Wednesday, August 17, 2011

ईमान मर्सल : मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करने वाली मार्क्स

ईमान मर्सल की एक और कविता...



मार्क्स का सम्मान : ईमान मर्सल
(अनुवाद : मनोज पटेल)

स्त्रियों के अंतःवस्त्रों से भरे
चमचमाते शो केसों के सामने 
मैं रोक नहीं पाती खुद को 
मार्क्स को याद करने से. 

मार्क्स का सम्मान करना ही वह इकलौती चीज थी 
जिसे साझा करते थे मेरे सभी चाहने वाले 
और मैनें इजाजत दी उन्हें -- गोकि अलग-अलग अनुपातों में -- 
अपनी देंह के भीतर छिपी 
कपड़े की गुड़िया को नोचने-खसोटने की.

मार्क्स
मार्क्स
मैं कभी माफ़ नहीं करने वाली तुम्हें.  
                    :: :: :: 

2 comments:

  1. वाह..क्या खूब....अनुपम

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  2. तुम्हारी सहेली थी
    वह तो बाकायदा गाँधी आश्रम में रहती थी
    उसकी बेटी ने चुना था एक शंकराचार्य का मठ
    पड़ोसन तो बस बुहारने जाती थी मस्जिद
    कभी पूछना उनकी कहानी.
    कुछ बच्चियां स्कूल में ही थी तभी......
    तो अनेक अपने घरों में ही
    गुडिया से खेलने की उम्र में बड़ी कर दी गई थी.
    ब्रह्मा ने नहीं बख्शी थी खुद अपनी सगी बेटियाँ
    जो आज भी तस्वीर में उनकी जंघाओं पर विराजी दिखती हैं
    तुम किस किस को माफ़ नहीं करोगी ईमान ??
    और किसने दे दिया तुम्हे माफ़ करने का अधिकार??
    पहले सजा देने की ताकत हासिल करो ईमान
    पहले मुजरिम को मुजरिम कहने का होंसला बांटो
    सुलगाओ वो चिंगारी जो जला दे उस पूरी फसल को
    जो नारी देह को धरती मानकर उगाई गई है.
    हिला दो वे चूलें जिन पर
    टिके हैं-
    पक्षपाती स्म्रतियो,भाष्यों,श्लोकों.पारों,हुकुमो,बयानों की शक्ल में
    नपुंसक उपदेश.
    पहले इन सब को सजा दे लो
    उसके बाद ही माफ़ करना... उसे जिसके नाम पर "भी"
    तुम्हे कुछ भेड़िये मिले थे.

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