Saturday, December 17, 2011

नाजिम हिकमत : गिरती हुई पत्तियाँ

आज फिर से नाजिम हिकमत की एक कविता...

 

गिरती हुई पत्तियाँ : नाजिम हिकमत 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

पचासों हजार उपन्यासों और कविताओं में पढ़ा है 
     गिरती हुई पत्तियों के बारे में 
पचासों हजार फिल्मों में देखा है पत्तियों को गिरते हुए 
पचासों हजार बार गिरते देखा है पत्तियों को 
               गिरते, उड़ते और सड़ते 
पचासों हजार बार महसूस किया है उनकी बेजान शुश-शुश की आवाज़ 
               अपने क़दमों के नीचे, अपने हाथों और उँगलियों के पोरों पर 
मगर अब भी मैं अभिभूत हो जाता हूँ गिरती हुई पत्तियाँ देखकर 
               खासकर सड़क पर गिरती हुई पत्तियाँ  
               खासकर शाहबलूत की पत्तियाँ 
               और अगर आस-पास हों बच्चे 
               अगर निकली हो धूप 
               और कोई अच्छी खबर मिली हो मुझे दोस्ती के बारे में 
खासकर अगर दर्द न हो मेरे सीने में 
और भरोसा हो कि मुझे चाहता है मेरा प्यार 
खासकर ऐसे दिन जब मैं बेहतर महसूस करता होऊँ लोगों के बारे में 
               मैं अभिभूत हो जाता हूँ गिरती हुई पत्तियाँ देखकर  
खासकर सड़क पर गिरती हुई पत्तियाँ 
खासकर शाहबलूत की पत्तियाँ 
                                                                                ६ सितम्बर, १९६१ 
                                                                                 लीपजिग 
                    :: :: :: 
यू ट्यूब पर इस कविता का वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें. 
manojpatel

5 comments:

  1. मनोज , बहुत सुन्दर कविता है . पत्तियों की आवाज़ में जीवन का परिदृश्य .. बधाई !

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  2. 'मगर अब भी मैं अभिभूत हो जाता हूं गिरती हुई पत्तियां देखकर
    खासकर सड़क पर गिरती हुई पत्तियां
    खासकर शाहबलूत की पत्तियां
    और अगर आस-पास हों बच्चे
    अगर निकली हो धूप....
    ........
    मैं अभिभूत हो जाता हूं गिरती पत्तियां देखकर.'
    और मैं अभिभूत हूं इस बिम्ब-प्रचुर कविता को पढकर. ब्लॉग वापस पा जाने पर बधाई.

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  3. मैं अभिभूत हूँ,इस कविता और गिरते पत्तियों के आवाज को महसूस करके......आभार सर जी .....!!

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  4. bahot sunder hai manoj bhai

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  5. गिरते हुए पत्तों को महसूस करना, खुद से जुड़े रहने का एहसास है।

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