Monday, November 29, 2010

निज़ार कब्बानी की दस कवितायेँ


शुरुआती कविता 
शुरुआत में थीं कविताएँ. और मेरे ख्याल से 
अपवाद था सादा-सपाट गद्द्य
गहरा-फैला समुद्र था पहले 
और सूखी धरती अपवाद थी शायद 
उरोजों 
 की पुष्ट गोलाइयां थीं पहले 
और अपवाद थीं सपाट रेखाएँ
पहले पहल तुम थीं मेरी जान, सिर्फ तुम
बाद में थीं दीगर औरतें.
              * *
कविता के साथी !
इक दरख़्त हूँ मैं आग का और इमाम हूँ हसरत का,
लाखों-करोड़ों आशिकों की जुबां मैं ही.
मेरे आगोश में सोती हैं तरसती जानें
कभी फाख्ते रचता हूँ जिनकी खातिर
तो बिरवे कभी चमेली के.
साथियों,
इक ज़ख्म हूँ मैं इन्कार करता हुआ हमेशा 
चाकू की हुकूमत से !
              * *
क्या चला जाता ख़ुदा का ?
क्या चला जाता ख़ुदा का भला,
जिसने सूरज रचा जन्नत में चमकते सेब की तरह 
जिसने बहाव बनाया पानी का और खड़े किए पहाड़ इत्ते बड़े; 
क्या चला जाता उसका आखिर,
गर यूं ही मजे में 
बदल दी होतीं उसने फितरतें हमारी 
मुझे बनाया होता थोड़ा कम पुरजोश
और
थोड़ा कम खूबसूरत बनाया होता तुम्हें.
              * *
बेवकूफी 
जब मिटा दिया तुम्हारा नाम
याददाश्त की किताब से
पता ही नहीं था कि
मिटा रहा हूँ
आधी ज़िंदगी अपनी.
              * *
कप और ग़ुलाब 
काफीघर को गया मैं
भुलाने की खातिर अपना प्यार 
और दफनाने को अपना ग़म,
मगर उभर आई तुम
मेरे काफी कप के तल से,
ग़ुलाब एक सफ़ेद जैसे.  
              * *
नज़रबंदी में प्यार 
इजाज़त चाहता हूँ तुम्हारी, जाने के लिए 
क्योंकि खून जिसे मैं सोचता था कि कभी नहीं बदलेगा पानी में 
हो चुका है पानी 
और आसमान जिसका नीला कांच जो मैं सोचता था 
कि टूटेगा नहीं कभी.........गया है टूट 
और सूरज 
जिसे लटका दिया करता था मैं तुम्हारे कानों में 
झुमके की तरह 
गिर कर जमीन पर मुझसे...... हो गया है चूर-चूर 
और शब्द जिनसे ओढ़ा दिया करता था तुमको जब सो जाती थी तुम 
उड़ भागे हैं डरे हुए परिंदों की तरह
छोड़ कर तुम्हें नग्न. 
              * *
शुरूआत 
छुपाता नहीं हूँ कोई राज़...एक खुली किताब है दिल मेरा  
मुश्किल नहीं है तुम्हारे लिए पढ़ना इसे 
शुरूआत उस दिन से मानता हूँ अपनी ज़िंदगी की, मेरी जान, 
जिस दिन से लगाया दिल तुमसे. 
              * *
उदासी की नदियाँ 
तुम्हारी आँखें 
जैसे उदासी की दो नदियाँ 
दो नदियाँ संगीत की
जो बहा ले जाती हैं मुझे बहुत दूर 
समय की पहुँच से परे,
संगीत की दो नदियाँ मेरी जान 
जो 
भूल गईं अपना रास्ता 
और कर दिया मुझे पथभ्रष्ट. 
              * *
समीकरण 
प्यार करता हूँ तुम्हें 
इसलिए हूँ मैं 
वर्तमान में.
और लिखकर प्रिय, 
वापस पा लेता हूँ अतीत.
              * *
अंगूर 
की बेल 
हर शख्स जो चूमेगा तुम्हें मेरे बाद 
पाएगा होंठों पर तुम्हारे 
अंगूर 
 
की बेल एक छोटी सी 
जिसे रोप दिया है 
 मैनें वहां.
              * *
(अनुवाद : Manoj Patel)
Nizar Qabbani, Padhte Padhte 

Sunday, November 28, 2010

शेख़ चिल्ली और कुत्ते

पाकिस्तान से एक लोक कथा

जनाब शेखचिल्ली दुनिया में सिर्फ दो चीजों से डरते थे. घर में अपनी बीवी से और बाहर कुत्तों से. सो वह घर में बीवी और बाहर कुत्तों से ज़रा बचकर ही रहते. गोकि उन्होंने भी सुन रखा था कि भौंकने वाले कुत्ते काटते नहीं, लेकिन इस अफवाह पर उन्हें यकीन नहीं था. उन्हें यह भी लगता था कि क्या पता इस अफवाह से कुत्ते वाकिफ भी हैं या नहीं सो वह ऐसा ख़तरा उठाने की कभी सोचते भी नहीं थे. 

गाँव के कुत्तों को भी उनमें कोई रूचि नहीं रह गई थी. उनकी कद-काठी, पहनावा और शक्ल कुत्तों को ज़रा भी पसंद नहीं थी. शेख़ चिल्ली दुबले-पतले और नाटे तो थे ही उनका चश्मा अजीब ढंग से उनकी नाक पर टिका रहता था.  

एक दिन की बात शेख़ चिल्ली अपने चचा जान से मिलने के लिए बगल के गाँव में जा रहे थे. उस गाँव के अजनबी कुत्तों ने ऎसी अजीब शक्ल-सूरत वाला इंसान पहले कभी नहीं देखा था. आज जब पहले-पहल उन्हें ऐसा मौक़ा नसीब हुआ तो वे जोर-जोर से भौंकने लगे. वे इस अजीब इंसान का पीछा छोड़ने को तैयार न थे. जहां भी शेख़ चिल्ली जाते कुत्ते भी पीछे-पीछे भौंकते हुए लगे रहते.

शेख़ चिल्ली ने कुत्तों को पीछा करते देख अपनी चाल बढ़ा दी. लेकिन वह जितना तेज चलते कुत्ते उतनी ही जोर से भौंकते. 

आखिरकार शेख़ चिल्ली के सब्र का बाँध टूट गया. उन्हें लगा कि ये बदमाश कुत्ते ऐसे नहीं मानने वाले, कुछ करना ही पड़ेगा. उन्होंने किसी हथियार की तलाश में इधर-उधर नजर फिराई. बगल में ही एक ईंट पड़ी थी. वह झुक कर उसे उठाने लगे. लेकिन ईंट हिल भी नहीं रही थी, वह तो जमीन में गड़ी थी. पूरी ताकत लगा देने के बाद भी शेख़ चिल्ली उसे उठाने में कामयाब नहीं हुए. वे नाराज़ हो गए और गुस्से से भरकर गाँव वालों को गालियाँ देने लगे.

एक गाँव वाला उधर से गुजर रहा था. उसने शेख़ चिल्ली से उनकी नाराजगी का सबब पूछा.

" बड़ा अजीब गाँव है तुम्हारा." शेख़ चिल्ली गुस्से में ही चिल्लाए, " यह भी कोई तरीका है. तुम लोग कुत्तों को खुला रखते हो और ईंटों को बांध कर." 

( नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित "आओ, हँसे एक साथ" से साभार, अनुवाद मोहिनी राव का ) 
Shekh Chilli

Friday, November 26, 2010

निज़ार कब्बानी की कविताएँ


ज्यादा खूबसूरत 
औरतें भी होती हैं खूबसूरत 
मगर उनसे भी खूबसूरत होती है 
हमारे कागजात पर उनके पैरों की छाप.  

मुहब्बत का हलफनामा 
तुम मुहब्बत  का हलफनामा चाहती हो मुझसे 
दस्तखतशुदा बड़े-बड़े अक्षरों में ? 
कहता हूँ यह सरेआम 
कि तुम हो मेरे लिए आखिरी स्त्री. 
लेकिन यह हलफनामा क्यों ? बताओ मुझे, 
क्या समुन्दर हो सकता है जामिन 
किसी टापू की सरहदों का 
हमेशा के लिए ?

डरता हूँ 
डरता हूँ अपनी महबूबा से यह कहने में 
कि प्यार करता हूँ उससे ;
बोतलबंद शराब खो ही देती है 
कुछ न कुछ 
जब ढाली जाती है पैमाने में.

लफ़्ज़ों से चित्रकारी 
बीस साल मुहब्बत की राहों में 
मगर अभी तक राहें अनजान.
कभी हुआ विजेता,
पर ज्यादातर मिली हार ही. 
बीस साल, ऐ किताबे मुहब्बत 
पर अभी तक पहले सफ़े पर.

(अनुवाद : Manoj Patel)
Nizar Qabbani, Padhte Padhte 

Thursday, November 25, 2010

नाओमी शिहाब न्ये की कविता

(नाओमी शिहाब न्ये का परिचय और उनकी कविताएँ नई बात पर आप पहले ही पढ़ चुके हैं. आज उनकी एक और कविता. - Padhte Padhte)


फिलीस्तीनी कैसे रखते हैं खुद को गर्म 


एक शब्द चुनो और उचारो इसे बार-बार,
जब तक कि यह शोला न भड़का दे तुम्हारे मुंह में.
अधफेरा , जो रहता है थामे और अल्फर्द  जो रहता है अकेले,
हमारे जैसे लोगों ने ही रखे थे इन सितारों के नाम.
हर रात जमा हो जाते हैं वे 
तमाम ग्रहों के बीच के लम्बे रास्ते पर.
ऊंघते और टिमटिमाते हैं वे अपनी जर्द आँखों में 
न सही न गलत.
दिराह, छोटे से घर,
खोलकर अपनी दीवारें अन्दर ले लो हमें.

सूख चुका है मेरा कुआं,
बंद कर दिया है गाना अंगूरों ने मेरे बाबा के.
मैं भड़का रही हूँ कोयला, रो रहे हैं मेरे बच्चे.
कैसे बताऊंगी उन्हें कि सितारों से है उनका नाता ?
किले बनाए उन्होंने सफ़ेद पत्थरों के और कहा कि, "यह है मेरा."
कैसे सिखाऊंगी उन्हें मैं प्यार करना मिजार, वील  और क्लोक  से,
कि इनके पीछे है शोलों को हवा करता हमारा एक पुरखा ?
वही ताजा करता है हमारी साँसों की सियाह हवा को.
वही बताता है कि उगेगा वील  जरूर
जब तक कि देख न लें वे हमें 
खुशकिस्मत पहाड़ों पर 
चमकते और फैलते अंगारों की तरह.

अच्छा तो बहुत बनाई मैनें बातें.
ठीक ठीक कुछ पता नहीं मुझे मिजार  के बारे में.
बस इतना जानती हूँ कि 
गर्म रखने की जरूरत होती है हमें खुद को यहाँ धरती पर   
और अगर दुशाला तुम्हारा हो मेरे जितना ही पतला,
सुनाने ही लगोगे कहानियां. 

(अनुवाद : Manoj Patel) 
 Naomi Shihab Nye

Wednesday, November 24, 2010

माइआ अंजालो की कविताएँ


सबकुछ 
मुलायम हो जाओ दिन, मखमल की तरह मुलायम,
आ रहा है मेरा सच्चा प्यार.
धूल धूसरित सूरज, चमको थोड़ा ज्यादा,
तैयार कर लो अपने सुनहरे रथ को.

नर्म हो जाओ हवा, रेशम की तरह नर्म,
कुछ कह रहा है मेरा सच्चा प्यार.
खामोश कर लो परिंदों अपने चांदी जैसे गले को,
मुझे तो चाह है उसकी सोने जैसी आवाज़ की.

आ जाओ मौत, आ जाओ फ़ौरन,
बुनने लग जाओ मेरा काला कफ़न.
शांत हो जाओ ऐ दिल, मौत की तरह शांत,
विदा हो रहा है मेरा सच्चा प्यार. 



वे घर चले गए 
वे घर चले गए और बताया अपनी पत्नियों से,
कि जीवन में कभी नहीं मिले वे,
मुझ जैसी लड़की से,
लेकिन....वे घर चले गए.

उन्होंने कहा तो कि चमचमा रहा था घर मेरा,
कि कभी घटिया बात की ही नहीं मैनें,
कि एक रहस्य सा रहा मेरे इर्द-गिर्द,
लेकिन....वे घर चले गए.

सभी मर्दों की जुबां पर थीं तारीफें मेरी,
उन्हें पसंद 

थी
 

 मेरी हँसी, मेरी हाज़िरजवाबी, मेरे कूल्हे,


वे एक रात बिताते मेरे संग या दो या तीन,
वे घर चले गए....लेकिन.


निद्राहीन 
 कुछ रातें होती हैं
 जब नींद शर्मीली हो उठती है,
 दूर और मगरूर.
 इसे अपने पाले में करने के
 मेरे सारे छल बल
 निरर्थक साबित होते हैं 
और 
आहत अभिमान की तरह 
वे हो उठते हैं 
और अधिक पीड़ादायक. 


एक ख्याल 
अपना हाथ मुझे दो 

इतनी जगह बनाओ मेरे लिए
कि कर सकूं तुम्हारा नेतृत्व और अनुसरण  
कविता के इस तेज से परे. 

दूसरों के लिए रहने दो 
मर्मस्पर्शी शब्दों की निजता 
और प्रेम की असफलता से प्रेम 

मुझे तो तुम्हारा हाथ चाहिए 
अपना हाथ मुझे दो. 

(अनुवाद : Manoj Patel) 

Maya Angelou, Padhte Padhte

Monday, November 22, 2010

निकानोर पार्रा की कविताएँ

( 1914 में जन्मे निकानोर पार्रा पाब्लो नेरुदा के साथ चिली के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में शुमार किए जाते हैं. इस गणितज्ञ कवि को कई बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है. पार्रा खुद को 'एंटी-पोएट'  कहते हैं और कविता में ही कह चुके हैं कि, "मैं अपना कहा हुआ सबकुछ वापस लेता हूँ....." - Padhte Padhte )

अदला-बदली 
30 साल की एक लड़की को 
मैनें बदल लिया 15 साल की 2 बूढ़ी औरतों से 

शादी के केक को बदल लिया 
बिजली से चलने वाली व्हील चेअर से 

मस्तिष्क ज्वर से पीड़ित एक बिल्ली को बदला 
18वीं सदी की एक उकेरी हुई कलाकृति से 

लगातार धधक रहे ज्वालामुखी को 
बहुत कम इस्तेमाल हुए एक हेलीकाप्टर से बदला 

एक क़त्ल को बदला मैनें एक नामी ब्रांड से 

और बाएँ जूते को बदल लिया दाएं जूते से. 
                      * *
कीकर के फूल 
बहुत साल पहले कीकर के खिले फूलों से ढँकी
सड़क पर टहलते हुए 
सबकुछ जानने वाले एक दोस्त से पता चला था 
कि शादी हो गई तुम्हारी.
उससे कह दिया था मैनें 
कि कुछ लेना-देना नहीं मुझे इससे 
कि मैनें कभी नहीं किया तुमसे प्यार 
- यह तो तुम जानती हो मुझसे बेहतर - 
फिर भी जब भी खिलते हैं कीकर के फूल 
- तुम विश्वास नहीं करोगी - 
वैसा ही एहसास होता है मुझे 
जब मुझ पर दे मारी थी उसने 
यह दिल तोड़ देने वाली खबर 
कि तुमने शादी कर ली है किसी और से. 
                     * * 
रोलर कोस्टर 
आधी सदी तक 
पाखंडी मूर्खों की 
स्वर्ग थी कविता. 
फिर मैं आया 
और बनाया अपना रोलर कोस्टर. 

ऊपर जाओ, अगर मन करे तुम्हारा.
लेकिन मैं नहीं होउंगा जवाबदेह 
अगर नीचे आओ तुम 
लहूलुहान मुंह और नाक लिए. 
             * *
(अनुवाद : Manoj Patel)
Nicanor Parra              

Thursday, November 18, 2010

पाब्लो नेरुदा की दो कवितायेँ

मलिका 
मैनें नाम दिया है तुम्हें मलिका.
हालांकि लम्बी और भी हैं तुमसे ज्यादा 
और पाकीजा भी
और तुमसे ज्यादा प्यारी भी.

लेकिन तुम्हीं हो मलिका.

जब चलती हो तुम सड़कों पर 
कोई पहचानता नहीं तुम्हें 
देख नहीं पाता तुम्हारा बिल्लौरी मुकुट,
नहीं देख पाता कोई उस लाल सोने के कालीन को 
जिस पर कदम रखती हो तुम 
वहां से गुजरते हुए,
उस बेवजूद कालीन को कोई देख नहीं पाता.

और जब दिखती हो तुम
गूंजने लगती हैं मेरे बदन में सारी नदियाँ,
आसमान हिला देती हैं घंटियाँ,
और एक स्तुति से भर उठती है दुनिया.

केवल तुम और मैं
मैं और तुम मेरी जान 
सुनो तो सही इसे. 

कुम्हार 
पूर्णता और सुकुमारता तुम्हारी देह की 
बदी हुई थी मेरे लिए.

जब फिराता हूँ अपने हाथ ऊपर 
दोनों हाथों में आ जाते हैं एक-एक कपोत 
जिन्हें तलाश थी मेरी ही,
मानो, मेरी प्यारी,
कच्ची मिट्टी से बनाया था उन्होंने तुम्हें 
मुझ कुम्हार के हाथों के लिए.

तुम्हारे घुटने, तुम्हारे स्तन 
कमर तुम्हारी
लापता अंग हैं मेरे 
प्यासी धरती के बिलों की तरह 
जिससे अलग कर दी थी उन्होंने एक आकृति,
और हम दोनों मिलकर 
एक नदी की तरह होते हैं पूर्ण,
पूर्ण, रेत के एक कण की तरह.

(अनुवाद : Manoj Patel)
Pablo Neruda, Padhte Padhte

Monday, November 15, 2010

मिरोस्लाव होलुब की तीन कविताएँ

[ चेक कवि मिरोस्लाव होलुब ( 1923-1998 ) पेशे से वैज्ञानिक थे. उनकी कविताओं में उनके वैज्ञानिक ज्ञान और अनुभव का प्रभाव स्पष्ट दिखता है. यहाँ पेश हैं उनकी तीन कविताएँ. - Padhte Padhte ]

हड्डियां 
बगल कर दीं हमने 
बेकार हड्डियां, 
रेंगने वाले जंतुओं की पसलियाँ, 
बिल्लियों के जबड़े,
तूफ़ान के कूल्हे की हड्डी,
और कांटेदार हड्डी किस्मत की.

आदमी के ऊंचे उठे सर को 
सहारा देने की खातिर 
हमें तलाश है 
एक रीढ़ की हड्डी की 
जो रह सके 
सीधी.

दरवाजा   
जाओ, जाकर खोलो दरवाज़ा 
क्या पता कि बाहर हो एक पेड़ 
या एक जंगल, एक बगीचा, 
या फिर शहर एक जादुई.

जाओ जाकर खोल दो दरवाज़ा 
क्या पता उलट-पुलट रहा हो कुछ कुत्ता कोई.
क्या पता दिखे तुम्हें कोई चेहरा, 
या आँख एक,
या तस्वीर की कोई तस्वीर. 

जाओ जाकर खोलो तो दरवाज़ा 
छंट जाएगा 
अगर कुहासा होगा कोई.

जाओ जाकर खोलो दरवाज़ा 
भले ही वहाँ केवल 
अन्धेरा छाया हो घुप्प, 
भले ही खाली हवा हो वहाँ, 
या न हो वहां 
कुछ भी.
जाओ और जाकर दरवाज़ा खोलो 

कम से कम 
एक हवा का झोंका
तो होगा वहां.

सूक्ष्मदर्शी यंत्र में 
यहाँ भी हैं स्वप्नदर्शी नज़ारे
चन्द्रमा के और उजाड़ पड़े एक जहाज के.
यहाँ भी हैं लोग तमाम 
खेत जोतने वाले किसान,
और कोठरियां
और योद्धा 
एक गाने की खातिर 
जो दे देते हैं अपनी जान.

कब्रिस्तान यहाँ भी हैं 
और प्रसिद्धि और बर्फ.
और यहाँ भी सुनाई दे रही खुसुर-पुसुर,
बगावत अकूत संपत्ति की.

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Miroslav Holub

Thursday, November 11, 2010

निज़ार कब्बानी की दो कवितायेँ

मेरे भीतर घूमती एक स्त्री 

किसी ने नहीं पढ़ा मेरा काफी-कप 
बिना जान लिए कि तुम्हीं हो मेरा प्यार, 
न ही बांची मेरे हाथों की लकीरें 
बिना पहचान लिए तुम्हारे नाम के चारो अक्षर,
नकारा जा सकता है सबकुछ 
अपने प्रियतम की खुशबू के सिवाय, 
और सबकुछ जा सकता है छिपाया 
अपने भीतर घूमती स्त्री के क़दमों की आहट के सिवाय,
सबकुछ है बहसतलब
सिवाय तुम्हारे नारीत्व के. 

क्या होना है हमारा 
अपने आने और जाने से ?
जब सभी काफी-घरों को याद हो चुका है हमारा चेहरा 
और सभी होटलों में दर्ज हो चुका है  हमारा नाम 
और फुटपाथ अभ्यस्त हो चुके हैं 
हमारे क़दमों की लय-ताल के ?

समुद्रमुखी छज्जे की तरह हम जाहिर हैं सारी दुनिया पर 
शीशे के एक कटोरे में 
दो सुनहरी मछलियों की तरह प्रत्यक्ष.

पुरुष का स्वभाव 

एक मिनट में हो जाता है पुरुष को 
किसी स्त्री से प्यार 
उसे भुलाने में लग जाती हैं सदियाँ. 

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Nizar Qabbani, Padhte Padhte    

Monday, November 8, 2010

उसने कहा था : निज़ार कब्बानी



1- तुम्हारे आने से पहले
    गद्द्य थी दुनिया 
    कविता तो अब हुई है पैदा. 

2 - कालीन पर तुम्हारे पाँव 
      नाक-नक्श हैं
      कविता के.  

3 - जब प्यार करता हूँ किसी औरत को 
      पेड़ सारे दौड़े चले आते हैं मेरी ओर
      नंगे पाँव.

4 - तुम्हारी खातिर मेरा प्यार जो 
     लफ़्ज़ों से है परे
     फैसला किया है मैनें
     खामोश रहने का.  

5 - अगर कोई बादल देता है तुम्हें
      मैं तुम्हें बारिश दूंगा.

6 - हज़ारों औरतों को मारकर मेरे भीतर
     तुम बन बैठी हो मलिका. 

7 - इनके अक्स में गुम हो जाती है मेरी लिखावट
     आईनों को याददाश्त कहाँ होती है.

8 - उतार फेंको अपने कपड़े 
      सदियों से करिश्मा नहीं हुआ कोई.

9 - जिस दिन तुमने क़ुबूल किया मेरा प्यार 
      उसी दिन हुआ मेरा जन्म. 

10 - जन्म और मृत्यु की तरह 
        नामुमकिन है 
        तुम्हारे प्रेम का दुहराव.

11 - जब प्यार कर रहा हो कोई तो 
        कैसे इस्तेमाल कर सकता है लफ्ज़ पुराने. 

12 - क्या तुम सुनती हो मेरी बातें 
        जब खामोश होता हूँ मैं ?

13 - कविता ज्यादा अहम है नोटबुक से 
        होंठों से ज्यादा अहम है चुम्बन. 

14 - किसने छिपा रखी हैं हज़ारो कवितायेँ
        तुम्हारी आँखों की बंद किताब में ? 

15 - जो न होतीं तुम्हारी आँखें 
        कैसी होती यह दुनिया ? 

16 - सबकुछ है बहसतलब
        तुम्हारे नारीत्व के सिवाय. 

17 - जब तुम हंसती हो मेरी जान 
       मैं भूल जाता हूँ आसमान को.  

18 - तुम्हारी आँखों और अपने गम के सिवाय 
        इस दुनिया में और कुछ नहीं है मेरे पास. 

19 - क्या लिखूं प्यार के बारे में प्रिय 
        बस याद है इतना 
        कि सुबह जब जागा नींद से 
        खुद को पाया किसी शहजादे सा. 

20 - गवाह हूँ इसका कि 
        कोई और स्त्री न फैला सकी मेरा बचपन 
        पचास की उम्र तक. 

22 - नंगे पाँव हो तुम 
        क्या पता है तुम्हें 
        एक स्त्री बदल सकती है इतिहास की लय 
        नंगे पाँव. 


 (अनुवाद : Manoj Patel)

Saturday, November 6, 2010

फिर भी होना अमेरिका : माइआ अंजालो

( माइआ अंजालो की एक कविता आप पहले ही नई बात पर पढ़ चुके हैं. आज अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत आगमन के मौके पर उनकी एक और कविता आप सबसे साझा करने का मन हुआ. - Padhte Padhte )  



तुम्हारे संजाल के हल्के ही झटके से 
बिला जाती हैं बादशाहतें. 
गुस्से से बनता है तुम्हारा मुंह तो 
दहशत में सिजदा करते हैं मुल्क तमाम. 

मौसम बदल सकते हैं तुम्हारे बम, 
 मिटा सकते हैं बसंत का नामो निशान. 
और क्या चाहते हो तुम ? 
आखिर क्यों हो तकलीफ में ? 

काबू में रखते हो तुम इंसानी जिंदगियां 
रोम और टिम्बकटू में. 
आवारगी करते एकाकी बंजारे 
एहसानमंद तुम्हारे उपग्रहों के लिए. 

समुन्दर सरकते हैं तुम्हारे फरमान पर, 
आसमान ढँक उठता है तुम्हारे परीक्षणों की गर्द से. 
फिर नाखुश क्यों हो तुम ? 
आखिर रोते क्यों हैं बच्चे तुम्हारे ? 

घुटने टेक देते हैं वे दहशत में अकेले 
हर निगाह में दिखता डर. 
एक मनहूस विरासत से 
रोज धमकायी जाती उनकी रातें. 

बसते हो तुम सफ़ेद किले में 
गहरी जहरबुझी खाई से घिरे 
तुम्हारे कानों तक नहीं पहुंचती बददुआएं 
भरे रहते जिनसे तुम्हारे बच्चों के गले. 

(अनुवाद : Manoj Patel)

Wednesday, November 3, 2010

इटली की लोककथा : इतालो काल्विनो

( इटली के मशहूर लेखक इतालो काल्विनो (1923-1985) अपनी विलक्षण किस्सागोई के लिए जाने जाते हैं. इन्होनें इनविजिबल सिटीज और इफ आन अ विंटर्स नाईट अ ट्रेवलर जैसे उपन्यास लिखे हैं. इटली की 200 लोककथाओं का इनके द्वारा किया गया संकलन 1956 में प्रकाशित हुआ था. - Padhte Padhte )

पैसा सबकुछ कर सकता है 


एक बार एक बहुत रईस शहजादे ने राजा के महल के ठीक सामने उससे भी शानदार एक महल बनवाने का निश्चय किया. महल जब बनकर पूरा  हो गया तो उसने सामने की तरफ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा दिया कि " पैसा सबकुछ कर सकता है." 


राजा ने बाहर आकर जब इसे देखा तो फ़ौरन शहजादे को बुला भेजा जो शहर में अभी नया ही था और अभी तक उसने दरबार में हाजिरी नहीं बजाई थी. 

"मुबारक हो," राजा ने कहा. "तुम्हारा महल तो सचमुच अजूबा है. उसके सामने मेरा गरीबखाना तो झोपड़ी जैसा लगता है. मुबारक ! लेकिन यह लिखाना क्या तुम्हें ही सूझा था कि : पैसा सबकुछ कर सकता है ?" 

शहजादे ने महसूस किया कि शायद वह हद पार कर गया था. 

"जी हाँ यह मेरा ही ख़याल था," उसने जवाब दिया, "लेकिन जहाँपनाह को यदि यह नागवार लग रहा हो तो मैं उसे मिटवा देता हूँ." 

"अरे नहीं, मुझे लगा कि यह तुम्हारा ख्याल नहीं रहा होगा. मैं बस तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता था कि इस बात से तुम्हारा क्या मतलब था. मिसाल के तौर पर क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि अपने पैसों से तुम मुझे क़त्ल भी करा सकते हो ?"    

शहजादे को लग गया कि वह कायदे से फंस चुका था. 

"मुझे माफ़ कीजिए हुजूर. मैं फ़ौरन उन लफ़्ज़ों को मिटवा देता हूँ. और अगर आपको मेरा महल नापसंद हो तो बस हुक्म कीजिए, मैं उसे भी जमींदोज करवा दूंगा." 

"नहीं, नहीं उसे वैसा ही बना रहने दो. लेकिन चूंकि तुम दावा करते हो कि एक पैसे वाला शख्स कुछ भी कर सकता है, मुझे यह साबित करके दिखाओ. अपनी बेटी से बात करने की कोशिश करने के लिए मैं तुम्हें तीन दिन का मौक़ा देता हूँ. अगर तुम उससे बात करने में कामयाब रहे तो ठीक है, तुम्हारी उससे शादी करवा दी जाएगी. अगर नहीं. तो मैं तुम्हारा सर कलम करवा दूंगा. समझ गए ?" 

शहजादा इतना परेशान हो उठा कि उसका खाना, पीना और सोना तक हराम हो गया. रात-दिन वह सोंचा करता कि वह कैसे अपनी गर्दन बचाए. दूसरे दिन तक तो उसे अपनी नाकामयाबी के प्रति इतना इत्मिनान हो चुका था कि वह अपनी वसीयत करने के बारे में सोचने लगा. उसके हालात भी नाउम्मीद करने वाले थे क्योंकि राजा की बेटी सौ पहरेदारों से घिरे किले में बंद रहती थी. किसी चिथड़े की तरह पीला और ढीला सा वह बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी मौत का इंतज़ार कर रहा था जब उसकी बूढ़ी दाई उससे मिलने आई. इस जर्जर बूढ़ी दाई ने उसे बचपन में खिलाया था और अब भी उसके यहाँ काम कर रही थी. उसका मरियल सा चेहरा देखकर इस बूढ़ी औरत ने पूछा कि क्या गड़बड़ थी. हकलाते हुए शहजादे ने उसको पूरी कहानी कह सुनाई. 

"तो क्या हुआ ?" दाई ने कहा, "तुम इस तरह उम्मीद छोड़े बैठे हो ? तुम पर तो मुझे हँसी आ रही है. देखो मैं क्या कर सकती हूँ !"   

वह डगमगाते क़दमों से शहर के सबसे काबिल सुनार के पास पहुंची और उससे ठोस चांदी का एक हंस बनाने के लिए कहा जो अपनी चोंच खोले-बंद करे. हंस को आदमकद और अन्दर से खोखला होना था. "और हाँ यह कल तक तैयार हो जाना चाहिए," उसने जोड़ा. 

"कल ? तुम होश में तो हो !" सुनार चिल्लाया. 

"मैनें कहा न कल !" उस बूढ़ी औरत ने सोने की अशर्फियों से भरा एक बटुआ निकाला और बोलती गई "ज़रा सोचो. यह पेशगी रकम है. बाक़ी तुम्हें कल मिल जाएगी जब तुम हंस तैयार करके मेरे सुपुर्द कर दोगे."   

सुनार हक्का-बक्का रह गया. "यही चीज तो है दुनिया में जिसकी बात ही और है," उसने कहा. "मैं कल तक हंस तैयार करने की भरसक कोशिश करूंगा."    

अगले दिन तक हंस तैयार हो गया और बहुत खूब तैयार हुआ. 

बूढ़ी औरत ने शहजादे से कहा, "अपनी वायलिन लेकर हंस के भीतर बैठ जाओ. जैसे ही हम सड़क पर पहुंचें तुम वायलिन बजाने लगना." 

हंस के भीतर बैठा शहजादा वायलिन बजाता रहा और बूढ़ी दाई चांदी के उस हंस को एक फीते के सहारे खींचती हुई शहर का चक्कर लगाने लगी. उसे देखने के लिए सड़कों पर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी : शहर में ऐसा कोई भी न बचा जो उस खूबसूरत हंस को देखने के लिए दौड़ा न आया हो. यह बात उस किले तक भी पहुंची जहाँ राजा की बेटी बंद थी, उसने अपने अब्बा हुजूर से बाहर निकलकर यह अनोखा दृश्य देखने की अनुमति मांगी. 

राजा ने कहा, "उस शेखीबाज शहजादे को मिला मौक़ा कल ख़त्म हो जाने दो. तब तुम बाहर निकलना और हंस देख लेना." 

लेकिन राजा की बेटी ने सुन रखा था कि कल तक हंस वाली बूढ़ी औरत चली जाएगी. इसलिए राजा ने हंस को किले के अन्दर ले जाने दिया ताकि उसकी बेटी हंस को देख सके. बूढ़ी दाई को इसी बात की उम्मीद थी. जैसे ही शहजादी ने चांदी के उस हंस के साथ अकेले में उसकी चोंच से निकल रहे संगीत का आनंद लेना शुरू किया, अचानक हंस खुल पड़ा और उसमें से एक नौजवान ने बाहर कदम रखा. 

"डरो मत," उस आदमी ने कहा, "मैं वही शहजादा हूँ जो अगर तुमसे बात न कर सका तो कल सुबह तुम्हारे अब्बा हुजूर मेरा सर कलम करवा देंगे. तुम उनसे यह बताकर मेरी जान बचा सकती हो कि तुम मुझसे बात कर चुकी हो."  

अगले दिन राजा ने शहजादे को बुला भेजा. "हाँ, तो क्या मेरी बेटी से बात करने में तुम्हारा पैसा तुम्हारे कोई काम आया ?"

"जी हाँ जहाँपनाह," शहजादे ने जवाब दिया. 

"क्या ! तुम्हारा मतलब तुमने उससे बात किया ?" 

"उसी से पूछ लीजिए." 

शहजादी आई और उसने बताया कि कैसे वह चांदी के हंस में छुपा हुआ था जिसे खुद राजा के हुक्म पर किले में घुसने दिया गया था. 

इसपर राजा ने अपना मुकुट उतारकर शहजादे के माथे पर रख दिया. "इसका मतलब तुम्हारे पास सिर्फ पैसा ही नहीं बल्कि एक अच्छा दिमाग भी है. जाओ खुश रहो ! मैं अपनी बेटी का हाथ तुम्हारे हाथों में सौंपता हूँ."  


(अनुवाद : Manoj Patel ) 

Tuesday, November 2, 2010

ओरहान वेली की कुछ और कवितायेँ

( ओरहान वेली की कुछ कवितायेँ आप पहले ही नई बात पर पढ़ चुके हैं. यहाँ उनकी कुछ और कवितायेँ प्रस्तुत हैं. - Padhte Padhte )


सफ़र पर कवितायेँ 

         1 
आपसे मुखातिब होते हैं सितारे 
जब सफ़र पर होते हैं आप 
लेकिन अक्सर करते हैं वे 
उदास बातें. 

          2 
नशे से बेसुध उन रातों में 
कितनी सुखद होती है 
आपके मुंह से बजती धुन 
लेकिन वही धुन 
नहीं रह जाती सुखद 
रेल की खिड़की पर. 


मेरा बिस्तर 

क्योंकि हर रात अपने बिस्तर में 
सोचता रहता हूँ उसके बारे में, 
तो जब तलक प्यार करता होता हूँ उससे 
प्यार करता हूँ अपने बिस्तर से भी. 


बातें करेंगे लोगबाग 

आईने में कुछ और 
तो बिस्तर पर कुछ और होती है तुम्हारी खूबसूरती. 
परवाह मत करो अगर बातें करते हैं लोगबाग : 
अपने सबसे अच्छे कपड़े पहनो 
सजो-संवरो लिपस्टिक वगैरह सब लगाकर 
बस उन्हें चिढ़ाने के लिए 
शाम के वक़्त आ जाओ 
आइसक्रीम पार्लर तक, 

बातें करेंगे लोगबाग इस बारे में, 
तो क्या हुआ ? 
आखिर प्रेमिका हो तुम मेरी, हो कि नहीं ? 


 बता नहीं सकता ठीक-ठीक 

यदि मैं रोया तो क्या तुम सुन पाई 
मेरी आवाज़ मेरी कविताओं में, 
क्या छू सकी थी मेरे आंसुओं को 
अपने इन हाथों से ? 

इस ग़म का शिकार बनने से पहले, 
जाना ही नहीं कभी कि गीत भी होते हैं इतने मोहक 
और शब्द इतने नाजुक. 

जानता हूँ कि है एक जगह 
जहाँ आप बतिया सकते हैं कुछ भी 
लगता है बहुत करीब हूँ उस जगह के 
फिर भी बता नहीं सकता ठीक-ठीक.      


चिड़िया और आसमान 

चिड़िया वाले 
हमारे पास है एक चिड़िया 
और एक पेड़ भी. 
बस थोड़ा सा आसमान दे दो 
दो कौड़ी का. 


कोई लोचा है जरूर 

क्या रोज होता है समुन्दर इतना ही सुहाना ? 
क्या ऐसा ही दिखता है आसमान हमेशा ? 
ये साजो सामान ये खिड़की 
क्या हरदम होती है इतनी ही प्यारी ? 
नहीं न ; 
पक्का बोलता हूँ नहीं ; 
कहीं कोई लोचा है जरूर. 


होना उदास 

नाराज हो सकता था मैं भी उनसे 
जिनसे करता हूँ मुहब्बत 
गर मुहब्बत ने सिखा न दिया होता 
होना और रहना उदास. 


पेंटिंग्स 

हालांकि वह विषय नहीं है इन पेंटिंग्स का 
कितने उदास हैं इनके नाम मगर 
" अप्रैल की सुबह " 
" बारिश के बाद "  
" नाच " 
जब भी पड़ती है इन पर निगाह 
भारी हो जाता है मन. 


(अनुवाद : Manoj Patel) 
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