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एक इंसान छोड़ जाता है दुनिया
और कुछ छोटी हो जाती हैं वो गलियाँ
जहां रहा करता था वह.
एक और अंधेरी खिड़की इस शहर में,
मुलायम पड़ जाएंगे उसकी डालियों पर फले अंजीर
परिंदों के लिए.
अगर हम काफी शामें बिताएं खड़े-खड़े चुपचाप
एक टोली बन जाती है हमारी
साथ-साथ खड़े चुपचाप लोगों की.
चहचहाहट चिड़ियों की सर के ऊपर
दावा जतातीं अपने दरख्तों पर
और आसमान जो सी रहा है
सिए जा रहा है बिना थके
गिराने लगता है अपना जामुनी दामन.
हर चीज यथासमय, यथास्थान
बेहतर होगा ऐसा सोचना लोगों के बारे में भी.
होते हैं कुछ लोग. सोते भरपूर नींद,
जागते तरोताजा. बाक़ी रहते दो संसारों में,
गुम और याद किए जाते.
दो बार सोते हैं वे, एक बार उसके लिए जो जा चुका है,
और एक बार अपने लिए. वे सपने देखते हैं लगातार,
देखते हैं दुगने सपने, एक सपने से जागते दूसरे सपने में,
लोगों का नाम पुकारते गुजरते हैं वे गलियों से,
और फिर जवाब देते खुद ही.
* *
मुठ्ठी बाँधना
पहली बार टाम्पिको के उत्तर तरफ सड़क पर,
अपनी जान निकलते हुए महसूस की मैनें,
मानो रेगिस्तान में बज रहा हो कोई नगाड़ा
और कठिन से कठिनतर होता जा रहा हो सुनना उसे.
सात साल की थी मैं, लेटी हुई कार में
देखती हुई शीशे के परे चीड़ के पेड़ों को
भागते हुए पीछे अरुचिकर नमूना बनाते.
पेट मेरा किसी खरबूजे की तरह फटा पडा था मेरे भीतर.
"कैसे पता चलता है कि आप मरने वाले हैं ?"
मैनें जानना चाहा था अपनी माँ से.
कई दिनों से हम सफ़र में थे साथ-साथ.
एक अजीब आत्मविश्वास से जवाब दिया था उसने,
"जब तुम मुठ्ठी बाँधने लायक नहीं रह जाते."
सालों बाद मुस्कराती हूँ उस सफ़र के बारे में सोचकर,
सरहदें जिन्हें हर हालत में पार करना है हमें अलग-अलग
छाप लिए अपने लाजवाब दुखों की.
मैं जो मरी नहीं, जो ज़िंदा हूँ अभी तक
अभी भी लेटी हुई पिछली सीट पर
अपने सभी सवालों के पीछे
बांधती-खोलती एक छोटा सा हाथ.
(अनुवाद : Manoj Patel)
Naomi Shihab Nye
रचनायें भावनाओं का प्रवाह लिये हुये पाठक को अपने साथ बहाये ले जाती हैं। सुन्दर अनुवाद के लिये बधाई।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब मनोज भाई। आभार और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कवितायें…ज़िन्दा रहने और मुट्ठी बांधने का क्या ख़ूबसूरत बिंब है! पढ़के लगता है कि यह मुझे क्यों नहीं सूझा!
ReplyDeleteआदरणीय मनोज जी
ReplyDeleteनमस्कार
बहुत संजीदा अनुवाद किया है आपने ....बहुत खूब .............धन्यवाद