फौज़िया अबू खालिद की कुछ कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं, आज उनकी एक और कविता...
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दो बच्चे : फौज़िया अबू खालिद
(अनुवाद : मनोज पटेल)
माँ नूर के लिए, एक कवि जिनकी कविताएँ मैं उधार लेती हूँ
मैं चिपकी रहती हूँ उसकी पोशाक से
जैसे एक बच्चा चिपका रहे पतंग की डोर से,
चढ़ती हूँ उसके बालों की चोटी पर
जैसे कोई गिलहरी चढ़े बादाम के पेड़ पर,
दोपहर में, हम कूदते रहते हैं एक दुनिया से दूसरी दुनिया में,
मस्ती करते हैं हवा में
जैसे परिंदे, खुल गया हो जिनके पिंजड़े का दरवाज़ा,
एक खेल छोड़, खेलने लगते हैं दूसरा खेल,
वह मुझे सिखाती है
फूलों के नाम
बारिशों के मौसम
अपने वतन का प्रेम,
मैं उसे सिखाती हूँ
जिद और शरारत
एक सेब साझा करते हैं हम और ढेरों ख्वाब
रेगिस्तान को हम बना देते हैं सवालों की एक जन्नत
एक-दूसरे पर डालते हैं मरीचिका का पानी
और दोस्ती करते हैं एक भटके हुए हिरन से
जब शाम हमें पकड़ लेती है
धुंधली रोशनी में,
है कोई बूझने वाला
यह पहेली :
कौन माँ है
और कौन बेटी ?
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bahut khoobsurat ...sundar ahasaas ..
ReplyDeleteएक सेब साझा करते हैं हम और ढेरों ख्वाब.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...
बहुत सुंदर, माँ बच्चे के साथ बच्चा ही बन जाती है...
ReplyDelete'रेगिस्तान को हम बना डालते हैं सवालों की एक जन्नत',क्या बात है!'कौन माँ है, और कौन बेटी'. बच्चे क्या-क्या कर सकते हैं, और कितना जीवंत कर सकते हैं! अपने से 'चिपकाए' रखनेवाली कविता.
ReplyDeleteबेहद सुंदर अहसास...
ReplyDeleteसहज सरल अनुवाद...
बांटने-साझा करने के लिए आभार
शुभकामनाएं.
अजित वडनेरकर