Wednesday, April 13, 2011

येहूदा आमिखाई : तबसे

आज येहूदा आमिखाई की कविता, तबसे  












तबसे : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं मर कर गिर पड़ा अश्दाद की लड़ाई में 
आजादी की जंग के दौरान.
मेरी माँ ने कहा था तब, वह चौबीस साल का है,
और अब वह कहती है, वह चौवन का है, 
और मेरी याद में एक मोमबत्ती जलाती है 
किसी जन्मदिन के केक पर की मोमबत्तियों की तरह,
फूंक कर बुझा देने के लिए.

तबसे, मेरे पिता की मौत हो चुकी है गम और तकलीफ से,
और मेरी बहनों की शादियाँ हो चुकीं हैं 
जिन्होनें मेरे नाम पर रखे हैं अपने बच्चों के नाम,
और तबसे मेरा घर मेरी कब्र है, और मेरी कब्र - मेरा घर.
क्योंकि मर कर गिर पड़ा था मैं 
अश्दाद की पीली रेत में.

और तबसे नेग्बा और याद मोर्देखय के बीच के 
सरू और फलों के सभी पेड़ 
एक धीमी शवयात्रा के पीछे-पीछे चलते हैं,
और तबसे मेरे सभी बच्चे और मेरे सभी पुरखे 
अनाथ हैं और गमजदा माँ-बाप,
और तबसे मेरे सभी बच्चे और मेरे सभी पुरखे 
साथ-साथ चलते हैं बाहों में बाहें डाले 
मौत के खिलाफ एक प्रदर्शन में.
क्योंकि मर कर गिर पड़ा था मैं 
अश्दाद की मुलायम रेत में. 

मैंने अपनी पीठ पर लादा था अपने कामरेड को.
और तबसे मैं हमेशा महसूस करता हूँ उसका मुर्दा शरीर 
जैसे किसी भारी आसमान का वजन मेरे ऊपर,
और उसे अपने नीचे मेरी झुकी हुई पीठ 
ग्लोब के उभरे हुए हिस्से जैसी लगती है.
क्योंकि अश्दाद की भयानक रेत में, मैं मर गया था 
सिर्फ वही नहीं. 

और तबसे मैं खुद को मुआवजा देता हूँ अपनी मौत के लिए 
प्रेम और अंधेरी दावतों से,
और तबसे मैं खुशनसीब याददाश्त वाला हो गया हूँ,
और नहीं चाहता कि भगवान बदला ले मेरे खून का. 
और मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए रोए मेरी माँ 
अपने सुन्दर, ठीक चेहरे के साथ.    
और तबसे मैं लड़ता हूँ दर्द से,
और अपनी याददाश्त के खिलाफ चलता हूँ 
जैसे कोई आदमी चलता हो हवाओं के खिलाफ,
और तबसे मैं मातम करता हूँ अपनी यादों का 
जैसे कोई आदमी मातम करता हो अपनी मौत का,
और तबसे मैं बुझाता हूँ अपनी यादों को,
जैसे कोई आदमी बुझाता हो कोई आग,
और मैं शांत हूँ.
क्योंकि मर कर गिर पड़ा था मैं अश्दाद में 
आजादी की जंग के दौरान.

"भावनाएं भड़क उठी थीं !" तब वे कहा करते थे, "उम्मीदें 
बैठ गई थीं," वे कहा करते थे, मगर और कुछ नहीं,
"कला फली फूली," कहना था इतिहास की किताबों का,
"विज्ञान समृद्ध हुआ," उन्होंने कहा,
"शाम की हवाएं ठंडा कर देती थीं उनका गर्म माथा,"
उन्होंने तब कहा था,
सुबह की हवा हिलाती थी उनके माथे की लटों को,"
ऐसा बोले थे वे.
और तबसे हवाएं कोई और काम करती हैं 
और शब्द कोई और बात कहते हैं 
(मुझको ऐसे मत देखो जैसे कि मैं ज़िंदा होऊँ),
क्योंकि मर कर गिर पड़ा था मैं अश्दाद की 
मुलायम, पीली रेत पर 
आजादी की जंग के दौरान. 

8 comments:

  1. सुन्दर कविता का सुन्दर अनुवाद

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  2. बहुत सुँदर कविता और सटीक अनुवाद।

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  3. बहुत सुन्दर कविता| धन्यवाद|

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  4. अद्भुत कविता ...मनोज भाई आपके चयन की बधाई दी जाए या आपके अनुवाद की . आपने विश्वकविता को हम सबके लिए जितना सहज उपलब्ध बना दिया है उसके लिए कोई भी प्रशंसा कम ही होगी . शुभकामनाएं .

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  5. ऐसे गुंफित कविता का इतना सहज अनुवाद वाकई प्रभावित करने वाला है... कविता का कथ्य भी मानवीय संधर्षो को उद्वेलित करता है...

    शेषनाथ...

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  6. Bahut hi sundar kavita Manoj ji....badhai :)subah subah uth kar har din ek ascharya ki tarah hi hota hai jab aapke naye naye post padhta hu jaise ek naya dayra hi khulta jata ho aankhon k samne...behtareen anuvaad evam chayan bhi :)

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