Sunday, December 18, 2011

चार्ल्स सिमिक : मिट्टी के सिपाही

आज प्रस्तुत है चार्ल्स सिमिक की यह कविता...

 

बड़ी जंग : चार्ल्स सिमिक 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

हम जंग-जंग खेला करते थे जंग के दौरान, 
मार्गरेट. बड़ी पूछ थी सिपाही वाले खिलौनों की,
मिट्टी से बने सिपाहियों की. 
रांगे वाले खिलौने शायद पिघला दिए गए थे गोलियां बनाने के लिए. 

बहुत खूबसूरत लगती थी 
वह मिट्टी की पलटन. मैं फर्श पर पड़ा 
घंटों देखा करता था उनकी आँखों में. 
मुझे याद है कि वे भी मुझे ताका करते थे ताजुब्ब से भरे.  

कितना अजीब लगता रहा होगा उन्हें 
अकड़ कर सावधान खड़े रहना 
दूध से बनी मूंछों वाले 
एक बड़े और अबूझ प्राणी के सामने. 

समय के साथ वे टूट गए, या मैनें जानबूझकर तोड़ दिया उन्हें. 
तार था उनके अंगों, उनकी छातियों के भीतर,
मगर कुछ नहीं था खोपड़ी में !
मार्गरेट, मैनें जांची थी यह बात. 

कुछ भी नहीं था खोपड़ी में... 
सिर्फ एक बांह, एक ओहदेदार की बांह, 
कभी-कभार मेरी बहरी दादी की रसोई की फर्श के 
किसी छेद से तलवार चलाती हुई.  
                    :: :: :: 
manojpatel

3 comments:

  1. मगर कुछ नहीं था खोपड़ी में!
    मार्गरेट, मैंने जाँची थी यह बात।

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  2. मगर कुछ नहीं था खोपड़ी में !
    मार्गरेट, मैनें जांची थी यह बात.

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  3. बहुत सुंदर कल्पना भरी कविता.....!!

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