आज सादी यूसुफ़ की दो कविताएँ - अकेलापन और एक स्त्री 
अकेलापन 
एक सुबह मैनें देखा उन्हें, तेज क़दमों से 
साथ-साथ चलते हुए,
बादामों की खुशबू से भर गयी थी सड़क.
क्या वे बहनें हैं ?
मैनें गौर किया कि बिल्लियों की चाल चल रही थीं वे.
मुझे क्यों महसूस होता है कि बादाम की खुशबू मेरा पीछा कर रही है 
और जैसे मैं कुछ जानता हूँ उन दो बहनों के बारे में 
तेज क़दमों से चलती हुईं सुबह-सुबह ? 
हर सुबह 
जब दस बजाती है घड़ी, मुझे फ़िक्र होने लगती है.
क्या वे गुजरेंगी इधर से ?
वे आती हैं 
और मुझे जकड़ लेती है बादामों की खुशबू  
महसूस करता हूँ बिल्ली के पंजे की नर्म छुअन को.
और फिर वे गुम हो जाती हैं पेड़ों के बीच 
या ओझल हो जाती हैं मोड़ से 
या मेरी खिड़की के आखिरी कोण में.
कभी-कभी पलट कर देखती हैं वे 
और मुझे दिखता है एक धागा 
मेरे कमरे को जोड़ता हुआ 
दुनिया-जहान से. 
                                          15/01/1975
                         * * *
एक स्त्री 
अब कैसे अपने पैर खींचकर ले जाऊंगा उस तक ?
कहाँ देख पाऊंगा उसे ?
और किस शहर की की किस गली में 
मैं पूछूं उसके बारे में ?
और अगर पा भी गया उसका घर 
(मान लीजिए कि मैं पा जाता हूँ)
क्या मैं घंटी बजाऊंगा उसके दरवाज़े की ?
कैसे जवाब देना चाहिए मुझे ?
और कैसे मैं निहारूंगा उसके चेहरे को 
जब छू रहा होऊंगा उसकी उँगलियों के बीच से 
रिसती हुई हल्की शराब. 
मुझे कैसे कहना चाहिए हैलो...
और कैसे थामूंगा दर्द 
इतने सारे सालों का ?
एक बार 
बीस साल पहले 
एक वातानुकूलित ट्रेन में 
मैंने चूमा था उसे 
रात भर...
                                                08/09/1984 
                         * * *
(अनुवाद : मनोज पटेल)


पुराना सुख ही सबसे बड़ा दुःख देता है
ReplyDeleteऔर केसे थामुंगा दर्द इतने सरे सालों का ??????????वाह इंसानी अंगराग पलों की याद जब होने लगती है तो कई बार इस तरह की आत्मिक सिरहन जब उठ जाया करती है........ तो इन्सान निशब्दता के दहलीज पर हुआ करता है या प्रवेश करने ही लगता है .......वाह बहुत खूब !!!!!!शुक्रिया मनोज जी सुन्दर पक्तियां लाने का !!!!!!!!!!!!!!!!!Nirmal Paneri
ReplyDeleteमनोज भाई आपका आभार... आपकी बदौलत कितनी अच्छी-्च्छी कविताएं पढ़ने को मिल रहीं हैं... कई बार टिप्पणी नहीं दे पाता लेकिन आपके चयन और अनुवाद को जरूर पढ़ता हूं...
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