Monday, April 25, 2011

येहूदा आमिखाई की पांच कविताएँ


आज येहूदा आमिखाई की पांच कविताएँ 











न्यूयार्क के अपने शुरूआती दिन 

न्यूयार्क के अपने शुरूआती दिनों में,
हम बहुत चर्चा किया करते थे 
खुदा की मौत के बारे में. हम बातें नहीं करते थे 
बल्कि आश्चर्यचकित थे कि यह बात लोगों को अब पता चली 
जो हम बहुत पहले जान चुके थे  
उस असीम मरुस्थल में 
अपने बार मित्ज़वाह संस्कार के बाद ही. बिजली की किसी 
गड़गड़ाहट या चमक के साथ नहीं, न ही किसी धमाके के साथ,
बल्कि खामोशी से. और यह भी कि कैसे 
उन्होंने छुपाए रखा उसकी मौत की बाबत 
जैसे कोई छुपाए किसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित राजा की मौत को 
जो मर गया हो बिना किसी वारिस के.   

तुम चले जाओगे समुद्र के रास्ते. तुम्हारे सफ़ेद बाल 
ध्वज-पोत में बदल देंगे जहाज को.
चले जाना तुम मेरे शहर को. मैं रहूँगा तुम्हारे शहर में.
स्थानों की एक खामोश अदला-बदली 
दोस्ती और मौत से जान-पहचान के एक खेल में. 

हाल ही में, मैनें तुम्हें धुलाई वाले के यहाँ जाते देखा 
कुछ कपड़े लेकर जाते हुए,
जिनपर अभी ताज़ा होगी येरूशलम की धूल. 
उस बड़ी सी गठरी को बाहों में भरा हुआ था तुमने 
और तुम्हारी कोट की बाँह को 
हलके से दबाया था मैनें विदाई में. 

हम दोनों ही उस उम्र में हैं 
जहां यतीम नहीं कहा जाता उन लोगों को 
जिनका खुदा मर गया हो. 

बार मित्ज़वाह - एक यहूदी संस्कार जिसके बाद बच्चे को अपने नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों के पालन के योग्य माना जाता है.
                    * * *

1924 

मेरा जन्म 1924 में हुआ था. अगर मैं कोई वायलिन होता तो इस उम्र तक 
मेरी हालत बहुत ठीक न रह जाती. शराब होता तो शानदार 
या पूरी तरह से खट्टा हो चुका होता. कुत्ता होता तो अब तक मर चुका होता. किताब 
के रूप में अब तक कीमती हो चुका होता या बाहर फेंक दिया गया होता.
अगर कोई जंगल होता तो अभी जवान ही होता, मशीन होता तो हास्यास्पद,
और एक इंसान के रूप में मैं बहुत थक चुका हूँ. 

मेरा जन्म 1924 में हुआ था. जब मैं मानव जाति के विषय में सोचता हूँ तो 
मैं उन्हीं के बारे में सोचता हूँ जिनका जन्म मेरे साथ इसी साल हुआ था.
उनकी माताओं ने मेरी माँ के साथ ही जन्म दिया था,
जहां कहीं भी थीं वे, अस्पताल में या अँधेरे मकानों में.

आज अपने जन्मदिन पर, मैं तुम्हारे लिए 
एक विशेष प्रार्थना करना चाहूंगा,
जिसकी उम्मीदों और मायूसियों का भार 
नीचे की तरफ खींचता है तुम्हारी ज़िंदगी, 
जिसके कर्म घटते 
और ईश्वर बढ़ते जा रहे हैं,
तुम सभी मेरी उम्मीदों के भाई और मायूसियों के साथी हो.

तुम सभी को यथोचित शान्ति मिले,
जीवित लोगों को जीवन में, और मृतकों को मौत में.  

वही विजेता होता है जो 
औरों से बेहतर याद रखता है अपना बचपन,
बशर्ते कि कोई विजेता होता भी हो.
                    * * *

आंकड़े 

हर क्रोधित इंसान के लिए हमेशा होते हैं 
दो या तीन पीठ थपथपाने वाले जो उसे शांत करेंगे,
हर रोने वाले के लिए, तमाम आंसू पोंछने वाले,
और हर खुश इंसान के लिए, ढेर सारे दुखी लोग 
जो खुद में थोड़ा जोश जगाते हैं उसकी खुशी देख.

और हर रात कम से कम एक शख्स को 
नहीं मिल पाता है अपने घर का रास्ता  
या उसका घर कहीं और चला गया होता है 
और वह सड़कों पर भटकता फिरता है 
बेमतलब.

एक बार मैं स्टेशन पर इंतज़ार कर रहा था अपने छोटे बेटे के साथ 
और एक खाली बस गुजरी उधर से. मेरे बेटे ने कहा :
"देखो, एक बस, खाली लोगों से भरी हुई."
                    * * *

बहुत बाल उग आए हैं मेरी पूरी देंह पर 

बहुत बाल उग आए हैं मेरी पूरी देंह पर.
मुझे डर है कि वे मेरा शिकार शुरू कर देंगे मेरे बालों के लिए. 

मेरी रंग-बिरंगी कमीज प्रेम का कोई प्रतीक नहीं है :
किसी रेलवे स्टेशन की हवाई तस्वीर की तरह है यह.

रात में कम्बल के नीचे मेरी देंह पूरी खुली और जागृत होती है  
जैसे आँखों पर पट्टी बांधे कोई इंसान जिसे गोली मारी जाने वाली है.

किसी खानाबदोश और भगोड़े की तरह रहता हूँ मैं, मरूंगा मैं 
और ज्यादा के लिए भूखा --

और मैं इतना खामोश रहना चाहता था जैसे कोई प्राचीन टीला 
जिसके सारे शहर नष्ट हो चुके हों,

और इतना शांत,
जैसे कोई भरा पूरा कब्रिस्तान.
                    * * *

मेरी माँ उस जमाने की हैं 

मेरी माँ उस जमाने की हैं जब वे चांदी के कटोरों में 
खूबसूरत फलों की पेंटिंग बनाया करते थे 
और कुछ अधिक की उम्मीद नहीं रखते थे.
जहाज़ों की तरह चला करते थे लोग ज़िंदगी भर,
हवा के साथ या हवा के खिलाफ, और रास्ते के प्रति 
वफादार.  

मैं अपने आप से सवाल करता हूँ कि क्या बेहतर है,
बूढ़े होकर मरना या मरना जवानी में ही.
जैसे पूछा हो मैंने कि कौन अधिक हल्का है,
एक पौंड पंख या एक पौंड लोहा.

मुझे पंख चाहिए, पंख, पंख. 
                    * * *

(अनुवाद : मनोज पटेल)
Manoj Patel ke Anuvad  

6 comments:

  1. सभी कवितायें अच्छी लगीं पर खाली बस वाली विशेष !

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  2. मुझे पंख चाहिए, पंख, पंख...

    सुन्दर अनुवाद मनोज भाई , बधाई .

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  3. ख़ूब अच्‍छा अनुवाद मनोज भाई। इन कविताओं से गुज़रते हुए आमीखाई के अपने अनुवाद के दिन याद आए। इस कवि ने साल भर अपने साथ रखा मुझे और जीवन भर के लिए बहुत कुछ जोड़ दिया मुझमें। मैं जल्‍द ही कुछ कविताएं आपको भेजूंगा, जिन्‍हें अनुवाद करना चाहता था पर दूसरी उलझनों में बिखर कर रह गया। कुछ बहुत गज़ब के अनुवाद हमारे सम्मिलित काम 'धरती जानती है' के बाद भी अशोक पांडे ने किए आमीखाई के, आपने देखे होंगे।

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  4. शिरीष भाई, सचमुच बहुत अच्छा लगा यह जानकर कि आप जिन कविताओं के अनुवाद करना चाहते थे उनके अनुवाद के लायक आप मुझे पाते हैं. मुझे उन कविताओं का इंतज़ार है. जब मैं येहूदा आमिखाई की कविताओं का अनुवाद कर रहा था, उसी समय मुझे चन्दन ने बताया कि उनका एक अनुवाद 'धरती जानती है' के नाम से आ चुका है. बहुत मुश्किल से वह किताब हाथ लगी और तबसे मैं दुहराव से बचने के लिए उन्हीं कविताओं के अनुवाद करता हूँ जो उस संग्रह में नहीं हैं. अशोक भाई के अनुवाद मैं पढ़ता रहा हूँ, येहूदा आमिखाई के इस किताब के अतिरिक्त उनके द्वारा किए गए अन्य अनुवादों के बारे में मुझे अब तक पता न था, मैं उन्हें जरूर पढ़ना चाहूंगा.

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  5. आपके इस महान काम के लिए आपको धन्यवाद, अनुवाद की कला में आप बिलकुल सिधस्त हैं और हम जैसे पाठकों के लिए भागीरथ.

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  6. आपके इस महान काम के लिए आपको धन्यवाद, अनुवाद की कला में आप बिलकुल सिधस्त हैं और हम जैसे पाठकों के लिए भागीरथ.

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