Sunday, April 24, 2011

आज छोड़ ही दूंगी ज़िंदा रहना
















आखिरी फैसला  :  माइआ अंजालो 

(अनुवाद : मनोज पटेल)


इतनी छोटी छपाई, तकलीफदेह है मेरे लिए.
पृष्ठ पर अस्थिर सी काली चीजें.
कुलबुलाते हुए मेढक हर ओर.
जानती हूँ कि यह मेरी उम्र की वजह से है.
मुझे पढ़ना छोड़ ही देना पड़ेगा.

इतना गरिष्ट है भोजन, मेरा मन फेर देता हुआ.
इसे गर्मागर्म निगलूँ या फिर जबरन ठूंस लूं ठंडा करके,
और पूरे दिन इंतज़ार करूँ जबकि यह अटका पड़ा हो मेरे हलक में. 
थक गई हूँ मैं, पता है कि बूढ़ी हो गई हूँ.
मुझे भोजन करना छोड़ ही देना पड़ेगा. 

मुझे थका दे रही है अपने बच्चों की सहानुभूति.
मेरे बिस्तर के पास खड़े हो वे हिलाते हैं अपने होंठ,
और मैं एक शब्द भी नहीं सुन पाती.
मुझे छोड़ ही देना होगा सुनना. 

इतनी आपा-धापी है ज़िंदगी में, मुझे पस्त कर देती है यह.
सवाल और जवाब और बोझिल विचार.
मैं कर चुकी हूँ जोड़, घटाव और गुणा सब,
और सारी गणनाओं का नतीजा शून्य ही निकला है.
आज छोड़ ही दूंगी ज़िंदा रहना.   

6 comments:

  1. जैसे खुद को पढ़ रही हूँ...

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  2. वृद्धावस्था की विवशताओं स्वीकारती और
    जीने के औचत्य पर प्रश्न उठाती एक सशक्त
    और सफल तर्कपूर्ण कविता !

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  3. लगा आत्मालाप कर रहा हूं। मैं इसे बेहतरीन अनुवाद कहना चाहूंगा। सबसे अच्छा लगा आपाधापपी का जिक्र। कविता में आपाधापी का इस तर विश्लेषण कम ही पढ़ने को मिलता है-इतनी आपा-धापी है ज़िंदगी में, मुझे पस्त कर देती है यह.

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  4. amazing poem ... kuch kahte nahi ban raha hai ..

    badhayi

    मेरी नयी कविता " परायो के घर " पर आप का स्वागत है .
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/04/blog-post_24.html

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  5. माया को पढ़ना, यानी थोडा सा खुद को पढ़ना है. बेहतरीन अनुवाद!

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