Saturday, August 20, 2011

ईमान मर्सल : बाथरूम की सफेदी पर धब्बे मैनें नहीं लगाए थे


ईमान मर्सल की कविता... 











चीजें मुझे चकमा दे देती हैं : ईमान मर्सल 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक दिन गुजरूंगी उस मकान के सामने से 
जो बरसों तक घर रहा मेरा 
और कोशिश करूंगी कि मन ही मन न नापूं 
अपने दोस्तों के घर से उसकी दूरी. 

वह मोटी विधवा अब मेरी पड़ोसन नहीं रही 
प्रणय के लिए जिसका रूदन अक्सर जगा दिया करता था मुझे. 

मुझे ईजाद करनी होंगी कुछ चीजें भ्रम से बचने के लिए. 
अपने कदम गिनना, शायद, 
या निचला होंठ काटना हल्के दर्द का मजा लेते हुए, 
या अपनी उँगलियों को व्यस्त रखना 
पेपर टिश्यू का एक पूरा पैकेट फाड़ने में. 

तकलीफ से बचने के लिए 
छोटे रास्तों का सहारा नहीं लूंगी. 
मटरगश्ती करने से खुद को रोकूंगी नहीं  
जब अपने दांतों को सिखा रही होऊंगी उस नफरत को चबाना 
जो अपने ही भीतर से पैदा होती है,
और बर्दाश्त करना 
उन सर्द हाथों को जिन्होनें मुझे उसकी तरफ धकेला था, 
याद रखूंगी 
कि बाथरूम की सफेदी पर धब्बे मैनें नहीं लगाए थे 
अपने खुद के अँधेरे से. 

बेशक, चीजें मुझे चकमा दे देती हैं 
दीवाल ने मेरे ख़्वाबों में दखलंदाजी नहीं की थी
और मौके की बेढंगी प्रकाश व्यवस्था से मेल खाने के लिए
पेंट के रंग की कल्पना मैनें नहीं की थी. 

यह मकान बरसों मेरा घर रहा. 
वह कोई छात्रावास नहीं था 
जहां मैं छोड़ देती अपना गाउन 
दरवाजे के पीछे किसी कील पर 
या लेई से चिपकाती पुरानी तस्वीरें.
लव इन द टाइम आफ कालरा  से छांटे गए वे रूमानी जुमले 
बेतरतीब हो गए होंगे अब तक तो 
और मिलकर दिखने लगे होंगे 
किसी मसखरी बात जैसे.
                            :: :: :: 

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