Thursday, April 21, 2011

ताकि घूमती रहे पृथ्वी


आज एक बार फिर निज़ार कब्बानी. 












गेहूं की बालियाँ : निज़ार कब्बानी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

आह ........ गेहूं की बालियाँ आंसुओं से सींची हुई,
दिल में उतर चुकी है तलवार, अब वापस नहीं हो सकते हम.
ठहरे हुए प्रेम के खतरनाक फाटक पर 
तलवार की रुपहली धार पर करता हूँ तुम्हें प्यार 
मौत के मुंह में और कांपते हुए भी.
इतने जाने-पहचाने हैं हम - 
इतिहास रोशन करता है मुझे 
और बढ़ती जाती हैं अफवाहें ....
यही होता है हमेशा सभी अच्छे संबंधों में. 

आह ...... फातिमा,
तुम्हारे साथ हिस्सा लिया है मैनें 
हजारों छोटी - छोटी बेवकूफियों में, 
जानता हूँ मैं प्यार में होने का मतलब 
इस अरबी जमाने की दीवार के पीछे 
जानता हूँ क्या मतलब होता है वादा करने,
फुसफुसाने और एलान करने का,
आज के इस अरबी समय में, 
और तुम्हारे, अपना होने का मतलब भी जानता हूँ 
ऐसे दहशत भरे दौर में. 

पुलिस बुला भेजती है मुझे पूछताछ के लिए 
जानना चाहती है मुझसे तुम्हारी आँखों के रंग के बारे में,
कि क्या है मेरी कमीज के नीचे 
और मेरे दिल में 
जानना चाहती है 
मेरे सफ़र, मेरे खयालात और मेरी नई कविताओं के बारे में. 
अगर पकड़ लेते वे मुझे 
लिखते हुए तुम्हारी आँखों से बहते काजल के बारे में   
उनकी राइफलें पीछा करतीं मेरा. 
खोल दो जुल्फें अपनी 
इस तनहा इंसान के लिए 
सताया गया है जिसे किसी पैगम्बर की तरह 
खोल दो जुल्फें अपनी, निकाल दो चिमटियां सब,
क्या पता आखिरी मौक़ा हो यह हमारा.

आह, मेरी ज़िंदगी की सुन्दरतम प्रतिमा,
वापस खींच लिए आती हो तुम मुझे हर सुबह 
बचपन के खेल के मैदानों पर 
नामुमकिन धूप खिलती है जहाँ तुम्हारी पलकों के तले 
और हकीकत हो उठते हैं नामुमकिन मुल्क 
तुम पौराणिक गाथाओं के खजाने सी साथ हुआ करती हो मेरे 
उत्तर की तरफ जाने वाली रेलगाड़ियों पर,
तुम्हारी आँखों में यह चीनी रोशनाई 
मेरे वंश से भी घटित होती है पहले, 
दौड़ा करती हो तुम मेरी रगों में 
संतरे की खुशबू की तरह.

रात में चीरकर कर देती हो मेरे दो हिस्से 
और भोर में ढाल लेती हो मुझे अपने घुटनों पर,
  जैसे दुइज का चाँद कोई.
घेरे रहती हो तुम मुझे हर ओर पूरब और पश्चिम,
दाएं और बाएँ - कितना सुहाना है यह कब्जा !
याद करता हूँ विन्डरमीयर झील पर साथ बिताए दिनों को  
जब ललकता था मैं तुम्हारे साथ पानी पर चलने को 
और चलने को बादलों पर, समय के आरपार,
और चाहता था रोना तुम्हारी छाती में मुंह छिपाए हमेशा.
ललकता हूँ देशी शराबघरों के लिए,  
अलाव के पास की अपनी उस जगह के लिए 
सभी सफ़ेद पर्वत चोटियों के लिए 
जब हिजाज़ का काजल घुलता है बर्फ में 
बहुत तरसता हूँ उम्दा शराब के लिए 
ठिठुरती सर्द रातों में.

आह, उत्तरी रेलगाड़ियों में 
मेरे बगल बैठी हुई जलपाखी,
मजबूती से थाम लो मुझे बाहों से.
कोई मतलब नहीं है मेरे लिए 
सुल्तानों के फरमान और पुलिस की फाइलों का.
डूबा रहता हूँ केवल तुम्हारे प्यार में.
उड़ा चुके हैं बहुत कुछ हम जुए में और 
लालबत्ती की हद से भी बाहर कर चुके हैं अनाधिकार प्रवेश.
थाम लो मेरी बांह ताकि घूमती रहे यह पृथ्वी...
क्योंकि घूमना बंद कर देती है यह 
किसी महान प्यार के बिना. 
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7 comments:

  1. आह ...... फातिमा,
    तुम्हारे साथ हिस्सा लिया है मैनें
    हजारों छोटी - छोटी बेवकूफियों में,
    जानता हूँ मैं प्यार में होने का मतलब
    oh i love these lines......

    खोल दो जुल्फें अपनी, निकाल दो चिमटियां सब,
    क्या पता आखिरी मौक़ा हो यह हमारा.
    so honest....

    लालबत्ती की हद से भी बाहर कर चुके हैं अनाधिकार प्रवेश.
    थाम लो मेरी बांह ताकि घूमती रहे यह पृथ्वी...
    क्योंकि घूमना बंद कर देती है यह
    किसी महान प्यार के बिना.

    and this shows love equal an intelligent man and a lay man..in its path..

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  2. manoj jee
    namskaar !
    itni bhaavpuran aur achchi kavitao ko haamre samaksh rakhne ke liye niozaar saab ka shukariyaa umdaa rachna ke liye
    saadar !

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  3. नीज़ार कब्बानी की प्रेम कविताएं प्रेम को अमृत की तरह पीना सिखाती हैं.
    ’थाम लो मेरी बांह ताकी घूमती रहे यह पृथ्वी..
    क्योंकि घूमना बंद कर देती है यह
    किसी महान प्यार के बिना.’
    - बेहतरीन!

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  4. 'थाम लो मेरी बाहें ताकि घूमती रहे यह पृथ्वी '
    ................................. लाजवाब !!!

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