येहूदा आमिखाई की कविता...
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जब मुझे पेटदर्द होता है, महसूस करता हूँ
गोल-गोल पूरे ग्लोब जैसा.
जब सरदर्द होता है तो फूट पड़ती है हँसी
मेरे शरीर की गड़बड़ जगह से.
और जब रोता हूँ, वे ऎसी कब्र में डाल रहे होते हैं मेरे पिता को
जो बहुत बड़ी होती है उनके लिए, और वे बढ़ने भी नहीं वाले
उसकी नाप का होने के लिए.
और अगर मैं कोई साही होता हूँ, तो उल्टा साही होता हूँ मैं,
कांटे उगते हैं अन्दर की तरफ और चुभते हैं.
और अगर मैं पैगम्बर एज़िकील हूँ, तो
रथ के सपने में मुझे दिखते हैं
सिर्फ गोबर से लिथड़े बैलों के पाँव और गंदे पहिए.
मैं अपनी पीठ पर एक भारी कुर्सी ढो रहे किसी कुली की तरह हूँ
जो उसे कहीं बहुत दूर ले जा रहा है
और नहीं जानता कि उसे नीचे रख उसपर बैठा भी जा सकता है.
मैं थोड़ा पुरानी
मगर बिलकुल सही निशाना लगाने वाली राइफल की तरह हूँ :
जब मैं प्यार करता हूँ, तगड़ा झटका लगता है पीछे बचपन की तरफ
और ये तकलीफ देता है.
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Kaante ugte hain andar kee taraf aur chubhte hain..
ReplyDeleteनिरंतर दर्द और पीड़ा ढोते आदमी की अनुभूतियाँ बड़ी विकट होती हैं और अभिव्यक्ति में भी उतर आतीं हैं ! येहूदा अमीखाई की एक सशक्त रचना ! आभार मनोज जी !
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