पढ़ते-पढ़ते पर आप माइआ अंजालो की कविताएँ पढ़ते रहे हैं. आज मनीषा कुलश्रेष्ठ के सौजन्य से उनके गद्य की एक बानगी - कफस के पंछी का गीत
कफस के पंछी का गीत : माइआ अंजालो
(अनुवाद : मनीषा कुलश्रेष्ठ)
मेरी मां के प्रेमी मि. फ्रीमैन हमारे साथ रहा करते थे या हम उनके साथ रहा करते थे, तब मैं इस बारे में ठीक से नहीं जानती थी. वे भी दक्षिणी थे, विशालकाय और कुछ थुलथुल. जब भी वे बनियान में घूमा करते, मुझे उनका सीना देख कर शर्मिन्दगी होती, वह औरतों की सपाट छातियों जैसा था.
यदि मेरी मां इतनी सुंदर स्त्री न भी होती - गोरी, सीधे बालों वाली. तब भी वह उन्हें पाकर भाग्यशाली होते यह वह खूब जानते थे. वे शिक्षित थीं और एक प्रतिष्ठित परिवार से सम्बध्द थीं, आखिरकार वह सेन्ट लुईस की पैदाईश नहीं थीं क्या! फिर वे खुशमिजाज थीं. वे हरदम हंसती रहतीं और चुटकुले सुनातीं. वे आभारी थे. मेरे ख्याल से वे मां से उम्र में काफी बडे रहे होंगे. अन्यथा उन्हें सुस्त किस्म की हीन भावना क्यों होती जो कि एक अधेड़ आदमी को अपने से जवान औरत से विवाह करके होती है. वे उनकी हर हरकत, हर गति पर निगाह गाड़े रखते, जब वे कमरे से चली जातीं तो उनकी आंखें उन्हें बेमन से जाते देखतीं.
मैं ने तय कर लिया था कि सेंट लुईस मेरा अपना देश नहीं है. मैं टॉयलेट में तेज ग़ति में फ्लश चलने की आवाज या डब्बाबन्द खानों की और दरवाजों की घंटियों, कारों, रेलों - बसों के शोर की आदी नहीं हो सकी थी,जो कि दीवारों को फोड़ता हुआ या दरवाजों से रेंगता हुआ अन्दर आता था. मेरे दिमाग के हिसाब से, मैं केवल कुछ ही सप्ताह सेंट लुईस में रही होऊंगी. जैसे ही मुझे अहसास हो गया कि मैं अपने घर पर नहीं या ये सब मेरे नहीं है मैं कायरों की तरह रॉबिन हुड के जंगलों और ऐली ओप की वादियों में जा उतरती थी, जहां वास्तविकता अवास्तविकता में बदल जाती थी और यहां तक कि वह हर दिन बदलती रहती थी. मैं यह सुरक्षा कवच हमेशा साथ रखती थी, बल्कि इसे स्टांप की तरह इस्तेमाल करती थी कि - मैं यहां रहने नहीं आई हूँ.
मेरी मां हमें सर्व सुख - सुविधाएं देने में सक्षम थी. इसका मतलब यह भी लगा सकते हैं कि अगर किसी को पटा कर हमें सब कुछ मुहैय्या करवाना ही क्यों न हो. हालांकि वह नर्स थी, लेकिन जब तक हम उसके साथ रहे उसने अपने पेशे से सम्बध्द तो कोई काम नहीं किया. मि. फ्रीमैन जरूरतों की पूर्ति के लिए लाए गए थे और हमारी मां ने जुआघरों में पोकर खेलकर अतिरिक्त पैसा बना लिया था. सीधी - सादी आठ से पांच की दुनिया उनको आकर्षित करने के लिए नाकाफी थी. यह उसके बीस साल बाद की बात है जब मैं ने उन्हें पहली बार नर्स की पोशाक में देखा था.
मि. फ्रीमैन दक्षिण पैसिफिक यार्ड में फोरमैन थे और कभी कभी देर से घर लौटा करते थे. मां के चले जाने के बाद. वे स्टोव से अपना रात का खाना उठाते, जिसे मां ने ध्यान से ढककर रखा होता था, हमारे लिए इस अपरोक्ष चेतावनी के साथ कि तुम्हें इस सब की परवाह करने की जरूरत नहीं है. वे चुपचाप रसोई में खाना खाते जबकि मैं और बैली अलग - अलग और एकदम लालचियों की तरह अपनी - अपनी 'स्ट्रीट एंड स्मिथ' नामक घटिया किस्म की किताबें पढा करते. अब जबकि हम अपना पैसा खर्चते ही थे,तो हम ऐसी सचित्र पेपरबैक किताबें खरीदते जिनमें भडक़ीली तस्वीरें होतीं. जब मां घर पर नहीं होतीं तो हमें एक सुविधाजनक व्यवस्था बनानी होती थी. हमें होमवर्क खत्म करके, खाना खाकर, प्लेटें धोनी होती थीं ताकि हम ' द लोन रेंजर', 'क्राईम बस्टर्स' या 'द शेडो' पढ़ या सुन सकें.
मि. फ्रीमैन सौजन्यता के साथ ऐसे अन्दर आते जैसे एक बडा भूरा भालू और कभी - कभार ही हमसे बात करते. वे बस मम्मी का इंतजार करते और खुद को समूचा उनके इंतजार में झौंक देते. वे कभी अखबार नहीं पढते थे और न ही रेडियो के संगीत पर अपने पैर थिरकाते थे. वे प्रतीक्षा करते थे. बस सिर्फ यही.
अगर वे हमारे बिस्तरों में घुसने से पहले घर लौट आतीं तो हम उस व्यक्ति को जीवंत पाते. वे बडी क़ुर्सी से ऐसे उठते जैसे कोई आदमी नींद से उठता है, मुस्कुराते. तब मुझे याद आता कि कुछ ही सैकेण्ड पहले मुझे कार के दरवाजे बन्द होने की आवाज सुनाई दी थी, फिर मम्मी के कदमों की आहट का संकेत. जब मम्मी की चाबी दरवाजे में घूमती मि. फ्रीमैन आदतन वही अपना प्रश्न पहले ही पूछ चुके होते थे - 'हे, बिब्बी, समय अच्छा बीता?'
उनका यह सवाल हवा में अटका रह जाता, तब तक मां लपक कर उनके होंठों का चुंबन ले रही होती थीं. फिर वे बैली और मेरी तरफ अपने लिप्स्टिक लगे चुम्बनों के साथ मुड्तीं , '' तुमने अभी तक होमवर्क नहीं किया?'' अगर हम पढ़ रहे होते तो कहतीं - '' अच्छा अपनी प्रार्थनाएं बोलो और सोने चलो.'' अगर हम पढ़ नहीं रहे होते तो कहतीं - '' चलो अपने कमरे में जाओ, अपना काम पूरा अपनी प्रार्थनाएं बोलो और सो जाओ.''
मि. फ्रीमैन की मुस्कान में कभी घटा - बढ़ी नहीं हुई, वह लगभग उतनी ही सघन बनी रही. कभी - कभी मम्मी उनकी गोद में चढ़ क़र बैठ जाती तो उनके चेहरे की मुस्कान ऐसे लगती कि जैसे वह उनके चेहरे पर सदा के लिए चिपक गयी है.
हम अपने कमरों से ग्लासों के टकराने की और रेडियो चलाए जाने की आवाज सुन पाते थे. मैं सोचती थी कि वे जरूर सोने से पहले उनके लिए नाचती थीं, क्योंकि उन्हें नाचना नहीं आता था. लेकिन अकसर नींद में डूबने से पहले मुझे नृत्य की ताल पर पैरों की थिरकन सुनाई देती.
मुझे मि. फ्रीमैन पर तरस आता. मुझे मि फ्रीमैन पर वैसा ही तरस आता जैसा कि आर्केनसास में अपने घर के पिछवाड़े बने सुअरबाड़े में जन्मे सुअर के नन्हें बच्चों पर आता था. हम उन सुअरों को पूरे साल खिला - पिला कर सर्दियों की पहली बर्फबारी में काटे जाने के लिए मोटा करते, हालांकि उन प्यारे नन्हें कुलबुलाते जीवों के लिए मैं ही थी जो दुखी होती थी, और मैं यह भी जानती थी कि ताजा सॉसेजेज और सुअरों के भेजे का मजा भी मैं ही लेने वाली हूँ, जो कि उनके मरे बिना मुझे नहीं मिलने वाला है.
हमारी पढ़ी हुई उन सनसनीखेज क़हानियों और हमारी प्रबल कल्पनाओं या शायद हमारी संक्षिप्त मगर बहुत तेज रफ्तार जिन्दगी की यादों की वजह से बैली और मुझ पर बुरा असर पडा था - उस पर शारीरिक तौर पर, मुझ पर मानसिक तौर पर. वह हकलाने लगा था और मैं भयानक सपनों से पसीने - पसीने हो जाया करती थी. उसे लगातार समझाया जाता कि - धीरे - धीरे बोलो और फिर से बोलना शुरु करो. मेरी उन विशेष बुरी रातों में मम्मी मुझे अपने अपने साथ, उस विशाल बिस्तर पर मि. फ्रीमैन के साथ सोने के लिए ले जाती. स्थायित्व की आवश्यकता के लिए बच्चे जल्दी ही आदतों के आदी जीव बन जाते हैं. तीन बार मां के बिस्तर पर सोने के बाद मुझे लगने लगा था कि वहां सोने में कुछ भी अजीब नहीं है.
एक सुबह, एक शीघ्र बुलावे पर वे बिस्तर से जल्दी उठ गयीं और मैं दुबारा सो गयी थी. लेकिन एक दबाव और अपने दांए पैर पर एक अजीब से स्पर्श से मैं जाग गयी. वह हाथ से कहीं मुलायम था, और वह कपडे क़ा स्पर्श बिलकुल नहीं था. वह जो भी था वैसे उद्दीपन का अनुभव मुझे मां के साथ इतने वर्षों सोते हुए कभी महसूस नहीं हुआ था. वह हिल नहीं रहा था और मैं दम साधे हुए थी. मैंने मि. फ्रीमैन को देखने के लिए अपना सिर जरा सा बायीं तरफ घुमाया कि वे उठ कर चले गए कि नहीं,लेकिन उनकी आंखें खुली थीं और दोनें हाथ चादर के ऊपर थे. मुझे पता था, जैसे कि मैं हमेशा से जानती होऊं, कि यह उनकी वह 'चीज' थी जो मेरे पैर पर सटी थी.
उन्होंने कहा, '' ऐसे ही लेटी रहो, रिटी, मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा.''
मैं डर नहीं रही थी, शायद कुछ आशंकित सी थी मगर डरी तो नहीं थी. हाँ, बेशक जानती थी, बहुत से लोग 'ये' किया करते थे और वे अपना काम पूरा करने के लिए, अपनी इस ' चीज' क़ो इस्तेमाल करते थे, लेकिन, मैं कभी ऐसे किसी को नहीं जानती थी जिसने इसे किसी और के साथ किया हो. मि. फ्रीमैन ने मुझे अपने पास खींच लिया और अपना हाथ मेरे पैरों के बीच डाल दिया. उन्होंने चोट नहीं पहुंचाई, मगर मम्मी ने मेरे दिमाग में यह बात अच्छी तरह से डाल रखी थी कि, '' अपनी टांगे हमेशा भींच कर रखनी हैं और किसी को भी अपनी 'पॉकेट बुक' देखने नहीं देनी है.''
'' देखो, मैंने तुम्हें अभी चोट नहीं पहुंचाई ना, डरो मत.'' उन्होंने कम्बल पीछे को पटक दिया और उनकी वह 'चीज' भूरे भुट्टे की तरह सीधी खड़ी थी. उन्होंने मेरा हाथ पकडा और कहा, '' इसे महसूस करो.'' वह ताजे कटे हुए मुर्गे की अन्दरूनी हिस्से की तरह लिजलिजी और गिलगिली थी.
फिर उन्होने मुझे अपने सीने के ऊपर अपनी बांई बांह से खींच लिया, उनका सीधा हाथ इतना तेज चल रहा था और उनका दिल इतना तेज धड़क रहा था कि मुझे डर लगा कि वे मरने वाले हैं. भूतों की कहानियों में होता है कि किस तरह मरने वाले लोग, अपने मरते वक्त जिस किसी चीज क़ो पकड़े होते हैं उसे जकड़ लेते हैं. मैं आतंकित थी कि अगर मि. फ्रीमैन मुझे जकड़े - जकड़े ही मर गया तो मैं कैसे मुक्त हो पाऊंगी? क्या मुझे छुड़ाने के लिए लोग उनकी बांह तोड़ डालेंगे ?
अंतत: वे शांत हो गए, फिर एक अच्छी बात हुई, उन्होंने मुझे बहुत नर्म तरीके से आलिंगित किया कि मेरा मन करने लगा कि वे मुझे कभी न छोड़ें. मुझे अपना - सा महसूस हुआ. जिस तरह उन्होंने मुझे सहेजा हुआ था, मैं जानती थी कि वे मुझे कभी नहीं जाने देंगे या कभी मेरे साथ कुछ बुरा नहीं होने देंगे. हो सकता है कि यही मेरे पिता हों और आखिरकार हमने एक दूसरे को पा लिया हो. लेकिन फिर वे पलटे और मुझे गीले स्थान पर छोड क़र उठ गए.
'' मुझे तुमसे बात करनी है रिटी.'' उन्होंने अपने शॉर्ट्स को ऊपर खींचा जो कि उनकी एड़ियों में जा गिरा था और बाथरूम में जा घुसे. ये सच था कि बिस्तर गीला था, लेकिन मुझे पता था कि मैं 'बिस्तर गीला करने' जैसा कुछ भी नहीं किया है. हो सकता है मि फ्रीमैन के साथ ऐसा हो गया हो जब वे मुझे जकड़े हुए थे. वे एक ग्लास पानी के साथ वापस लौटे और मुझसे खीजी हुई आवाज में कहा , '' उठो तुमने बिस्तर में सूसू कर दिया है.''
उन्होंने गीले हिस्से पर पानी डाला, और मेरे वाले गद्दे पर वह निशान कई सुबहों तक वैसा ही दिखता रहा.
दक्षिणी अनुशासन में रहने के कारण मैं जानती थी कि कब बड़ों के सामने चुप रहना है, लेकिन मैं उनसे पूछना चाहती थी कि उन्होंने ये क्यों कहा कि मैं ने बिस्तर गीला किया है, जबकि मुझे पक्का पता था कि उन्हें खुद भी इस बात का यकीन नहीं था. मगर उन्होंने यह सोच लिया कि मैं बदतमीज हूँ तो, इसका मतलब, क्या वे मुझे फिर कभी उस प्यार से गले नहीं लगाएंगे? या कभी यह नहीं जताएंगे कि वे ही मेरे पिता है. मैं ने उन्हें अपने बारे में शर्मिन्दा कर दिया है.
''रिटी, क्या तुम बैली से प्यार करती हो?'' वे बिस्तर पर बैठ गए और मैं उछलती - कूदती हुई उनके पास आई - '' हाँ.''
वे झुक कर अपने मोजे पहन रहे थे, उनकी पीठ इतनी विशाल और दोस्ताना - सी थी कि मेरा मन चाहा कि मैं उस पर अपना सिर टिका दूं.
''अगर तुमने किसी से भी कहा कि हमने क्या किया है, तो मुझे बिली को मार डालना पडेग़ा.''
हमने क्या किया? हमने! जाहिर है उनका मतलब मेरे बिस्तर पर सूसु कर देने से तो नहीं है. मैं समझी नहीं, न ही मेरी हिम्मत हुई उनसे पूछने की. जरूर इसका मतलब मुझे गले लगाने से होगा. लेकिन मैं बैली से भी पूछ नहीं सकती थी, क्योंकि उसे वह सब बताना पड़ता जो हमने किया था. वह बैली को मार सकता है, यह विचार ही मुझे सहमा गया था. उनके कमरे से जाने के बाद मैं ने मम्मी को यह बताने की सोची कि मैं ने बिस्तर गीला नहीं किया था, लेकिन अगर उन्होंने पूछा कि हुआ क्या था तो मुझे उन्हें मि. फ्रीमैन के सीने से लगाने की बात बतानी पडेग़ी, और उससे बात नहीं बनेगी.
अब यह वही पुराना असमंजस था, जिसे मैं ने हमेशा जिया था. यहां बड़ों की फौज थी, जिनके इरादे और हरकतें मैं समझ ही नहीं पाती थी और जिन्होंने मेरी बातें समझने की कोई जहमत तक नहीं उठाई. मेरे मि. फ्रीमैन को नापसंद करने का कोई प्रश्न नहीं था, शायद मैं बस उन्हें समझने में नाकाम रही.
कई हफ्तों बाद तक उन्होंने कुछ नहीं कहा, केवल उन उजड्ड से नमस्ते के जवाबों के सिवा जो उन्होंने मेरी तरफ देखे बिना दिए थे.
यह पहला ही राज था जिसे मैंने बैली से छिपाया था और कभी कभी मैंनें सोचा कि वह इसे मेरे चेहरे पर पढ़ लेगा लेकिन उसे कुछ पता नहीं चला.
मैं मि. फ्रीमैन और उनकी बड़ी - बड़ी बांहों के घेरे के बिना अकेला महसूस करने लगी थी. इसके पहले बैली, खाना, मम्मी, दुकान, किता बें पढ़ना और अकंल विली ही मेरा संसार हुआ करते थे. अब पहली बार मैंने इसमें शारीरिक स्पर्श को शामिल किया था.
मैंने मि. फ्रीमैन के यार्ड से लौट कर आने का इंतजार करना शुरु कर दिया था, लेकिन जब वे आते तो मेरी तरफ ध्यान ही नहीं देते थे, हालांकि मैं ढेर सा अपनत्व भर कर उन्हें '' गुडईवनिंग, मि फ्रीमैन.'' जरूर कहती.
एक शाम, जब मैं अपना मन कहीं नहीं लगा पा रही थी तो मैं उनके पास जाकर उनकी गोद में चढ़ क़र बैठ गई.वे पहले की तरह मम्मी का इंतजार कर रहे थे. बैली 'द शैडो' सुन रहा था और उसे मेरी जरूरत नहीं थी. पहले तो मि. फ्रीमैन स्थिर बैठे रहे, मुझे बिना जकड़े या बिना कुछ किए, तभी मुझे अपनी जांघों के नीचे एक मुलायम मांसल पिण्ड के हिलने का अहसास हुआ. वह मुझसे हल्के - हल्के टकरा रहा था और कड़ा होता जा रहा था. तब उन्होंने मुझे अपने सीने पर खींच लिया. उनमें से कोयले के बुरादे और ग्रीस की महक आ रही थी, और इतना करीब थे कि मैंने अपना सिर उनकी कमीज में धंसा लिया था और उनके दिल की धड़कन सुन रही थी, वह सिर्फ मेरे लिए धड़क रहा था. केवल मैं उस धमक को सुन पा रही थी, मैं उसकी उछाल को अपने चेहरे पर महसूस कर पा रही थी.उन्होंने कहा, '' टिक कर बैठो, कुलबुलाओ मत.'' लेकिब पूरे वक्त, वे ही तो मुझे अपनी गोदी में धक्का देते रहे थे, फिर अचानक वे खड़े हो गए और मैं फर्श पर फिसल गई. वे बाथरूम की तरफ भागे.
महीनों के लिए उन्होंने फिर से मुझसे बात करना बन्द कर दिया था. मैं आहत थी और एक समय के लिए तो मैं पहले से कहीं ज्यादा अकेला महसूस करने लगी थी. लेकिन फिर में उनके बारे में भूल चुकी थी, यहां तक कि उनके मुझे गले लगाने का वह प्रिय अहसास भी बचपन की आंखों पर बंधे पट्टे के पीछे के उन सहज अंधेरों में पिघल कर खो गया था.
मैं पहले से ज्यादा पढ़ने लगी, और अपनी आत्मा में यह प्रार्थना करती कि काश मैं लड़का बनकर पैदा हुई होती. होरेशियो एल्गर विश्व के महान लेखक थे. उनके नायक हमेशा अच्छे होते थे, हमेशा जीता करते थे और हमेशा लड़के ही होते. मैं स्वयं में पहले दो गुण तो विकसित कर सकती थी, लेकिन लड़का बनना असंभव नहीं तो निश्चित तौर पर आसान तो नहीं था.
' द सण्डे फनीज' मुझे प्रभावित करते थे, हालांकि मुझे शक्तिशाली नायक पसंद थे जो हमेशा अंत में विजय पाया करते थे. मैं स्वयं को 'टाइनी टिम' से जोड़ा करती. बाथरूम में जहां मैं अखबार ले जाया करती थी, वहां उसके गैरजरूरी पन्ने हटाना और देखना यंत्रणादायी होता था कि मैं जान सकूं कि अंतत: कैसे वह अपने नए विरोधी से जीत सका. मैं हर इतवार इस राहत से रोया करती कि वह दुष्ट आदमियों के चंगुल से बच निकला और अपनी संभावित हार की सीमाओं से फिर बाहर आ खड़ा हुआ, हमेशा की तरह प्यारा और सौम्य. ' द कैटजेनजेमर किड्स' मजेदार थे क्योंकि वे वयस्क लोगों को मूर्ख साबित कर दिया करते थे. लेकिन मेरी रुचि के विपरीत वे कुछ ज्यादा ही चतुर - चालाक थे.
जब सेंट लुईस में बसंत आया, तो मैं ने अपना पहला लाईब्रेरी कार्ड बनवाया, और जब से मैं और बैली अलग - अलग बड़े होने लगे थे, मैं ने अपने ज्यादातर शनिवार लाईब्रेरी में ( बिना व्यवधान के ) निर्धन, बूट पॉलिश करने वाले लड़कों की दुनिया में सांस लेते हुए बिताए थे, जो कि अपनी नेकी और लगातार मेहनत के साथ अमीर, बेहद अमीर बनते हैं और छुट्टी के दिन डलिया भर - भर कर सामान गरीबों में बांटते हैं. एक छोटी राजकुमारी जिसे गलतफहमी में नौकरानी समझ लिया गया था, खोए हुए बच्चे जिन्हें लावारिस समझ लिया गया था मेरे लिए अपने घर, अपनी मम्मी, स्कूल और मि. फ्रीमैन से ज्यादा वास्तविक हो चले थे.
उन महीनों के दौरान, हम अपने नाना - नानी और मामाओं से मिले. ( हमारी एकमात्र मौसी कैलीफोर्निया में अपना भविष्य बनाने चली गई थीं.) लेकिन वे ज्यादातर एक ही प्रश्न पूछते - '' तुम अच्छे बच्चे बने रहे न?'' जिसके लिए हमारे पास एक ही उत्तर था. यहां तक कि बैली भी कभी 'ना' कहने का दु:साहस न कर सका.
मनीषा कुलश्रेष्ठ
जन्म : 26 अगस्त 1967, जोधपुर
शिक्षा – बी.एससी., एम. ए. (हिन्दी साहित्य), एम. फिल., विशारद ( कथक)
प्रकाशित कृतियाँ –
कहानी संग्रह - कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, बौनी होती परछांई
केयर ऑफ स्वात घाटी (संग्रह शीघ्र प्रकाश्य)
उपन्यास- शिगाफ़ ( कश्मीर पर), ‘शालभंजिका’
नया ज्ञानोदय में इंटरनेट और हिन्दी पर लिखी लेखमाला की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य.
प्रकाशित कृतियाँ –
कहानी संग्रह - कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, बौनी होती परछांई
केयर ऑफ स्वात घाटी (संग्रह शीघ्र प्रकाश्य)
उपन्यास- शिगाफ़ ( कश्मीर पर), ‘शालभंजिका’
नया ज्ञानोदय में इंटरनेट और हिन्दी पर लिखी लेखमाला की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य.
अनुवाद – माया एँजलू की आत्मकथा ‘ वाय केज्ड बर्ड सिंग’ के अंश, लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास ‘हाउस मेड ऑफ डॉन’ के अंश, बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद
अन्य : हिन्दीनेस्ट के अलावा, वर्धा विश्वविद्यालय की वेबसाईट ‘हिन्दी समय. कॉम’ का निर्माण, संगमन की वेबसाईट ‘संगमन डॉट कॉम’ का निर्माण व देखरेख.
पुरस्कार व सम्मान : चन्द्रदेव शर्मा नवोदित प्रतिभा पुरस्कार – वर्ष 1989 ( रा. साहित्य अकादमी)
कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप – 2007
डॉ. घासीराम वर्मा सम्मान – वर्ष 2009
रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष 2010 ( राजस्थान साहित्य अकादमी)
कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप – 2007
डॉ. घासीराम वर्मा सम्मान – वर्ष 2009
रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष 2010 ( राजस्थान साहित्य अकादमी)
संप्रति – स्वतंत्र लेखन और इंटरनेट की पहली हिन्दी वेबपत्रिका ‘हिन्दीनेस्ट’ का दस वर्षों से संपादन.
ई – पता – manisha@hindinest.com
ई – पता – manisha@hindinest.com
शुभागमन...!
ReplyDeleteकामना है कि आप ब्लागलेखन के इस क्षेत्र में अधिकतम उंचाईयां हासिल कर सकें । अपने इस प्रयास में सफलता के लिये आप हिन्दी के दूसरे ब्लाग्स भी देखें और अच्छा लगने पर उन्हें फालो भी करें । आप जितने अधिक ब्लाग्स को फालो करेंगे आपके ब्लाग्स पर भी फालोअर्स की संख्या उसी अनुपात में बढ सकेगी । प्राथमिक तौर पर मैं आपको 'नजरिया' ब्लाग की लिंक नीचे दे रहा हूँ, किसी भी नये हिन्दीभाषी ब्लागर्स के लिये इस ब्लाग पर आपको जितनी अधिक व प्रमाणिक जानकारी इसके अब तक के लेखों में एक ही स्थान पर मिल सकती है उतनी अन्यत्र शायद नहीं । प्रमाण के लिये आप नीचे की लिंक पर मौजूद इस ब्लाग के दि. 18-2-2011 को प्रकाशित आलेख "नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव" का माउस क्लिक द्वारा चटका लगाकर अवलोकन अवश्य करें, इसपर अपनी टिप्पणीरुपी राय भी दें और आगे भी स्वयं के ब्लाग के लिये उपयोगी अन्य जानकारियों के लिये इसे फालो भी करें । आपको निश्चय ही अच्छे परिणाम मिलेंगे । पुनः शुभकामनाओं सहित...
नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव.
युवावय की चिंता - बालों का झडना ( धीमा गंजापन )
परिवार नामक संस्था के पाखंड और अमानवीयता के परदे गिराती एक साहसिक मासूम कहानी। पढ़ते हुए बांग्लादेश के अभी जुलाई में गुजरे लेखक हुमांयू अहमद का उपन्यास 'नंदित नरक में'याद आता रहा जिसकी समीक्षा बया के पिछले अंक में छपी है। सोचता हूं हमारे यहां हिन्दी में ऐसी कहानियां क्यों नहीं है जबकि हमारे महान परिवार ऐसी गलाजत से एक जमाने से बजबजा रहे हैं। पाखंड...वही हमारा प्रिय पाखंड...अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है यहां एक भी टिप्पणी क्यों नहीं है। मनीषा को यह कहानी चुनने के लिए बधाई।
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