कवि, कथाकार एवं अनुवादक मनीषा कुलश्रेष्ठ के अनुवाद आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. हाल ही में वे यूरोप प्रवास से लौटी हैं. पेश हैं उनकी ताजा कविताएँ...
ट्रेन में हूँ,
एक तारा साथ चल रहा है,
ये तुम हो क्या?
रात की ट्रेन है
म्युनिख से वेनिस.
अजब उदासी है,
लिपटी हुई त्वचा से
उतरती नहीं.
मन है कि पका हुआ है,
देह है कि उमड़ती चली जाती है
ये व्यातिक्रम नया है.
वरना होता तो यह है कि
मन दुखने से बहुत पहले
देह विरक्त होती है,
एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी है,
कोई छोटा पुराना - सा स्टेशन..
दो बजे हैं,
कोई कर्मचारी सीटी बजा रहा है,
रूमान से भरी...उदास सीटी...
ऊपर पाईन के पेड़ हिल रहे हैं.
वो सीटी मुझे तुम्हारी पुकार क्यों लगी?
घर पर / सबकी उपस्थिति में
हमारे साझे शब्द कोष में
तुम्हारा यूँ मुझे पुकारने का अर्थ है
मेरी पथराती देह में
हिरणों का दौड़ना
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एक तारा साथ चल रहा है,
ये तुम हो क्या?
रात की ट्रेन है
म्युनिख से वेनिस.
अजब उदासी है,
लिपटी हुई त्वचा से
उतरती नहीं.
मन है कि पका हुआ है,
देह है कि उमड़ती चली जाती है
ये व्यातिक्रम नया है.
वरना होता तो यह है कि
मन दुखने से बहुत पहले
देह विरक्त होती है,
एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी है,
कोई छोटा पुराना - सा स्टेशन..
दो बजे हैं,
कोई कर्मचारी सीटी बजा रहा है,
रूमान से भरी...उदास सीटी...
ऊपर पाईन के पेड़ हिल रहे हैं.
वो सीटी मुझे तुम्हारी पुकार क्यों लगी?
घर पर / सबकी उपस्थिति में
हमारे साझे शब्द कोष में
तुम्हारा यूँ मुझे पुकारने का अर्थ है
मेरी पथराती देह में
हिरणों का दौड़ना
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प्रवास - 2 वेनिस
आज सुबह से सब गलत हुआ
देर से नींद खुली
ब्रेकफास्ट छूट गया
उतरते हुए सीढ़ी से
पैर फिसल गया
गर्म कॉफी से मुँह जल गया
वापस रखने की जल्दी में
तुम हैरान होगे जान कर.
मैं दिन भर घूमी हूँ और
रात को जागी हूँ लगातार.
तकियों से, आईनों से बातें की हैं.
धूप में घूम कर ताम्बई हो गई हूँ,
रात में जाग कर आँखे
आज सुबह से सब गलत हुआ
देर से नींद खुली
ब्रेकफास्ट छूट गया
उतरते हुए सीढ़ी से
पैर फिसल गया
गर्म कॉफी से मुँह जल गया
वापस रखने की जल्दी में
प्याला हाथ से छूट गया
कुछ वेनिस की गलियों – कैनालों का गुँजल
कुछ भाषा का अज्ञान, कुछ हड़बड़ी.
जाना था मोरानो द्वीप
गलत बोट में चढ़,
पहुँच गई
कारखानों और मजदूरों से भरे
किसी अनजान द्वीप,
भटकाव की थकान
अकेले होने की कसक
कुछ भाषा का अज्ञान, कुछ हड़बड़ी.
जाना था मोरानो द्वीप
गलत बोट में चढ़,
पहुँच गई
कारखानों और मजदूरों से भरे
किसी अनजान द्वीप,
भटकाव की थकान
अकेले होने की कसक
लौटने से पहले कहीं थमना चाहती थी
कि
एक छोटी सी, उपेक्षित चर्च दिखी,
उसके रोशनदानों से
बुलाता - सा संगीत गूँजा,
भीतर झाँका, कोई नहीं था
ऊपर की बॉलकनी में जरूर कोई था
जो बजा रहा था
तल्लीनता से पियानो पर
कि
एक छोटी सी, उपेक्षित चर्च दिखी,
उसके रोशनदानों से
बुलाता - सा संगीत गूँजा,
भीतर झाँका, कोई नहीं था
ऊपर की बॉलकनी में जरूर कोई था
जो बजा रहा था
तल्लीनता से पियानो पर
कोई आध्यात्मिक उदास / विरक्त संगीत
भीतर बस ठण्डी बैंच थी,
सामने थे यीशू
भीतर बस ठण्डी बैंच थी,
सामने थे यीशू
सर झुकाए...विवश...सूली पर.
मैं ने सर टिका दिया
ठण्डी बेंच पर
मैं ने सर टिका दिया
ठण्डी बेंच पर
तब तक रोती रही,
जब तक बजती धुन रुक न गई
एक मिनट को मौन न हो गया.
बाहर निकली तो मन हल्का था
अब मुझे अपना रास्ता पता था.
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प्रवास - 3 (फ्लोरेंस) जब तक बजती धुन रुक न गई
एक मिनट को मौन न हो गया.
बाहर निकली तो मन हल्का था
अब मुझे अपना रास्ता पता था.
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तुम हैरान होगे जान कर.
मैं दिन भर घूमी हूँ और
रात को जागी हूँ लगातार.
तकियों से, आईनों से बातें की हैं.
धूप में घूम कर ताम्बई हो गई हूँ,
रात में जाग कर आँखे
काले घेरों में धँस गई हैं,
मिलोगे तो पहचानोगे तक नहीं.
मैं बहुत भावुक हिन्दी गाने सुन रही हूँ
नीचे गली में जो किशोर जोड़ा
एक दूसरे को घण्टों से चूम रहा था
लौट गया है सायकिल पर
उनके लौट जाने से गली सुनसान हो गई है.
पिछले पूरे पाँच दिन दरअसल बहुत सोचा
पिछले पूरे पाँच दिन विश्लेषण किया
प्रेम को लेकर......
क्या मैं जादूगरनी बन जाती हूँ?
मोह में बाँधना चाहती हूँ
और
तुम भागते हो....
जादू टूटने की हद के पार.
अब मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगी.
बशर्ते कि
मिलोगे तो पहचानोगे तक नहीं.
मैं बहुत भावुक हिन्दी गाने सुन रही हूँ
नीचे गली में जो किशोर जोड़ा
एक दूसरे को घण्टों से चूम रहा था
लौट गया है सायकिल पर
उनके लौट जाने से गली सुनसान हो गई है.
पिछले पूरे पाँच दिन दरअसल बहुत सोचा
पिछले पूरे पाँच दिन विश्लेषण किया
प्रेम को लेकर......
क्या मैं जादूगरनी बन जाती हूँ?
मोह में बाँधना चाहती हूँ
और
तुम भागते हो....
जादू टूटने की हद के पार.
अब मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगी.
बशर्ते कि
तुम भी आकर थम जाओ मुझ पर.
डर मुझे तुम्हें खोने का नहीं है.
खुद के पलट आने का है.
आतुर नदी जैसे कभी लौट आए स्रोत की तरफ.
डर मुझे तुम्हें खोने का नहीं है.
खुद के पलट आने का है.
आतुर नदी जैसे कभी लौट आए स्रोत की तरफ.
ओ मेरे संशय,
मेरे भय तुमसे नहीं हैं
मेरे भय स्वयं मुझसे हैं
जैसे प्रकृति को ही भय हो
किसी दिन धुरी पर घूमती धरा
करती हुई परिक्रमा सूर्य की
उकता कर ठिठक जाए
निकल जाए दूर
फिसल अपनी कक्षा से
तुम फिर हँसोगे,
कहोगे - पगलैट !
करूँ क्या, पैदा ही
भगोड़े, पलायनवादी सितारों में हुई हूँ.
मेरे भय स्वयं मुझसे हैं
जैसे प्रकृति को ही भय हो
किसी दिन धुरी पर घूमती धरा
करती हुई परिक्रमा सूर्य की
उकता कर ठिठक जाए
निकल जाए दूर
फिसल अपनी कक्षा से
तुम फिर हँसोगे,
कहोगे - पगलैट !
करूँ क्या, पैदा ही
भगोड़े, पलायनवादी सितारों में हुई हूँ.
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kya karun .paida hi bhagode palayanvadi sitare me hui hoon... sundar bhav liye achhi hai ye pankti
ReplyDeleteबेहतरीन!!!!!!
ReplyDeleteडर मुझे तुम्हे खोने का नहीं
खुद के पलट आने का है
आतुर नदी जैसे लौट आये स्रोत की तरफ.
pravas ki ye kavitaen man ko lubha gain. Manisha badhai aur manoj ji share karne ke liye shukriya..
ReplyDeleteकिसी गैर-मुल्क के अनजान हलको का एकाकी सफर, वह बेशक लुभावना और दिलचस्प लगता हो, ऐसे में आत्मीय जनों की याद उदास तो करती ही है, लेकिन यही उसासी जब कविता में रूपान्तरित होकर सामने आती है तो मन को नया सुकून भी देती है। प्रवास श्रृंखला की ये कविताएं तरल संवेदना का एक आत्मिक संसार रचती हैं, इसीलिए अलग तरह का असर छोड़ जाती हैं। बधाई।
ReplyDeleteकिसी गैर-मुल्क के अनजान हलको का एकाकी सफर, वह बेशक लुभावना और दिलचस्प लगता हो, ऐसे में आत्मीय जनों की याद उदास तो करती ही है, लेकिन यही उसासी जब कविता में रूपान्तरित होकर सामने आती है तो मन को नया सुकून भी देती है। प्रवास श्रृंखला की ये कविताएं तरल संवेदना का एक आत्मिक संसार रचती हैं, इसीलिए अलग तरह का असर छोड़ जाती हैं। बधाई।
ReplyDeleteचर्च छोटी सी नहीं छोटा सा होना चाहिए था मेरे विचार से..
ReplyDeleteबाकी कविताएँ तो सुन्दर हैं ही.
बड़ी सहज और भावपूर्ण कवितायेँ हैं मनीषा जी की !बधाई उन्हें ! मनोज जी, आभार !
ReplyDeleteachhi kavitayen....
ReplyDeletesheshnath pandey
प्रेम में भीगी अर्थपूर्ण अभिवय्क्तियाँ!!
ReplyDeleteअपने सामने स्वयं को गुनगुनाने-बुलाने और खुद से बेबाक बतियाने जैसी कल्पनाएं... वाह, सचमुच कविता जैसी कविताएं... रचनाकार को बधाई... मनोज जी, उपलब्ध कराने के लिए आपका आभार...
ReplyDeleteबाहर को विस्तार देने से बेहतर ..... भीतर-भीतर का आलाप ... लयबद्ध ... अभिव्यक्ति को प्रवाह देता हुआ ... बहुत अच्छी कविताएं ..... धन्यवाद मनोज जी ....
ReplyDeleteकविता का दूसरा हिस्सा ज्यादा प्रभावी लगा,बाकी आपका मनमौजीपन ...अच्छा लगा
ReplyDeleteदोस्तों आप सभी का शुक्रिया, कविताएँ लिखना अभी सीख रही हूँ. @कुमार मुकुल जी कविता का दूसरा हिस्सा प्रचलित कविताओं जैसा ही है न, सधा हुआ और सीधी राह चलता हुआ, बाकि सारी शब्दावली विपथगामी है ........अटपटी, यायावरी के एकांत से कुकुरमुत्तों सी ऊपजी जिसे मैंने कविता बना दिया. आपका सभी के कमेंट मानीखेज़ हैं.
ReplyDeleteओ मेरे संशय/मेरे भय……… जैसे प्रर्ति को ही भय हो। ................ कितना मार्मिक और
ReplyDeleteकविताएँ बहुत अच्छी हैं , गहरे मन में उतरती हुई।
ReplyDeleteसुन्दर कविताएं !!
ReplyDeletesundar abhivyakti :)
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