स्पेन के कवि अंजेल गोंजालेज का जन्म 1925 में हुआ था. शुरूआती जीवन स्पेन के गृह युद्ध से आक्रान्त रहा जिसमें उन्होंने एक भाई को गँवा दिया और दूसरे भाई को देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. वे एक वकील बने और मैड्रिड की सिविल सेवा में भी काम किया. 1956 में कविताओं की पहली किताब प्रकाशित हुई जिसकी काफी चर्चा हुई. अब तक कविता की दस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. कई कविता-संग्रहों का सम्पादन एवं आलोचना कार्य भी प्रकाशित.
मर चुके लोगों पर इल्जाम : अंजेल गोंजालेज
(अनुवाद : मनोज पटेल)
बहुत मतलबी होते हैं मर चुके लोग :
हमें इतना रुलाते हैं और जरा भी परवाह नहीं करते,
चुपचाप पड़े रहते हैं सबसे बेढब जगहों पर,
चलना भी नहीं चाहते, उन्हें ढोकर ले जाना पड़ता है
कब्र तक अपने ऊपर लादकर
जैसे कि छोटे से बच्चे हों वे. कितने वजनी !
अजीब ढंग से कठोर उनके चेहरे
जैसे हमपर आरोप लगाते किसी बात का, या चेतावनी देते ;
बुरे दिल वाले होते हैं वे, बुरे नमूने,
हमेशा, हमेशा हमारी ज़िंदगी की सबसे खराब चीजें.
मर चुके लोगों के बारे में सबसे बुरी बात तो यह है
कि किसी भी तरीके से आप उन्हें जान से नहीं मार सकते.
उनका अनवरत विध्वंसक काम
इसी वजह से बेहिसाब होता जाता है.
संवेदनहीन, उदासीन, जिद्दी, भावशून्य,
अपने अक्खड़पन और खामोशी के साथ
उन्हें एहसास भी नहीं होता कि वे क्या कुछ बिगाड़ रहे हैं.
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बहुत खूब, मनोज भैया। अलग ही तरह के (शानदार) कवि हैं ये, जिनसे पहले का परिचय नहीं था मेरा।
ReplyDeletebahut badhiyaa
ReplyDeletebahut bhavuk kavita hai ye... apno ke kai chitr aankho me aaye ise padhte hue.. it has made me really emotional...
ReplyDeleteमरे हुए लोगों का ऐसा विश्लेषण पहली बार पढ़ा है.... अभूतपूर्व !
ReplyDeleteएक बढ़िया कविता का शानदार अनुवाद किया है आपने.आप इतना साधिकार और समर्थ अनुवाद करते हैं कि हर बार मुझे अवाक् छोड़ जाते हैं....इतनी ही बढ़िया रचनाएं पढ़वाते रहियेगा....आभार.
ReplyDeleteबेहद प्रभावशाली ! मरे हुओं पर एक ज़िंदा नज़्म ! बहुत बहुत शुक्रिया ,मनोज जी !
ReplyDeleteगज़ब नज़रिया... शोक को शून्य करता नया दृष्टिकोण... मुर्दों पर जि़दा कविता... उपलब्ध कराने के लिए आभार...
ReplyDeleteआपका अनुवाद हर बार एक शानदार कविता से रूबरू करवाता....बहुत बेहतरीन कविता... ऐसे ही हमे अच्छी -अच्छी कविताएँ पढ़वाते रहें.... आभार॥
ReplyDeleteमनोजभाई ....फिर एक घायल कर देने वाली कविता....एक छुपा हुआ गिल्ट कांच की तरह फुट ता है अन्दर ही अन्दर ....विष्णु खरे सर ने सही कहा है की हम सब किसी न किसी हत्या के लिए जिम्मेदार है ...शायद ये कविता उस गिल्ट की यद् दिलाती है.......बहोत अच्छा अनुवाद ....बधाई....श्रीधर नांदेडकर
ReplyDeleteitna acha sahitya hum tak pahuchane ke lite vishesh Anbar jagdish
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