पर सिर्फ एक सवाल पूछना चाहता था. तमाम वजहों से वह अगले 27 दिनों तक उससे संपर्क स्थापित करने में नाकाम रहा, फिर मार्च के पहले हफ्ते में वह स्पेन में उसका पता भी न लगा सका. उसके पास कुलजमा एक कहानी का आइडिया और उसके लिए एक शीर्षक था, "जब कोई उसे न ढूंढ़ पाए उस वक्त शकीरा क्या कर रही होती है ?" शकीरा हँसते-हँसते दोहरी हो उठी, डायरी हाथ में लिए हुए वह कहती है, "मजे कर रही होती हूँ मैं." 

शकीरा पहली फरवरी की शाम को ब्यूनस आयर्स पहुंची थी, और अगले दिन आधी रात तक काम करती रही ; आज उसका जन्मदिन था लेकिन इसे मनाने का उसके पास मौक़ा नहीं था. बुधवार को उसने वापस मियामी का रुख किया, जहां उसने एक बड़े प्रचार अभियान के लिए तस्वीरें उतरवाईं और कुछ घंटे अपने नए एल्बम के अंग्रेजी संस्करण की रिकार्डिंग में खर्च किए. शुक्रवार दो बजे दोपहर से वह शनिवार की सुबह तक रिकार्डिंग कराती रही, तीन घंटे सोई और फिर वापस स्टूडियो पहुँच गई जहां वह दोपहर के तीन बजे तक काम करती रही. उस रात, वह कुछ घंटे सोई और रविवार को तड़के ही लीमा की उड़ान में सवार हो गई. सोमवार की दोपहर वह एक लाइव टेलीविजन शो में नजर आई; चार बजे एक टेलीविजन विज्ञापन के लिए उसका फिल्मांकन हुआ, शाम को वह अपने प्रचारकों द्वारा दी गई एक दावत में शामिल हुई, और सुबह तक रुकी रह गई. अगले दिन 9 फरवरी को उसने सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक, आधे-आधे घंटे के 11 इंटरव्यू रेडियो, टेलीविजन और अखबारों को दिए. बीच में उसने दोपहर के खाने के लिए बस एक घंटे का अवकाश लिया था. उसे वापस मियामी में होना था लेकिन आखिरी  क्षणों में बोगोटा में एक घंटे का ठहराव आयोजित कर लिया जहां वह भूकंप पीड़ितों को दिलासा देने पहुंची.   

 उस रात, किसी तरह उसने मियामी की आखिरी उड़ान पकड़ने का बंदोबस्त किया जहां उसने चार दिन स्पेन और पेरिस के संगीत कार्यक्रमों की तैयारी में खर्च किए. ग्लोरिया एस्टीफन के साथ उसने शनिवार को दोपहर के खाने के समय से रविवार को सुबह 4:30 बजे तक अपने एल्बमों के अंग्रेजी संस्करण पर काम किया. सुबह होने पर वह अपने घर गई, एक काफी के साथ एक ब्रेड खाकर वह पूरे कपड़ों में ही सो गई. डेढ़ घंटे बाद उसे रेडियो इंटरव्यू की एक श्रृंखला के लिए जागना था. मंगलवार 16 तारीख को वह कोस्टा रिका के एक लाइव टी वी शो में नजर आई. बृहस्पतिवार को उसने मियामी और फिर कराकस के लिए उड़ान भारी जहां उसे टेलीविजन शो सेंसेशनल सेटरडे में भाग लेना था. 

वह बमुश्किल सो पाई - 21 को उसे ग्रेमी समारोह में शिरकत करने के लिए वेनजुएला से लॉस एंजिल्स की उड़ान भरनी थी. उसने पुरस्कार विजेताओं में से एक होने की उम्मीद लगाई थी मगर सभी मुख्य पुरस्कार अमेरिकी ही झटक ले गए. इतने पर भी उसकी रफ़्तार कम नहीं हुई : 25 को उसने स्पेन के लिए उड़ान भरी, जहां उसने 27 और 28 फरवरी को काम किया. 1 मार्च तक, जब वह किसी तरह मेड्रिड के एक होटल में पूरी रात सोने का वक़्त निकाल पाई, वह किसी पेशेवर विमान परिचारिका जितना हवाई सफ़र तय कर चुकी थी - एक महीने में 40000 किलोमीटर से भी ज्यादा.

ठोस धरातल पर शकीरा का काम इससे कम की मांग भी नहीं करता. उसके साथ सफ़र करने वाली टीम, जिसमें संगीतकार, लाईट टेक्नीशियन, मंच सहायक और साउंड इंजीनियर आदि होते हैं, किसी सैन्य टुकड़ी जैसी दिखती है. वह हर चीज पर खुद ही नजर रखती है. वह संगीत पढ़ती नहीं है, मगर उसकी अचूक आवाज़ और सम्पूर्ण ध्यान उसे और उसके संगीतकारों को हर स्वर ठीक-ठीक समझने की इजाजत देते हैं. वह अपनी टीम के सभी सदस्यों का व्यक्तिगत ध्यान रखती है. कभी-कभार ही वह अपनी थकान जाहिर होने देती है, लेकिन इससे आप कुछ और न समझें. 40 कार्यक्रमों वाले अर्जेंटीना के एक दौरे के आखिरी कुछ दिनों एक सहायक उसे बस में चढ़ने में मदद करने के लिए इंतज़ार कर रहा हो सकता है. वह अक्सर घबराहट और त्वचा संक्रमण की वजह से जलन आदि से बीमार हो जाती है.   

एमिलो एस्टीफन और उसकी बीवी ग्लोरिया के सहयोग से जारी होने वाले व्हेयर आर द थीव्स  एल्बम के अंग्रेजी संस्करण की विकट तैयारियों से हालात और भी संगीन हो गए. इसमें शकीरा अपनी ज़िंदगी के सबसे कठिन दबाव से होकर गुजरी : वह कामचलाऊ अंग्रेजी बोल लेती है, लेकिन उसने अपने उच्चारण पर बहुत मेहनत की, उसे ऎसी धुन सवार हुई कि वह अक्सर रात में सोते हुए अंग्रेजी बोला करती. अमेरिका में अपने प्रथम प्रदर्शन से पहले वाली रात उसे बुखार हो गया और वह सो नहीं पाई, "यह सोचकर कि मैं कुछ कर नहीं पाऊंगी मैं पूरी रात रोती रही." 

बरान्किला कोलंबिया के सोनार विलियम मेबारक और उनकी पत्नी नीडिया रिपोल्ल की इकलौती बेटी शकीरा का जन्म अरब वंश परम्परा वाले एक कलाप्रेमी परिवार में हुआ था. उसकी अकालपक्वता का ही नतीजा था कि उसने शुरुआती कुछ ही सालों में इतना कुछ सीख लिया जितना कि लोगबाग दशकों में सीख पाते हैं. 17 महीनों में ही वह अक्षरों का उच्चारण करने लगी थी; 3 साल में उसने गिनती सीख ली थी; चार साल की उम्र में वह अपने बरान्किला कान्वेंट स्कूल में बेले डांस करने लगी थी. इस स्कूल में 1930 के दशक में एक विलासी स्टाफ सदस्य ने शिरला टेम्पल पंथ का एक स्मारक खड़ा करवाना चाहा था. सात साल की उम्र तक शकीरा ने अपना पहला गाना लिख डाला था. आठ की होते-होते उसने कवितायेँ लिखना और दस की उम्र में उसने अपने मौलिक गीत लिखना और संगीतबद्ध करना शुरू कर दिया. इसी समय उसने अटलांटिक तट पर स्थित एल सेरेजान कोयला खदान के मजदूरों के मनोरंजन करने के अपने पहले अनुबंध पर दस्तखत किए. उसने अपनी माध्यमिक शिक्षा भी नहीं शुरू की थी जब एक रिकार्ड कम्पनी ने उसे साइन किया.   

   "मैं हमेशा से जानती थी कि मैं अत्यधिक रचनात्मक हूँ," वह बताती है, "मैनें प्रेम कवितायेँ कहीं, कहानियां लिखीं और गणित को छोड़कर हमेशा हर विषय में अच्छे नंबर लाकर दिखाए." जब उसके मम्मी-पापा के दोस्त उसके घर आते और उससे कुछ गाने के लिए कहते तो उसे अच्छा नहीं लगता था. "मुझे 30000 लोगों की भीड़ बेहतर लगती बनिस्बत कि पांच बुजुर्ग मुझे गाना गाते और गिटार बजाते सुन रहे हों." वह कमजोर लगती है, लेकिन उसे हमेशा यह पक्का पता था कि उसे विश्वप्रसिद्ध होना है. उसे यह नहीं मालुम था कि कैसे या किस चीज के लिए लेकिन इस बारे में उसे कभी तनिक भी संदेह नहीं रहा. यह तो उसकी नियति थी. 

आज उसके सपने सच से भी ज्यादा साबित हुए हैं. शकीरा का संगीत किसी और की तरह नहीं लगता और उसने एक तरह की मासूम ऐंद्रिकता का अपना ख़ास ब्रांड ईजाद किया है. "अगर मैं न गाऊँ तो मैं मर जाऊंगा", एक ऎसी बात है जो अक्सर हल्के में कह दी जाती है, लेकिन शकीरा के मामले में यह सच है : जब वह गा नहीं रही होती है तो बमुश्किल ही ज़िंदा होती है. आंतरिक शान्ति उसे भीड़ में भी अकेला होने की अपनी काबिलियत की वजह से हासिल होती है. वह कभी मंच-भय का शिकार नहीं हुई : वह महज मंच पर न होने से डरती है. "वहां मुझे वैसा ही लगता है", वह कहती है "जैसे जंगल में कोई शेर." यही वह जगह है जहां कि वह सचमुच अपने वास्तविक स्वरुप में आ सकती है.       

  भीड़ के भय से मुकाबला करने से बचने के लिए बहुत से गायक मंच से परे जगमग रोशनियों की तरफ देखा करते हैं. शकीरा इसका ठीक उलटा करती है, अपने सहायकों से वह कहती है कि वे सबसे जोरदार लाईट श्रोताओं की तरफ घुमा दें, ताकि वह उन्हें देख सके. "इससे पूरा संवाद होता है," वह बताती है. वह अनाम, अनुनमेय भीड़ को अपनी मर्जी और प्रेरणा के हिसाब से ढाल सकती है. "जब मैं लोगों के सामने गा रही होती हूँ तो उनकी आँखों में देखना पसंद करती हूँ." कभी-कभी दर्शकों को देखते हुए उसे कुछ ऐसे चेहरे नजर आते हैं जो उसने पहले कभी नहीं देखे, मगर उन्हें वह पुराने दोस्त के बतौर जानती होती है. एक बार उसने एक ऐसे शख्स को देखा जो सालों पहले मर चुका था. एक और समय उसे लगा कि कोई उसे किसी और जन्म से देख रहा है. "मैं पूरी रात उसके लिए गाती रही," वह कहती है. ऐसे चमत्कार बहुत से महान कलाकारों के लिए प्रेरणा - और अक्सर बर्बादी - का कारण रहे हैं.    

 शकीरा के बारे में सबसे विस्मयकारी बात है अधिकाँश बच्चों का उसकी दीवानगी में जकड़ जाना. 1996 में जब उसका एल्बम पायस डेस्कैल्जोस जारी हुआ, उसके प्रचारकों ने कैरेबियाई द्वीपों के लोक समारोहों के मध्यांतर के दौरान उसका प्रचार करने का फैसला किया. मगर जब बच्चों ने संगीत के साथ नाचते-गाते हुए यह मांग करना शुरू कर दिया कि वे पूरी शाम सिर्फ और सिर्फ शकीरा को ही सुनना चाहते हैं, तो उन्हें अपना रुख बदलना पड़ा. आज यह विषय शोध प्रबंध के लायक है. शकीरा की ही तरह के कपड़े, बातचीत और गाने गाते हुए, हर सामाजिक वर्ग के प्राथमिक स्कूलों की सभी बच्चियां उसकी प्रतिरूप बन चुकी हैं. छः वर्षीय लडकियां उसकी सबसे समर्पित प्रशंसक हैं.  

अवैध तरीके से तैयार किए गए एल्बम अवकाश के समय अदले-बदले जाते हैं और सस्ती दरों पर बेंचे जाते हैं. उसकी मालाओं, बालियों और बालों में लगाने के सामानों की नकलें दुकानों पर आते ही बिक जाते हैं. बाजार थोक के भाव लड़कियों को हेयर डाई बेंचता है ताकि वे शकीरा की नवीनतम शैली के अनुसार अपना रूप बदल सकें. वह लड़की जो सबसे पहले उसका नवीनतम एल्बम पा जाती है स्कूल की सबसे लोकप्रिय लड़की बन जाती है. सबसे अच्छी उपस्थिति वाले अध्ययन समूह वे होते हैं जो स्कूल के बाद लड़कियों के हास्टल में जुटते हैं - वहां होमवर्क पर एक सरसरी नजर डाली जाएगी, फिर कुछ हल्ला-गुल्ला मचेगा. जन्मदिन पार्टियां तमाम छोटी शकीराओं का बटोर होती हैं, सिर्फ उसी की धुन पर नाचते-गाते हुए बच्चे. सबसे खालिस दायरों में - और ऐसे बहुत से दायरे हैं - लड़कों को आमंत्रित नहीं किया जाता. 

अपनी असाधारण संगीत प्रतिभा और बाजार बोध के बावजूद शकीरा को यह मुकाम न हासिल होता यदि उसमें बेजोड़ परिपक्वता न होती. यह समझना बहुत मुश्किल है कि ऎसी अद्भुत रचनात्मक ऊर्जा ऎसी किसी लड़की में कैसे मौजूद हो सकती है जो रोज अपने बालों का रंग बदलती हो : कल काला, आज लाल और फिर कल हरा. वह अपने से अधिक उम्र की तमाम देवियों से ज्यादा पुरस्कार, ट्राफी और मानद उपाधियाँ पहले ही जीत चुकी है. आप कह सकते हैं कि वो ठीक वहीं है जहां कि वह चाहती है : बुद्धिमान, असुरक्षित, संकोची, प्यारी, अस्पष्ट, भावुक. अपने पेशे में शिखर पर होने के बावजूद वह बस बारान्किला की एक लड़की ही है; वह जहां कहीं भी रहे, मछली के अण्डों और मैनियोक की रोटी के लिए तरसती रहेगी. वह अभी तक अपने सपनों का घर खरीदने का बंदोबस्त नहीं कर पाई है, समुद्र तट पर एक शांत गुप्त स्थान, ऊंची छतों वाला और दो घोड़ों के साथ सुसज्जित. उसे किताबों से प्रेम है, वह उन्हें खरीदती और संजोती है, लेकिन उन्हें पढ़ने के लिए उसे उतना समय नहीं मिल पाता जितना कि वह चाहती है. वह हवाईअड्डों पर त्वरित विदाई के बाद पीछे छूट गए दोस्तों को याद तो करती है मगर उसे यह भी पता होता है कि उनसे फिर मिलना इतना आसान न होगा.    

   अपने द्वारा कमाए गए पैसों के बारे में, वह बताती है "यह उससे ज्यादा है जितना कि मैं क़ुबूल करती हूँ, लेकिन उससे कम जितना कि लोग सोचते हैं." संगीत सुनने की उसकी सबसे पसंदीदा जगह कार के भीतर है, जोर से बजता हुआ और शीशे पूरे चढ़े हुए ताकि किसी और को इससे दिक्कत न हो. "यह ईश्वर से बात करने के लिए सबसे आदर्श जगह है, खुद से बात करने और समझने की कोशिश करने के लिए भी." वह टेलीविजन से नफरत करती है. उसके अनुसार उसका सबसे बड़ा विरोधाभास अनंत जीवन में उसका विश्वास और मौत से उसका असहनीय डर है. 

वह बिना किसी बात को दोहराए एक दिन में 40 इंटरव्यू देने के लिए जानी जाती रही है. उसके पास कला, इस जीवन और अगले जीवन, ईश्वर के अस्तित्व, प्रेम और मृत्यु के बारे में अपने मौलिक विचार हैं. लेकिन उसके साक्षात्कारकर्ताओं और प्रचारकों ने उससे इन विचारों को स्पष्ट करवाने में इतनी मेहनत की है कि अब वह टाल-मटोल की विशेषज्ञ बन चुकी है, ऐसे जवाब देते हुए जो जाहिर करने के लिए कम और छुपाने के लिए ज्यादा उल्लेखनीय होते हैं. वह ऎसी किसी भी धारणा को खारिज करती है कि उसकी प्रसिद्धि अस्थायी है और ऎसी अटकलबाजी पर उत्तेजित हो उठती है कि अत्यधिक प्रयोग उसकी आवाज को नुकसान पहुंचा सकते हैं. "दिन की चमकीली धूप में, मैं सूर्यास्त के बारे में नहीं सोचना चाहती." हर हाल में, विशेषज्ञों का मानना है कि यह असम्भाव्य है क्योंकि उसकी आवाज में एक सहज प्राकृतिक विस्तार है जिसमें उसके अतिरेकों को बर्दाश्त करने की क्षमता है. बुखार से पीड़ित होते हुए भी उसे गाना पड़ा है ; वह अत्यधिक मेहनत और थकान से होकर भी गुजरी है ; लेकिन इस सबसे उसकी आवाज़ कभी प्रभावित नहीं हुई. "किसी गायक के लिए सबसे बड़ी निराशा," हमारे साक्षात्कार के आखिर में वह बेसब्री से कहती है, "यह है कि संगीत को अपना कैरियर चुनना और फिर सिर्फ इसलिए संगीत में कुछ न कर पाना क्यूंकि आप हमेशा इंटरव्यू ही दे रहे होते हैं."        

   उसका सबसे अनिश्चित विषय प्रेम है. वह इसको ऊंचा दर्जा देती है, इसका आदर्शीकरण करती है, यह उसके गीतों के पीछे की ताकत है मगर बातचीत में वह मजाक में इसकी व्याख्या करती है. "सच तो यह है," वह हँसते हुए कहती है "मैं मरने से भी ज्यादा शादी से डरती हूँ." उसके चार पुरुषमित्र रह चुके बताए जाते हैं और वह चिढ़ाने के अंदाज में स्वीकार करती है कि तीन और भी हैं जिनके बारे में कोई नहीं जानता. यह सभी उसी की उम्र के रहे हैं मगर उसके जितना परिपक्व कोई भी नहीं था. शकीरा उनका जिक्र प्यार से करती है, बिना दर्द के; जैसे उसके लिए वे अल्पायु भूत रहे हों जिन्हें उसने अपनी आलमारी में टांग रखा है. खुशकिस्मती से, हताश होने की कोई जरूरत नहीं है : अगली 2 फरवरी को, कुम्भ राशि में, शकीरा सिर्फ 26 साल की होगी.

(अनुवाद : मनोज पटेल)   
Gabriel Garcia Marquez on Shakira 

Friday, February 4, 2011

ओरहान पामुक : मैं स्कूल नहीं जाऊंगी


ओरहान पामुक के कथेतर गद्य संग्रह अदर कलर्स से कई टुकड़े आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. यहाँ प्रस्तुत मेरा यह अनुवाद पिछली 30 जनवरी को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ था, सोचा आपके साथ साझा करूँ. एक बेटी रुया के पिता ओरहान पामुक ने यह और अन्य काव्यात्मक रेखाचित्र एक पत्रिका Okuz (Ox) के लिए साप्ताहिक स्तम्भ के रूप में 1996 से 1999 के बीच लिखे थे. उनके अनुसार ऐसे ज्यादातर लेख एक ही बैठक में लिखे गए और इनमें मुझे अपनी बेटी और अपने दोस्तों के बारे में लिखते हुए बहुत मजा आया. यह दुनिया को शब्दों के माध्यम से देखने का उनका ख़ास तरीका था.   
तस्वीर मेरी बेटी लिपि की है, जब वह पहले दिन स्कूल जा रही थी और अभी उसे यह नहीं पता था कि हम उसे स्कूल में छोड़ के वापस आ जाने वाले हैं. - मनोज 

मैं स्कूल नहीं जाऊंगी 
मैं स्कूल नहीं जाने वाली. क्यूंकि निन्नी आ रही है मुझे. सर्दी लग गई है. स्कूल में मुझे कोई पसंद नहीं करता. 
मैं स्कूल नहीं जाने वाली. क्यूंकि दो बच्चे हैं वहां. मुझसे इत्ते बड़े. मुझसे ताकतवर. जब उनके बगल से गुजरती हूँ तो बाहें फैलाकर रास्ता रोक लेते हैं वे मेरा. डर लगता है मुझे. 
डर लगता है मुझे. मैं स्कूल नहीं जाने वाली. स्कूल में, वक़्त तो बस ठहर जाता है. सब कुछ छूट जाता है बाहर. स्कूल के गेट के बाहर. 
मिसाल के तौर पर घर का मेरा कमरा. मेरी मम्मी भी, और पापा, खिलौने मेरे. और बालकनी पर वो परिंदे. जब स्कूल में होती हूँ और उनके बारे में सोचती हूँ तो रोना आ जाता है मुझे. बाहर देखने लगती हूँ खिडकी से, वहां बादल होते हैं न. 
मैं स्कूल नहीं जाने वाली. क्यूंकि वहां कुछ भी अच्छा नहीं लगता मुझे. 
उस दिन एक पेड़ की तस्वीर बनाई थी मैनें. टीचर ने कहा, "यह सचमुच एक पेड़ ही है, बहुत अच्छे." मैनें फिर एक दूसरी बनाई. इसमें भी कोई पत्तियाँ नहीं थीं. 
फिर उन्हीं में से एक बच्चा मेरे पास आया और मेरा मजाक उड़ाने लगा. 
मैं स्कूल नहीं जाने वाली. रात को सोते समय जब अगले दिन स्कूल जाने के बारे में सोचती हूँ तो दहशत होती है बहुत. मैं कहती हूँ, "मैं स्कूल नहीं जाने वाली." वे बोलते हैं, "ऐसा कैसे कह सकती हो तुम ? स्कूल तो सभी लोग जाते हैं."
सभी लोग ? तो फिर जाने दो न सभी को. आखिर क्या हो जाएगा जो मैं घर पर ही रुक जाऊं ? कल गई थी न मैं, नहीं क्या ? कैसा रहेगा अगर मैं कल न जाऊं, और फिर उसके अगले दिन चली जाऊं ?
काश मैं घर पर होती अपने बिस्तर पर. या अपने कमरे में. काश कि मैं और कहीं भी होती सिवाय उस स्कूल के. 
मैं स्कूल नहीं जाने वाली, बीमार हूँ मैं. दिख नहीं रहा आपको ? जैसे ही कोई कहता है स्कूल  मैं बीमार हो जाती हूँ, पेट दर्द करने लगता है मेरा. वो दूध भी नहीं पीया जाता मुझसे. 
वह दूध नहीं पीना मुझे, मुझे कुछ नहीं खाना, और न ही स्कूल जाने वाली हूँ मैं. कितनी परेशान हो गई हूँ. मुझे कोई पसंद नहीं करता. वे दोनों बच्चे हैं वहां. बाहें फैलाकर रास्ता रोकते हैं वे मेरा. 
टीचर के पास गई थी मैं. टीचर ने कहा, "मेरे पीछे -पीछे क्यूं लगी हो ?" अगर आप नाराज न हों तो मैं आपको कुछ बताऊँ. मैं तो हमेशा टीचर के पीछे ही लगी रहती हूँ, और टीचर हमेशा यही बोलती रहती हैं कि "मेरे पीछे-पीछे न आओ."      
मैं स्कूल नहीं जाने वाली, कब्भी नहीं. क्यूं ? क्यूंकि मैं बस वहां जाना नहीं चाहती, इसीलिए और क्यूं. 
रेसेस के वक़्त मैं बाहर भी नहीं जाना चाहती. जब सब लोग मुझे भूल चुके होते हैं तभी रेसेस होता है. फिर सबकुछ एकदम से घाल-मेल हो जाता है, सभी भागने लगते हैं. 
टीचर मुझे घूर कर देखने लगती हैं, और बस इतना कहूंगी कि वे इतनी अच्छी नहीं लगतीं. मैं स्कूल नहीं जाना चाहती. वहां एक बच्चा है जो मुझे पसंद करता है, बस वही है जो मुझे अच्छे से देखता है. किसी से बताना मत,  लेकिन मुझे वह बच्चा भी नहीं पसंद. 
मैं बस वहां बैठी पड़ी रहती हूँ. कितना अकेलापन महसूस होता है मुझे. आंसू लुढ़कते रहते हैं मेरे गालों पर. मुझे स्कूल बिलकुल भी पसंद नहीं. 
मैं स्कूल नहीं जाना चाहती, कहती हूँ मैं. फिर सुबह हो जाती है और वे मुझे स्कूल ले जाते हैं. मैं हंस भी नहीं पाती. मैं अपने सामने एकदम सीधा देखती रहती हूँ, रोना आ जाता है मुझे. मैं अपनी पीठ पर फौजियों जितना बड़ा बस्ता लादे पहाड़ी पर चढ़ती हूँ, और निगाहें पहाड़ी चढ़ते हुए अपने नन्हें पैरों पर टिकाए रहती हूँ. कितना भारी है सबकुछ : मेरी पीठ पर लदा बस्ता, मेरे पेट में पड़ा गर्म दूध. रोना चाहती हूँ मैं. 
मैं स्कूल में दाखिल होती हूँ. लोहे का काला फाटक मेरे पीछे बंद होता है. मैं रो पड़ती हूँ, "मम्मी, देखो, तुमने मुझे भीतर लाकर छोड़ दिया."
फिर मैं अपनी कक्षा में जाकर बैठ जाती हूँ. बाहर उन बादलों में से कोई एक बादल हो जाना चाहती हूँ मैं.    
इरेजर्स, कापियां, और पेन : मुर्गियों को खिला दो यह सब ! 

(अनुवाद : मनोज पटेल)
Orhan Pamuk, Other Colours 

Monday, January 17, 2011

उदय प्रकाश की कहानी : अनावरण

अपने प्रिय कथाकार उदय प्रकाश की कहानी इस ब्लॉग पर लगाते हुए बहुत खुशी हो रही है. हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किए गए कवि, कथाकार, फिल्मकार उदय प्रकाश जी ने अद्भुत कहानियां लिखी हैं.  उनकी कहानी का प्रकाशित होना हिन्दी साहित्य की एक बड़ी घटना होती है. यहाँ प्रस्तुत कहानी अनावरण, 'अहा ज़िंदगी' के अक्टूबर 2004 अंक में प्रकाशित हुई थी और फिलहाल उनके किसी संग्रह में संकलित नहीं है. हम इसे प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए लेखक के बहुत-बहुत आभारी हैं.  

अनावरण 

वह मूर्ति बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की ही थी, जिसका अनावरण हमारे छोटे-से कस्बे के सबसे आलीशान रेलवे रोड के मुख्य चौराहे पर होना था. पुणे के मूर्तिकार. अनंतराव दत्ताराव पेंढे, जिनकी बनाई गणपति बप्पा मोरया की मूर्तियाँ मुम्बई तक में बिकती थीं और दुर्गापूजा के मौके पर महीना-दो महीना जो खप्पड़-धारिणी, जगत्तारिणी, महिषासुर मर्दिनी, अष्टभुजा मां शेरांवाली की मूर्तियाँ कोलकाता में अपने मौसेरे ससुर के घर डेरा डालकर बनाया करते थे, और जिसे 'आज तक' और 'जी' चैनल ने भी दिखाया था, उन्हीं दत्ताराव पेंढे ने कांसे की यह मूर्ति बनाई थी. 

कमाल की मूर्ति थी. कहते हैं पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बाबा साहब की ऎसी मूर्ति नहीं थी. उन्होंने कोट पहन रखा था, टाई लगा रखी थी, फुलपैंट और भारी-भरकम जूते थे. पैंट और कोट की सिलवटों में उनकी प्रतिभा की दृढ़ता और गरिमा थी. आँखों में गोल फ्रेम का चश्मा था, जिसके पार से उनकी आँखें कोई स्वप्न देख रही थीं. ......और अपनी एक भुजा उन्होंने उठा रखी थी. उठे हुए हाथ की मुट्ठी बंद थी, बस एक उंगली तनी हुई पूरब दिशा की ओर इशारा कर रही थी. उधर, जिधर रेलवे फाटक था, अस्पताल था, साईँ बाबा का मंदिर था, बालिका महाविद्यालय था और इस सबके बाद मुर्गा-मीट बाज़ार, सरकारी दारू का ठेका, मुसलमान बस्ती और झुग्गी-झोपड़ी बस्ती अर्थात आंबेडकर नगर था. 

उधर, जिधर मेकल की पहाड़ियों के पार से सूरज पिछले कई बरसों से बिना किसी ख़ास मकसद के निकलता चला आ रहा था. 

उस रोज, आधीरात जब बसपा के लोकल नेता बुचई प्रसाद, अफवाहों के मुताबिक़ जिनकी पहुँच सीधे लखनऊ और दिल्ली तक थी, उस मूर्ति के नीचे से निकल रहे थे, तो उनके कानों में एक फुसफुसाती हुई रहस्यपूर्ण आवाज़ कहीं से, आकाशवाणी की तरह, उड़ती हुई आई, ' पाछू मत देख.... मत देख पाछू, अगाड़ी देख...! उधर जिधर उंगली तनी है बे ! उधर देख ! पाछू कुच्छछ नहीं !'   

 बुचई प्रसाद असली देशी महुए के ठर्रे के नशे में थे. आजकल किक लगाने के लिए ठेके वाले पाउच में स्पिरिट और लैटीना के पत्ते और अटर-शटर मिलाने लगे थे. खोपड़ी टन्ना जाती थी और कदम ऐसे उठते थे जैसे हवा में देर तक तैर कर धरती पर अपना ठिकाना खोजते उतरते हों. आँखें एक बल्ब को तीन-चार जगमग बल्बों की तरह देखने लगती थीं. 

बुचई प्रसाद का दायाँ पैर, जो हवा में तैर रहा था, इस बार धरती के ठिकाने पर नहीं उतरा. बल्कि इसी बीच दूसरा पाँव भी अब तक के चले आ रहे सुर-ताल को बनाए रखने के लिए ऊपर उठ गया. बुचई प्रसाद, कोलतार की सड़क के बीचोंबीच, बाबा साहब की बारह फुट ऊंची मूर्ति के क़दमों के नीचे, चारों खाने चित्त गिर पड़े. उनकी आँखों से जो पानी अँधेरे में छलक रहा था, वह चोट लगने के कारण और सिर के पीछे गूमड़ निकल आने के फलस्वरूप बहने वाला मर्मान्तक आंसू नहीं था, बल्कि वह गहन, आदर्शवादी भावुकता का सिहरता हुआ जल था. सीधे आत्मा के अदृश्य सोते से निकल कर आँख से बहने वाला नीर. 

बुचई के दिमाग के भीतर कबीर दास का पद गूंज रहा था - 'ग्यान की जड़िया दई....! ग्यान की जड़िया दई.....!! सत्त गुरुजी ने... गियान की जड़िया दई. मेरे को दई !!!!' 

उन्हें उस रात, रेलवे रोड के उस तिराहे पर, बाबा साहेब की मूर्ति के नीचे, सड़क पर चारों खाने चित पड़े हुए, ज्ञान की दुर्लभ जड़ी प्राप्त हो गई थी. 'अगाड़ी देख, अगाड़ी...! पाछू कुच्छ नहीं....! ...कुच्छ भी नहीं...!!' 

ठीक इसी समय उनके बगल से पेट्रोल पंप वाला सेठ तरुण केडिया और उसके पीछे-पीछे उसका सामान उठाए सुदामा निकला. सुदामा कुली का काम करता था. तरुण केडिया उसी रहस्यपूर्ण फुसफुसाती आवाज में बोलता चला जा रहा था - 'अगाड़ी देख...! उधर, जिधर ट्यूब लाईट जल रही है, उसी के पास म्हारा अजन्ता लाज बनेगा !! थ्री स्टार ! समझा कि नहीं ?'         

'बुचई परसाद ने लगता है आज ज्यादा खैंच ली !' सुदामा सिर पर केडिया का सामान लादे उसके पीछे-पीछे चल रहा था. 

लेकिन बुचई जिस तुरीयावस्था में थे, उसमें उनके कान कुछ और सुनना बंद कर चुके थे. उन्होंने उस आधी रात अकस्मात ही मिली दुर्लभ ग्यान की जड़ी को दोनों हाथों की मुट्ठियों में भींचकर अपने सीने से लगा लिया और वहीं सड़क के बीचों-बीच खर्राटे मारने लगे. अगर कोई गौर से सुनता तो जान सकता था कि उनके खर्राटों में एक तरह की संयोजित लय थी. जैसे भप्पी लाहिड़ी या भूपेन हजारिका ने नाक और गले के नैसर्गिक स्वर यंत्रों की संगत से कोई 'सेमी फोक-अर्ध-शास्त्रीय' म्यूजिक कंपोज किया हो. थोड़ा-सा 'इंडी पॉप' का तड़का लगाकर. ..बुचई प्रसाद के खर्राटों की सांगीतिक लय में उस रात सारा कस्बा डूब गया था - 

'...सतगुरु जी... सतगुरु जी...! सत सत्त..गुरर्रर्रर्र्र्रर्र्र्र... गुरर्र्रर्र्र्रर्र्र...!! गुर्र्र्रर्र्ररूऊऊ  जी...S...S...S.. गुर्र्र्रर्र्ररू ऊऊऊ S..S...S.. जी...ई..ई ||  ||S  ||S  ||S  ||' 

दिसंबर का महीना था. कड़ाके की ठण्ड थी. इधर अभी ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की बावजूद जंगल बचे हुए थे, पास में ही बहने वाली छोटी-सी नदी अभी सूखी नहीं थी इसलिए 'एको-बैलेंस' अभी ज्यादा नहीं बिगड़ा था. ठण्ड उतनी ही पड़ती थी, जितनी पूस-माघ के महीने में पड़नी चाहिए.      

तो, दिसंबर की उस कड़कड़ाती रात में दत्ताराव पेंढे द्वारा निर्मित बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जिस कांसे की बारह फुट सवा चार इंच की मूर्ति के नीचे, सड़क पर बुचई प्रसाद ज्ञान की जड़ी को सीने में दबोचे, खर्राटों का संगीत उत्पन्न कर रहे थे, उसी मूर्ति का अनावरण अगले सप्ताह, गुरूवार 25 दिसंबर को, सुबह ग्यारह बजे राज्य के वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सि..श्वर पांडे के हाथों संपन्न होना था.   

    यह सुयोग इसलिए आसानी से बन गया था क्योंकि मंत्री जी जिस ट्रेन के वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, उससे उतर कर, इसी स्टेशन से उन्हें दूसरी ट्रेन में, उसी श्रेणी के डब्बे पर सवार होना था. दोनों गाड़ियों के बीच डेढ़ घंटे का अंतराल था. यानी, अगर देखें तो इस प्रकार हमारे छोटे से कस्बे लाजिमपुरवा में बाबा साहेब की मूर्ति का भव्य अनावरण समारोह मंत्री जी की राजनीतिक धारावाहिक यात्रा के बीच में आने वाले एक 'कामर्शियल ब्रेक' की तरह था. 

सारे कस्बे में चहल-पहल थी. हर जगह उसी मूर्ति, मंत्री और अनावरण की चर्चा थी. थाने में जिला मुख्यालय से अतिरिक्त फ़ोर्स का बंदोबस्त किया गया. नगरपालिका और लोक निर्माण विभाग सड़क के गड्ढों को ढांपने-मूंदने में लगे हुए थे. गुजरात से यहाँ आकर टिम्बर और क्रेशर का धंधा करने वाले रज्जू भाई शाह के बंगले में झंडे-बैनर का काम चल रहा था. जिस पार्टी के मंत्री जी थे, उसी पार्टी के वे जनपद अध्यक्ष थे. तरुण केडिया के पेट्रोल पंप में भी झंडे-झालर-हाथ जोड़े मुस्कुराते मंत्री जी के पोस्टर लग गए थे. भीड़ लाने के लिए बस, ट्रैक्टर और ट्रक के कोआर्दिनेशन का काम भी वही कर रहा था. बल्कि तरुण केडिया इस जुगाड़ में भी था कि अजंता होटल की साईट के पीछे खाली पड़ी नगरपालिका की जमीन को सस्ती लीज में लेकर वह एक बैंक्वेट हाल और एक अम्यूजमेंट पार्क का शिलान्यास लगे हाथ मंत्री से करा ले. कोल्ड स्टोरेज के मामले में रज्जू शाह पहले ही बाजी मार ले गए थे. नगरपालिका के अध्यक्ष अग्रवाल जी से बात हो गई थी, बस ज़रा 'ऊपर' के इशारे की जरूरत भर थी. मंत्री द्वारा शिलान्यास उस ऊपर के इशारे पर राजकीय प्रामाणिकता की मुहर ही होता. 

अनावरण की तारीख करीब आ रही थी. पूरा कस्बा स्पंदित, आंदोलित, धुकधुकायमान था. हर कोई अपनी-अपनी गोटियों के साथ अपने-अपने जुगाड़ में लगा हुआ था.       

   और आखिर 24 दिसंबर, बुधवार का दिन अवतरित हो गया. कल ठीक दस बजकर पचास मिनट पर गोंडवाना एक्सप्रेस पांच मिनट के लिए स्टेशन पर रुकेगी  और बाजे-गाजे, फूल-मालाओं में घिरे हुए, आधा दर्जन गैरजमानती वारंटों में कानूनी रूप से फरार, डकैती, हत्या, दंगे, ठगी, और आगजनी के बीसियों अपराधों में चार्जशीटेड, वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री सिद्धू भइया प्लेटफार्म पर अपने चरण रखेंगे. 

इसके ठीक दस मिनट बाद रेलवे रोड के चौराहे पर अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा बनाई गई बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की कांसे की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची मूर्ति के ऊपर लपेटा गया कपड़ा हटाया जाएगा और तालियों की गड़गड़ाहट, पटाखों के विस्फोट और आकाश तक को गुंजाते नारों के बीच सिद्धू भइया उर्फ़ सिद्धेश्वर पांडे बाबा साहेब के गले में माला डालेंगे. इसके बाद दोनों हाथों से सबको शांत रहने का इशारा करते हुए डिलाईट इलेक्ट्रिकल्स के माइक पर अपना भाषण बोलेंगे - 'भाइयों और बहनों, बाबा साहेब आंबेडकर हमारे देश के निर्माताओं में से एक थे. हमारे देश का क़ानून उन्हीं का बनाया हुआ है. हमें उन्हीं के बताए रास्ते पर चलना है. दलित भाइयों से मेरी ख़ास गुजारिश है कि वे इस बात को समझें कि आज बाबा साहेब का नाम एक चुंबक के माफिक हो गया है. बड़ा तगड़ा चुंबक. हर पार्टी इस चुंबक को अपने पास रखकर दलित भाइयों का वोट अपनी पेटी में खींचना चाहती है. कोई अपनी जात का वासता देता है कोई अपनी पांत का, लेकिन आप सब तो जानते ही हैं कि हमारी पार्टी ने और आपके इस सेवक सिद्धू भइया ने कभी जात-पांत, ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया है. सारी जनता बराबर है. मैं तो उन सारे नेताओं से पूछना चाहता हूँ, और वे अपनी-अपनी छाती पर हाथ रखकर बताएं कि क्या बाबा साहेब आंबेडकर के आदर्शों पर चलने की ईमानदारी उनमें से किसी में है ? है किसी में ? रही हमारी बात... तो इस पूरे इलाके में, इस पूरे जिले में भाई बुचई प्रसाद से ज्यादा बलिदानी, त्यागी, जुझारू समाजसेवक कोई हुआ है क्या ? उन्हीं के कहने से राज्य सरकार ने आज से आपके नगर की इस सबसे सुन्दर सड़क का नाम 'आंबेडकर मार्ग' कर दिया है और आपके नगर लाजिमपुरवा के युवा समाजकर्मी भाई तरुण केडिया ने, सभी बच्चों और परिवार जनों के मनोरंजन के लिए 'आंबेडकर पार्क' बनाने की पेशकश की है. मुम्बई के एसैल पार्क और दिल्ली के अप्पू घर का मुकाबला करने वाला यह पार्क बाबा साहेब आंबेडकर जी को ही समर्पित होगा. .... आईए.... !!! मैं अनुरोध करता हूँ कि हमारे जिले के गौरव बुचई प्रसाद आगे आएं और माइक पर आपसे दो शब्द कहें.    

बुचई प्रसाद की आँखें कहीं दूर खो गई थीं, तालियों का शोर थिरा गया था और कानों में गूँज रहा था -  'अगाड़ी देख....अगाड़ी ! पाछू कुच्छ नहीं...! कुच्छ भी नहीं !!!! 

वे अकेले तिराहे पर चुपचाप खड़े थे. उनकी उंगलियाँ जेब के भीतर रूपए टटोल रही थीं. कलारी के लिए कहीं कम तो नहीं पड़ेंगे ? 

लेकिन आज तो बुधवार था. मूर्ति का अनावरण तो अगले दिन यानी 25 दिसंबर, बृहस्पतिवार को होना था. 

गुलाबचंद क्लाथ हाउस, जहां 'पीटर इंग्लैण्ड' और 'कलर प्लस' की शर्ट और 'लेविस' जैसे ब्रांडों का डेनिम भी मिलता था, यहीं से 380 रुपया प्रति मीटर के रेट से कीमती पीले-बासंती रंग का उम्दा देशी रेशम का कपड़ा लिया गया, लाल रंग का रिबन और रज्जू शाह, तरुण केडिया, अग्रवाल जी, एस. पी. साहेब, स्थानीय कालेज के प्राचार्य सोनी जी, एस. एच. ओ., नगरपालिका अध्यक्ष एस. एन. सिंह आदि की गणमान्य उपस्थिति में पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं ने कपड़े को मूर्ति पर इस तरह लपेटा कि रिबन की एक गाँठ खींचते या काटते ही सारा आवरण नीचे सरक जाए और बाबा साहेब की मूर्ति धड़ाक से बाहर निकल आए. हालांकि, रेशम के कपड़े के रंग को लेकर बहुत गहरा विचार-विमर्श दो दिनों तक चला. नीले रंग के पक्ष में ज्यादातर गणमान्य थे, लेकिन नीले की हार के पीछे तीन मुख्य कारण थे. पहला तो यही कि इस रंग से एक दूसरी पार्टी के सम्बन्ध का संदेह पैदा होता था. दूसरा यह कि बासंती रंग इन दिनों कस्बे में फैशन में था, क्योंकि एक ही महीने में शहीदे आज़म भगत सिंह के जीवन के बारे में तीन-तीन मुम्बइया फ़िल्में कस्बे के दोनों टाकीजों में दिखाई गई थीं. बड़ा कंपटीशन हुआ था. 'मेरा रंग दे बसंती चोला...'. .....और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि गुलाब क्लाथ हाउस में रेशमी कपड़े में कोई और दूसरा रंग था ही नहीं.      

सारी तैयारी होते होते रात के एक बज गए. कलारी से लौटते हुए बुचई प्रसाद की नजर जब बाबा साहेब की मूर्ति की ओर उठी तो चंद्रमा की सुनहली किरणें बासंती-पीले रेशम पर छुपम-छुपाई और फिसलगड्डी का कौतुक भरा खेल खेल रही थीं. दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड थी. आकाश बिलकुल साफ़ गहरा नीला था, जिसमें तारे ठिठुरते हुए काँप रहे थे. 'आज, लगता है पाला गिरेगा.' बुचई प्रसाद ने सोचा. उन्होंने अपने कान गुलूबंद से ढांप रखे थे. वैसे महुए का अद्धा तो उन्होंने आज भी सूंट रखा था और जेब से धेला भी नहीं खर्च हुआ था क्योंकि कल अनावरण की तैयारी में जिन लोकल नेताओं को आज ठेकेदार की तरफ से छूट मिली हुई थी, उनमें वे भी शामिल थे. भांग दिमाग पर, गांजा आँख पर और दारू टांगों पर सवारी गाँठती है. लेकिन आज अगर बुचई प्रसाद के पैर लड़खड़ा नहीं रहे थे, तो इसकी वजह यह हो सकती थी कि महुए के ठर्रे में धतूर, स्पिरिट या लेंटीना के पत्तों की मिलावट नहीं थी.   


बुचई ने एक बार चलने के पहले फिर मूर्ति को आँख भर देखा. एक कोई देवदूत, पीताम्बर ओढ़े अनंत की ओर इशारा कर रहा था. बुचई प्रसाद की आँखें उसी दिशा की तरफ घूम गईं...जिधर केडिया का थ्री स्टार अजंता होटल और आंबेडकर पार्क बनना था. अनंत की ओर... लेकिन अनंत से बहुत पहले. 

और ठीक इसी समय वह संगीन आपराधिक वारदात घटित हुई.    

जब बुचई प्रसाद अनंत की ओर देख रहे थे और बाबा साहेब की मूर्ति पर से उनकी नजरें हटी थीं, उस समय ग्यारह बजकर अट्ठावन मिनट चालीस सैकंड हुए थे. क्योंकि बुचई प्रसाद पिछली रात घटी ग्यान की जड़ी वाली घटना के असर से अभी तक मुक्त नहीं हुए थे और उनके कानों में अभी भी कभी कभी वह फुसफुसाहट गूंजने लगती थी - 'अगाड़ी देख ! अगाड़ी...! पाछू कुच्छ्छ नहीं...!!' और क्योंकि उन्होंने आज भी अद्धा खींच रखा था और फिर आधी रात बासंती रेशम के कपड़े पर चंद्रमा की सुनहली किरणों की फिसलगड्डी का खेल वे कुछ पल पहले ही देख चुके थे, इसलिए वे अनंत की ओर लगभग दो मिनट तक देखते ही रह गए. 

और ये दो मिनट बहुत गंभीर, महत्वपूर्ण और हैरतअंगेज सिद्ध हुए. 

इन दो मिनटों में कुछ घटनाएं एक साथ घटीं. सबसे पहले तो यही कि हिन्दुस्तान की सारी घड़ियों और कैलेंडरों में एक साथ तारीख़ बदल गई. 24 की जगह 25 दिसंबर और बुधवार की जगह गुरूवार आ गया. 

और ठीक इन्हीं दो मिनटों के भीतर रेलवे स्टेशन की ओर से एक रहस्यभरी परछाईं बाबा साहेब की मूर्ति की ओर बढ़ी और उसने पता नहीं क्या किया कि अगले ही पल गुलाब क्लाथ सेंटर से 380 रूपए प्रतिमीटर खरीदा गया कीमती रेशम का बासंती कपड़ा बाबा साहेब की मूर्ति से उड़कर उसके पास आ गया और जब बुचई प्रसाद की दृष्टि अनंत से लौटकर वापस आई तो उन्होंने रेलवे रोड पर, पुलिस थाने की दिशा की ओर, दूर, उस पीतांबर को अँधेरे में भागते हुए देखा. 

क्या बाबा साहेब प्रस्थान कर गए ? बुचई प्रसाद ने अपनी आँखें मलीं. अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा निर्मित कांसे की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची वह विलक्षण मूर्ति अपनी जगह पर खड़ी थी. हालांकि बाबा साहेब की भुजा अब भी आगे की ओर उँगलियों से इशारा कर रही थी, लेकिन अनहोनी तो उनके पीछे घटित हुई थी. अब 'अगाड़ी' नहीं 'पिछाडी' देखने का वक़्त था, उधर जिधर पीतांबर भागता-उड़ता चला जा रहा था. 

बुचई प्रसाद ने जोरों से गुहार लगाई. 'पकड़ो...पकड़ो...! चोर... चोर...!!' और वे उसी ओर दौड़े. थाने में कांस्टेबल हरिहर पटेल ने उनकी गुहार सुनी और पीतांबर को सड़क पर जाते हुए देखा तो उसने लम्बी सीटी बजाई और वह भी दौड़ पडा. इंस्पेक्टर मिथलेश कुमार सिंह अपने क्वार्टर में सोए हुए थे, उन्होंने ड्यूटी रिवाल्वर कमर पर बांधा, ड्राइवर भोले को जगाया और जिप्सी में सवार उसी दिशा की ओर रवाना हो गए. 

कस्बे में जाग पड़ गई. रज्जू भाई शाह को किसी ने एक बजे रात फोन पर बताया कि अनावरण का कपड़ा चोरी चला गया है, तो वे भी कोठी के बाहर निकल आए. तरुण केडिया, महाविद्यालय के प्रिंसीपल, पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के मुख्य अभियंता, नगर पालिका अध्यक्ष समेत सभी गणमान्य जाग गए और देश में हुई सूचना टैक्नोलाजी में क्रांति की बदौलत सब एक-दूसरे के संपर्क में आ गए. 

लाजिमपुरवा नामक उस छोटे से कस्बे में आधीरात घटित होती यह एक बड़ी घटना थी. सुबह ग्यारह बजे वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सि..श्वर पांडे के कर कमलों से बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मूर्ति का अनावरण अब कैसे होगा, जब आवरण ही चला गया ? 

कस्बे से बाहर गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर जीप, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर दौड़ने लगे. लाजिमपुरवा में मौजूद प्रशासन और राजनीति का सारा 'सिस्टम' उस चोर के पीछे लग गया. पुलिस की जिप्सी से जो सर्चलाईट फेंकी जा रही थी, उससे पता चला कि पीतांबर चोर ने सड़क छोड़ कर खेत और जंगल की पगडंडी का रास्ता पकड़ लिया है. उधर गाड़ियां नहीं जा सकती थीं. न दुपहिया न चौपहिया.       

इधर रज्जू भाई शाह ने गुलाब क्लाथ हाउस के मालिक छजलानी को फोन किया तो उसने कहा कि दूकान में अब अनावरण के लायक कोई दूसरा कपड़ा नहीं है. वही छह मीटर का एक थान बचा था. अलबत्ता सफ़ेद रंग का रेशम जरूर है, कहें तो भेज दूं. रज्जू भाई ने तरुण केडिया और अन्य गणमान्यों से इसके बारे में पूछा तो वे सभी अचानक चुप हो गए और धीरे-धीरे सभी के चेहरे पर पीला-सा रंग छाने लगा, जो तेजी से कत्थई में बदलता जा रहा था. रज्जू भाई इस अचानक की चुप्पी से असमंजस में थे, लेकिन तुरंत ही इसका रहस्य उन्हें पता चल गया, जब उनके कानों में भी 'राम नाम सत्य है' की अनुगूंज पैदा होने लगी. 

'नहीं, बिलकुल नहीं. सफ़ेद कपड़ा हम आवरण के लिए नहीं लेंगे.' उन्होंने गुलाब क्लाथ हाउस वाले छजलानी को डांटते हुए कहा. 

सुबह के पांच बजने लगे. तड़के का उजास क्षितिज पर झलकने लगा. पाला जबरदस्त गिरा था. सफेदी की पर्त हर चीज पर छा गई थी. किसी ने बताया कि उसने आवरण चोर को नदी पार करते हुए देखा है. नदी के उस पार दूसरा जिला शुरू हो जाता है. ठण्ड इतनी थी कि चोर को पकड़ने का अभियान भी ठंडा पड़ने लग गया. सिर्फ अकेले बुचई प्रसाद थे, जो गुलूबंद से कान बांध कर, कम्बल ओढ़कर, बीड़ी का सुट्टा मारते हुए, बिना ठण्ड की परवाह किए, खेतों की मेड़ और जंगल के बीच से चले जा रहे थे. बाबा साहेब पर उनकी श्रद्धा अगाध थी. बुचई जब नदी किनारे पहुंचे तो उधर से दीनानाथ, रामसुमर, बुद्धन और गियासू चले आ रहे थे. बुचई को देखकर उन्होंने जोहार किया और ठहाका मार कर हंसने लगे. 

बुचई ने पूछा कि हंस क्यों रहे हो तुम लोग तो बुद्धन ने बताया कि रेशम का कपड़ा चुराने वाला कोई और नहीं, दुबेरा है. जाड़े में मर रहा था, अब मजे में ओढ़ कर सोएगा. बरगदिहा के पार जो ईंटों का भट्ठा है, उसी के भीतर दुबेरा बीस हाथ की चद्दर ओढ़े सो रहा है.      

दुबेरा के बारे में हमारे कस्बे लाजिमपुरवा का हर बाशिंदा जानता है. दुबेरा स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही अक्सर सोता है. कभी भीख मांगते नहीं देखा गया. गाड़ियों के आने-जाने के समय उसकी चुस्ती-फुर्ती देखने लायक रहती है. लगता है जैसे उस पर कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी ईश्वर या समाज ने सौंप रखी है, जिसे उसे निभाना है. लाल हरे चीथड़े लहराते हुए ट्रेन को सिग्नल देना, अपनी बोगी खोजने वाले मुसाफिर को उसके डिब्बे तक पहुंचाना, कुली न मिलने पर किसी का सामान खुद ही उठा कर बाहर तक ले आना आदि के अलावा कभी-कभार वह कस्बे के मुख्य चौराहे पर, ट्रैफिक कंट्रोल का काम भी करते देखा जाता है. 

लेकिन 24-25 दिसंबर की रात, शून्यकाल में घटी घटना एक राजनीतिक घटना भी थी. सुबह हमारे कस्बे से निकलने वाले तीनों अखबार, 'समाज प्रहरी', 'निडर दैनिक टाइम्स' और 'प्रचंड गर्जन' में इस घटना के बारे में समाचार थे. एक के मुताबिक़ दुबेरा इस इलाके का नहीं था बल्कि उड़ीसा के कालाहांडी से भाग कर आया था. दूसरा अखबार उसे आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले से आया बता रहा था, क्योंकि जिस भाषा में दुबेरा बोलता था, उसे कस्बे का कोई आदमी नहीं समझता था. तीसरे अखबार के अनुसार दुबेरा छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का था. ये सभी वे जगहें थीं, जहां भूख और अकाल से लोग या तो मर रहे थे या बड़ी तादाद में आत्महत्याएं कर रहे थे. एक अखबार ने विश्व हिन्दू परिषद के लोकल नेता का हवाला दिया था, जिसके अनुसार दुबेरा का असली नाम जुबेर अहमद था और वह संदिग्ध व्यक्ति था. स्टेशन पर उसके रहने से लगातार यात्रियों पर ख़तरा बना रहता था, जिसके बारे में पुलिस और स्थानीय प्रशासन से शिकायत की जा चुकी थी. दुबेरा को पोटा में गिरफ्तार करने की जोरदार अपील लोकल विहिप ने की थी. दूसरे अखबार के मुताबिक़ दुबेरा पहले बेलाडीला के लोहे की खदान में लाल झंडा पार्टी का काम करता था और वह 'कामरेड दुबेरा सिंह' के नाम से मशहूर था. बाद में निजीकरण के चलते वह खदान एक अमेरिकी कम्पनी को बेच दी गई, तब से दुबेरा बेरोजगार हो गया. गरीबी और फालतू हो जाने के कारण लाल झंडा पार्टी ने उसे निकाल दिया. 'प्रचंड गर्जन' में राष्ट्रीय संघ के लोकल नेता का सनसनीखेज बयान था. उनके मुताबिक़ दुबेरा दरअसल ईसाई मिशनरी का डबल एजेंट था और सूरीनाम से यहाँ आया था. उसका असली नाम ड्यूबर्ग जार्ज था. 25 दिसंबर, यानी क्रिसमस के दिन, जिस दिन ईसा मसीह का जन्म हुआ था, ठीक उसी तारीख को चोरी के लिए चुनने के पीछे एक बड़ी साजिश है, जिसके सूत्र धर्मांतरण के मुद्दे से जुड़े हुए हैं. लेकिन 'समाज प्रहरी' के रिपोर्टर का दावा था कि दुबेरा की मिचमिची आँखों और त्वचा पीलियाए रंग से पता चलता है कि या तो उसका सम्बन्ध नेपाल से है और प्लेटफार्म पर वह असलहों की तस्करी का काम करता था, या फिर वह नगालैंड या मणिपुर का है और किसी ड्रग ट्रैफिकिंग में शामिल है. बहरहाल, दुबेरा के बारे में जितने मुंह थे, जितने अखबार थे, उतने ही किस्से थे. हाँ, कस्बे के सारे गणमान्य इस एक बात पर, जरूर एकमत थे कि दुबेरा का वहां होना ठीक नहीं है. जैसे भी हो इसे शहर से निकाल बाहर करना चाहिए या फिर डी.आई.जी. साहेब से कह कर इसका 'एनकाउन्टर' करवा देना चाहिए.     

  पाठकों, जब यह कहानी आप पढ़ रहे होंगे, उस समय लाजिमपुरवा से छह किलोमीटर दूर बहने वाली नदी छिपिया के उस पार, जहां से जिला बारदोई शुरू हो जाता है, वहां पंजाब से यहाँ आकर ईंट का भट्ठा चलाने वाले सरदार गुलशेर सिंह के भट्ठे के भीतर, 25 दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड में, दुबेरा छह मीटर बासंती कपड़ा ओढ़े लेटा हुआ है और उसके पास बैठे हैं महुए के ठर्रे में धुत बुचई प्रसाद. दोनों बीड़ी के सुट्टे खिंच रहे हैं. 

जहां तक मशहूर मूर्तिकार अनंतराव दत्ताराव पेंढे द्वारा बनाई गई बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की बारह फुट सवा चार इंच ऊंची कांसे की विलक्षण मूर्ति के वन, खनिज संपदा एवं मानव संसाधन मंत्री श्री सिद्धेश्वर पांडे के कर कमलों द्वारा अनावरण की सूचना है, तो निवेदन है कि उस रोज 25 दिसंबर को ग्यारह बजे सुबह वह अनावरण नहीं हो सका. इसके पीछे एक कारण तो यह था कि उस रोज गोंडवाना एक्सप्रेस आठ स्टेशन पहले ही रोक दी गई क्योंकि आगे किसी गिरोह ने रेलवे की पटरी से फिश प्लेटें निकाल दी थीं. संदेह आधा दर्जन से ज्यादा आतंकवादी गिरोहों में से किसी एक पर जाता था. दूसरा कारण यह था कि सिद्धेश्वर भइया को, देश भर में 'एल्युमीनियम एंड पेट्रोल किंग' के रूप में मशहूर एन.आर.आई. उद्यमी भामोजी रामोजी शाह का स्पेशल चार्टर्ड फोर सीटर हवाई जहाज मिल गया, जिससे वे सीधे राजधानी चले गए, जहां उन्हें इस राज्य के अल्युमीनियम ओर की एक सबसे बड़ी खदान के निजीकरण के मसविदे पर दस्तखत करने थे. 

लेकिन लाजिमपुरवा में मूर्ति का अनावरण समारोह न हो पाने का तीसरा सबसे बड़ा कारण यह था कि दरअसल अनावरण तो दुबेरा आधीरात शून्यकाल में पहले ही कर चुका था. इसे हर अखबार और हर गणमान्य जानता था, फिर भी सब से छुपा रहा था. 

आइए, अंत में जिला बारदोई के उस ईंट के भट्ठे की ओर लौटें जहां बुचई प्रसाद और दुबेरा बीड़ी के सुट्टे खींच रहे हैं. बुचई के कानों में वही रहस्यपूर्ण फुसफुसाहट की आवाज आ रही है - 'अगाड़ी देख....अगाड़ी बे ! पाछू कुच्च्छ नहीं !....कुच्च्छौ नहीं !!!'   

ताज्जुब है कि इस बार दुबेरा को भी कुछ ऐसा ही सुनाई पडा.    



Uday Prakash 

Wednesday, January 12, 2011

ओरहान पामुक : टेलीविजन मुझे सिर्फ गुस्सा ही दिलाता है

( 1952 में इस्ताम्बुल में जन्में ओरहान पामुक तुर्की के प्रसिद्द उपन्यासकार हैं. उनके उपन्यासों का दुनिया की पचास से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. माई नेम इ
 
रेड, स्नो, व्हाईट कैसेल, म्यूजियम आफ इनोसेंस जैसे उपन्यासों के लेखक पामुक को 2006 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यहाँ प्रस्तुत है उनके गद्य की एक छोटी सी बानगी, उनके कथेतर गद्य संग्रह ' अदर कलर्स ' से - Padhte Padhte ) 

शाम को थक कर चूर 
मैं शामों को थक कर चूर घर लौटता हूँ. सीधे सामने की तरफ सड़कों और फुटपाथों को देखते हुए. किसी चीज से नाराज, आहत, कुपित. हालांकि मेरी कल्पना शक्ति सुन्दर दृश्यों से आकर्षित होती रहती है लेकिन ये मेरे दिमाग की फिल्म में तेजी से गुजर जाते हैं. समय बीत जाता है. कोई फर्क नहीं. रात घिर आई है. बदकिस्मती और हार. रात के खाने में क्या है ? 

मेज पर रखा लैम्प जल रहा है ; बगल में ही सलाद और ब्रेड का कटोरा रखा है, सबकुछ उसी टोकरी में ; मेजपोश चारखानेदार है. और कुछ ? ...... एक प्लेट और बीन्स. मैं बीन्स की कल्पना करता हूँ लेकिन यह काफी नहीं है. मेज पर वही लैम्प अब भी जल रहा है. थोड़ा सा दही शायद ? या शायद थोड़ी सी ज़िंदगी ? 

टेलीविजन पर क्या आ रहा है ? नहीं मैं टेलीविजन नहीं देख रहा ; यह मुझे सिर्फ गुस्सा ही दिलाता है. मैं बहुत गुस्सैल हूँ. मुझे कवाब भी पसंद है - तो कवाब कहाँ हैं ? पूरी ज़िंदगी यहीं सिमट आई है, इस मेज के इर्द-गिर्द. 

फ़रिश्ते मुझसे हिसाब मांगने लगे हैं. 

आज तुमने क्या किया प्यारे ?

अपनी पूरी ज़िंदगी.... मैंने काम किया. शामों को मैं घर लौटता रहा. टेलीविजन के बारे में - लेकिन मैं टेलीविजन नहीं देख रहा. कभी-कभी फोन उठाकर बात की है मैनें, नाराज हुआ कुछ लोगों पर ; फिर काम किया, लिखा..... एक आदमी बना...... और हाँ, बहुत एहसानमंद हूँ - जानवर भी बना. 

आज तुमने क्या किया प्यारे ?

दिख नहीं रहा क्या तुम्हें ? सलाद भरी है मेरे मुंह में. दांत हिल रहे हैं मेरे जबड़े में. मेरा दिमाग दुःख से पिघलकर गले से होता हुआ बह रहा है. नमक कहाँ है, कहाँ है नमक, नमक ? हम अपनी ज़िंदगी खाए जा रहे हैं. और थोड़ी सी दही भी. ज़िंदगी, ये जो है ज़िंदगी. 

फिर आहिस्ता से अपने हाथ फैलाकर मैं परदे अलग करता हूँ, और बाहर अँधेरे में चाँद की झलक मिलती है. दूसरी दुनियाएं सबसे बेहतर तसल्ली हैं. चाँद पर वे टेलीविजन देख रहे थे. मैनें एक संतरा ख़त्म किया - बहुत मीठा था यह - अब मेरा जोश कुछ बढ़ा है. 

तब मैं पूरी दुनिया का मालिक था. आप समझ रहे हैं न मेरा मतलब, है न ? शाम को मैं घर आया. घर आया मैं उन सभी लड़ाईयों से, अच्छी, बुरी, और कैसी भी ; मैं पूरा साबुत लौटा और एक गर्म घर में आया. खाना इन्तजार कर रहा था मेरे लिए, और मैनें अपना पेट भर लिया ; बत्तियां जल रही थीं ; फिर मैनें अपना फल खाया. मैनें यह भी सोचना शुरू कर दिया था कि सबकुछ बढ़िया होने वाला है.

फिर मैनें बटन दबाया और टेलीविजन देखने लगा. तब तक, आप समझ सकते हैं, मैं बहुत बेहतर महसूस कर रहा था.  

(अनुवाद : Manoj Patel)
Orhan Pamuk 

Monday, December 27, 2010

चन्दन पाण्डेय की कहानी : मुहर

( इस कहानी के केंद्र में वही नई पीढ़ी है जिसके बारे में बुजुर्गवार यह राय बना चुके हैं कि वह असंवेदनशील, मनुष्य विरोधी वगैरह है. कहानी में एक लड़की है, एक नौकरी की तलाश है और कुछ लम्हे हैं जो बताते हैं कि संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुण लुप्त नहीं हुए हैं. कहानी चन्दन पाण्डेय की है - पढ़ते पढ़ते ) 



मुहर
      रोली के जिद्दी और अकड़ू होने की खबर आजकल जैसे सबको हो गई है. अभी अभी पारिजात सर ने भी जिद्दीपने के खातिर उसे डांट लगाई है.
      रोली की नौकरी छूटे तीन महीने हो रहे हैं. नौकरी की तलाश में मित्रों की मदद उसे ‘अच्छी’ नहीं लगती. यह भी सच है कि सीधे रास्ते सारे बन्द हैं. उसके मित्र समझदार हैं. किसी जगह उसके रोजगार की बात चलाने से पूर्व रोली की सहमति लेने का काम सलीके से करतें हैं. इस तरह कि कहीं रोली को ‘फील’ ना हो जाये.
      भोपाल के इस दफ्तर में रोली के लिये नौकरी की बात पारिजात सर ने चला रखी है. इस दफ्तर में उनका मित्र मुकुन्द पांडेय बड़ी पदवी पर है और सक्षम है. मुकुन्द पांडेय, पारिजात का सहपाठी रहा है और दो वर्षों के पाठ्यक्रम के दौरान पारिजात ने मुकुन्द से कभी जो बातचीत की हो. पर समय समय की बात. तुक्के और अपनी बीवी की मदद से मुकुन्द ने दफ्तर की दुनिया में अच्छा स्थान बना लिया है. वैसे, इस दफ्तर में रोली की नौकरी की बात चलाने से पहले पारिजात ने दो बार सोचा था. या शायद तीन बार.
      नौकरी पारिजात की भी नहीं है पर उन्होने छोड़ रखी है. यह उनका तरीका है. छ: महीने की नौकरी करते हैं, धुआँधार काम करतें हैं इतना शानदार कि चाहकर भी बॉस डांट नहीं पाता.. फिर नौकरी छोड़ देते हैं. थोड़ा दुनिया घूमा, कुछ किताबें पढ़ी, कुछ लेख लिखे और फिर छ: महीने के लिये नौकरी कर लेते हैं. इस अखबार की छवि उनके मन में अच्छी है इसलिये चाहते हैं कि रोली यहीं काम करे.
      भोपाल तक का रेल टिकट लेने के लिये रोली कतार में थी और मुम्बई के अपने मित्र से बात कर रही थी. आकाश था. यहाँ टिकट कतार से कम ही मिल रहे थे. ऐसे में बुकिंग क्लर्क पर उपजी झल्लाहट रोली ने आकाश पर उतार दी. थोड़ी बेरुखी से कहा: अभी फोन रखो, बाद में बात होती है. इसी बात पर उस मित्र ने कहा था: रोली, तुम ‘एरोगेंट’ हो गई हो.
      उसी शाम की बात है, पारिजात सर का फोन था. रोली उन्हें अपने भोपाल के टिकट हो जाने की बात बता रही थी. सर ने पूछा: टिकट कन्फर्म तो नहीं होगा? उनके सवाल में तंज था. रोली ने कहा: बिल्कुल सही, कंफर्म नहीं है. सर डाँटने लगे. उनका कहना वाजिब था. जाना, जब दो दिन पहले ही तय हो चुका था तो टिकट भी पहले ले लेना था. आलसी नम्बर एक से नम्बर दस तक, सारा यही जो ठहरीं. और तो और, रोली मैडम, सर की डाँट का बुरा भी मान गईं. कह दिया : अब मैं भोपाल नहीं आ रही हूँ. सर ने दुनिया की सारी उपेक्षा बटोर कर कहा: महारानी, ऐसी अकड़ नहीं चलेगी. समझी.
      जब वो अपने लिये चाय बना रही थी तो पाया कि चीनी नहीं है और साथ ही उसे सुबह का वह समय याद आया जब आकाश ने उसे एरोगेंट कहा था. रोली को यह छोटे मोटे आविष्कार की तरह लगा. शाम को पारिजात सर ने भी उसे अकड़ू कहा था. शाम की यह याद आते ही वो चाय लेकर हॉस्टल की छत पर चली आई.
      उसे हँसी और एक पुरानी याद साथ साथ आई. पत्रकारिता की पढ़ाई के आखिरी साल की बात है, जब एक दिन उसने ‘एवरीथिंग इज एल्यूमिनेटेड’ के बारे में सुना. अंकित था या कोई और जो इस फिल्म की तारीफ में कई सारे पुल बान्धे जा रहा था. बाइत्तिफाकन रोली ने अगले ही दिन किसी पत्रिका में इस फिल्म का जिक्र देखा. उसे यह संयोग अच्छा लगा. दोनों घटनायें अगर दिनों के अंतराल पर घटती तब वो शायद इस फिल्म का ध्यान नहीं धर पाती. पर अनोखी बात तो इसके भी बाद घटी.
      उसी दोपहर कैसेट्स की किसी अचर्चित दुकान में टहलते हुए रोली को इस फिल्म की सी.डी. मिल गई. उसे खूब आश्चर्य हुआ. उसे लगा हो ना हो सारे समीकरण ऐसे बन रहे हैं जिससे रोली को यह फिल्म दिखाई जा सके. उसने वो फिल्म खरीद ली वरना वो सी.डी. खरीदकर सिनेमा देखने वालों में से नहीं है.
      रोली ने उस फिल्म को याद किया और उस घटना की इस बेअन्दाज पुनरावृति को भी. उसके चेहरे पर इस ख्याल की कसैली मुस्कुराहट फैल गई कि आज कहीं कोई तीसरा ना मिल जाये जो उसके जिद्दी और अकड़ू होने की बात बताने लगे.

      जिस दिन वो भोपाल पहुंची उससे पांच दिन पूर्व से ही पारिजात सर अपना डेरा डंडा भोपाल में जमाये हुए थे. सर रोली से दो साल सीनियर हैं पर उनका ज्ञान तगड़ा है, जिसे वो गाहे ब-गाहे बघारते भी खूब रहते हैं. रोली को बहुत मानते हैं. चाहतें हैं दुनिया की सारी समझ, सारा ज्ञान, सारा कुछ रोली के पास रहे. रोली, भले ही, ऐसा नहीं चाहती हो. दोनों के झगड़े मशहूर हैं.
      कल साक्षात्कार है.
      जब से वो आई है, पारिजात सर उसे कुछ ना कुछ समझाये जा रहे हैं. पहला घंटा शेयर बाजार के बारे में धाराप्रवाह बताते हुए बिताया. अभी अर्थशास्त्रीय सूत्र समझा रहें है. पर रोली यह सब सुनना नहीं चाहती है. उसे बार बार समझाये जाने की कोशिश भली नहीं लग रही है. जैसे वो बहुत बड़ी हो गई है या जैसे कोई उसे याद दिला रहा है कि वो बेरोजगार है. समझाईशों के बीच एक बार वो टोकती भी है: इससे पहले मुझे नौकरी नहीं मिली है क्या?
      साक्षात्कार के लिये जाते हुए उसने पीपल के गिरे हुए पत्तों के रंग का सूट पहन रखा था. रास्ते भर, जैसा कि आप सब अवगत हो चुके होंगे, सर रोली को समझाते रहे. दफ्तर के बाहर ही मुकुन्द से मिलना तय हुआ था. वो मिले और मिलते ही पारिजात सर से शेयर बाजार के उतार चढ़ाव की बात शुरु कर दी. पारिजात बात जरूर कर रहे थे पर साथ के साथ यह भी सोच रहे थे कि कहीं रोली के साक्षात्कार में विलम्ब ना हो जाये. उनका यह सोचना साफ दिख रहा था जिसे देख रोली मन ही मन हँस रही थी.
      साक्षात्कार के वक्त एच.आर.(मानव सन्साधन) की टीम के साथ मुकुन्द पाण्डेय भी बैठे रहे. औपचारिक सवाल पूछे जा रहे थे जिनके औपचारिक ही जबाव रोली दे रही थी. एच.आर. के बन्दे सवाल पूछ कर एक बार मुकुन्द की तरफ देख लेते थे; कहीं सवाल वजनी तो नहीं हो गया? बीच बीच में मुकुन्द अपने संघर्षों की कहानी, अपनी ही जबानी शुरू कर दे रहे थे. वो सीनियर थे इस नाते सब उन्हें सुन भी रहे थे – कि कैसे बचपन में पचास मीटर पैदल चल कर विद्यालय जाया करते थे, कि बचपन में विद्यालय की फीस जमा करने में उन्हे कितनी मुश्किल आती थी; इसलिये नहीं कि उनके पास पैसे नहीं होते थे बल्कि इसलिये कि उन्हें फीस जमा करने के लिये लम्बी कतार में खड़ा होना पड़ता था.
      वो सीनियर थे इसलिये आते आते प्रवचन पर उतर आये. यह सब बताने लगे कि दुनिया माया है, सब मिथ्या है..... और कहते कहते तैश खा गये. कहना शुरु किया: लोगों को अहंकार नहीं पालना चाहिये. जब मैं कॉलेज में था तब कुछ लोग मुझसे बात करना भी गवारा नहीं करते थे. वो मुझे देख कर रास्ता बदल लेते थे. उन्हे लगता था कि कॉलेज से निकलते ही किसी अखबार के सम्पादक की कुर्सी पर जा बैठेंगे... और इतना सब कह कर मुकुन्द ने रोली की तरफ देखा. रोली ने बड़े गौर से देखा, मुकुन्द उसकी तरफ देख रहे हैं. एच.आर. के सद्स्यों ने देखा: मुकुन्द अभ्यर्थी की ओर देख रहे हैं और यह जो अभ्यर्थी है वह भी कम नहीं है जो मुकुन्द की तरफ देखे जा रही है.
      रोली को देखने के बाद भी मुकुन्द ने अपनी बात जारी रखा. कहते रहे: ये जो महान पढ़ाकू लोग थे और जो हमें किसी लायक नहीं समझते थे आज खुद सड़क पर हैं. इनका सारा ज्ञान जाने कहाँ खो गया कि आजकल बेकार बेरोजगार घूम रहे हैं.
      रोली ने दूर की सोची और पाया कि वो जब तक यहाँ रहेगी यह पाजी पंडित ऐसी ही बातें करता रहेगा. रोली समझ रही थी कि मुकुन्द यह सब किसके बारे में कह रहे हैं. यह सारी गलतियाँ पारिजात सर में है. वो अपने कॉलेज में शायद ही किसी से मेलजोल रखते हों. खुद उससे भी वे केवल पत्रकारिता सम्बन्धित बातें ही करते हैं. दरअसल पारिजात सर अपने आप में इतना गुम रहते हैं कि उन्हें पत्रकारिता के अलावा किसी भी दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रहता है. अपने बैच में सबसे पहली नौकरी उन्होने ही पाई थी. सर्वाधिक इंक्रीमेंट्स भी उन्हीं के लगे. ये जरूर है कि आज उनके पास नौकरी नहीं है पर उन्होने नौकरी छोड़ रखी है, उन्हें निकाला नहीं गया है.
      इतना लम्बा सोचते ना सोचते रोली की साँस फूल गई. पारिजात सर के बारे में आजतक उसने इतनी अच्छी बातें एक साथ कभी नहीं सोची होगी. इसी खातिर उसने मुकुन्द पाण्डेय से कहा: पारिजात सर जब चाहें उन्हें नौकरी मिल जाये. कितने अखबार वाले जो उनके काम को जानते हैं, उन्हें बुला रहे हैं.
      मुकुन्द पाण्डेय झटका खा गये. किसी से कुछ भी सुनने की उनकी आदत छूट गई. फिर भी खीसें या दाँत जैसा कुछ निपोरते हुए कहा: मैं पारिजात जी की बात नहीं कर रहा हूँ. यह तो एक आम चलन होता जा रहा है.
      एच.आर. के सदस्यों की समझ में ज्यादातर बातें नहीं आ रही थीं कि यहाँ क्या चल रहा है और यह भी कि यह, पारिजात, आखिर है कौन?
      कुछ देर ठहर कर रोली को सुनाते हुए मुकुन्द ने एच.आर. हेड से पूछा: अब?
      एच.आर. हेड ने कहा: जरूरी कागजात इन्हें मेल द्वारा भेज दिया जायेगा. उसने मुस्कुराते हुए रोली को बधाई दी और इस अखबार को नियमित तौर पर देखने की सलाह भी दी ताकि जब काम पर रोली आने लगे तो इस अखबार की नीतियों को समझनें पर ज्यादा समय ना खर्च हो. ठीक इसी बिन्दु पर मुकुन्द ने रोली का ध्यान अपनी तरफ खींचा, कहा: पारिजात जी से कहियेगा, शाम को मिल लें.
अखबार के दफ्तर से निकलते ही रोली ने पारिजात सर को फोन कर दिया.


रोली उस पूरे दिन भोपाल घूमती रही. एक छोटे से दिन में जहाँ जा सकती थी, गई. जहाँ नहीं जा सकती थी, जैसे भीमबैठका, वहाँ मन ही मन गई. भीमबैठका पर जो कछुये के आकार वाला पत्थर था, उस पर मन ही मन बैठी रही. भोपाल ने उसकी स्मृतियों का अच्छा खासा हिस्सा छेंक रखा है.
शाम को पारिजात सर मिले. मिलते ही डॉटना शुरु कर दिया. कहने लगे, “ मुकुन्द कह रहा था कि मन्दी के कारण नई नियुक्तियाँ पाँच छ: महीने के लिये टाल दी गई हैं. वो झूठ बोल रहा था. पर हँसते हुए ही उसने एक बात कही कि रोली थोड़ी ‘एरोगेंट’ है. ..बताओ, मुकुन्द की हरेक बात का जबाव देना जरूरी था?” पारिजात रोली को पिछले कुछ दिनों की हर वो घटना याद दिलाते रहे जिससे साबित होता था कि रोली जिद्दी और अकड़ू है.
इधर रोली को पहले तो बेहद तकलीफ हुई पर अपनी तकलीफ को उसने गुस्से में बदलने  दिया, सोचती रही – दो दिन पहले भी तो यही मन्दी रही होगी जब उसे साक्षत्कार के लिये बुलाया गया. एक बार को ही, पर रोली को यह ख्याल आया कि पारिजात सर को बता दे, मुकुन्द की कौन सी बात पर उसने ‘जबाव’ दिया था. पर नहीं बताया क्योंकि उसी वक्त हबीबगंज स्टेशन से एक रेल खुली थी.  रोली उसके डब्बे गिनने लगी थी. उसने गौर किया तो पाया कि इधर कुछ रेलगाड़ियों के डब्बे हरे रंग के भी होने लगे हैं.
                              * * *

चन्दन पाण्डेय, 28 वर्ष की उम्र,एक कथा संग्रह 'भूलना' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित, दूसरा कथा संग्रह 'जंक्शन' शीघ्र प्रकाश्य. नई बात नाम से एक ब्लॉग लिखते हैं. 
संपर्क : मोबाइल : 09996027953, ई-मेल : chandanpandey1@gmail.com    

chandan pandey 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...