Saturday, April 9, 2011

महमूद दरवेश की दो कविताएँ


आज एक बार फिर महमूद दरवेश. 











मैं उस अजनबी को नहीं जानता 



मैं उस अजनबी को नहीं जानता, न ही उसके कारनामों को 
मैनें शवयात्रा देखी और ताबूत के पीछे-पीछे चल पड़ा
बाक़ी सबकी तरह, अपना सर सम्मानपूर्वक झुकाए हुए.
कोई वजह नहीं नजर आती मुझे यह पूछने की, कि कौन है यह अजनबी ?
वह कहाँ रहता था ? कैसे मरा वह ?
(बहुत से कारण होते हैं मौत के,
जिनमें ज़िंदगी की तकलीफ भी है.)
मैनें खुद से पूछा, क्या उसने हमको देखा, या क्या उसने 
विनाश देखा ? क्या उसको अफ़सोस हुआ अंत के लिए ?
मुझे पता था कि वह फूलों से ढंके अपने ताबूत को 
नहीं खोलेगा, हमें अलविदा कहने के लिए, 
हमें शुक्रिया अदा करने के लिए, या धीरे से सच बताने के लिए.
(सच क्या है ?) शायद इस वक़्त वह,
हमारी ही तरह है, अपनी परछाईं को समेटता हुआ.
लेकिन वही एक शख्स था जिसने मातम नहीं किया था आज सुबह.
हमारे सर पर बाज की तरह मंडराती मौत को उसने नहीं देखा था.
(ज़िंदा लोग भाई हैं मुर्दों के, और मुर्दे सोए पड़े हैं 
शांतिपूर्वक, शांतिपूर्वक, शांतिपूर्वक.) मैं कोई कारण नहीं पाता 
यह पूछने का कि, कौन है यह अजनबी और उसका नाम क्या है ?
(उसके नाम में कोई बिजली की कौंध नहीं.)
उसके बीस कदम पीछे, मुझसे अलग.
(मैं कोई और हूँ.)
गिरजाघर के दरवाजे पर मैं सोचता हूँ दिल ही दिल में :
क्या वह कोई लेखक था, कोई मजदूर, कोई पनाहगीर,
कोई चोर, या हत्यारा ? क्या फर्क पड़ता है ?
सारे मुर्दे एक जैसे होते हैं मौत के सामने.
वे बातें नहीं करते और शायद सपने भी नहीं देखते.
शायद अजनबी का क्रियाकर्म मेरा क्रियाकर्म है, मगर किसी दैवी 
आदेश ने टाल दी है मेरी मौत 
तमाम वजहों से, जिनमें से एक है कविता में कोई भारी गलती ! 
                                    * * *

दमिश्क में एक और दमिश्क 

दमिश्क में एक और दमिश्क, शाश्वत किस्म का.
कितना गलत था मैं तुम्हारे प्रति दोस्त,  जब तुमने दिल की एक धड़कन से 
आलोचना की थी मेरे देश छोड़ने की. 
और अब अपनी वापसी के बाद, हक है मेरा कि पूछूं तुमसे दोस्ती में ही :
मुझे देखने के लिए तुम खंजर की तरफ क्यूं झुके ?
तुमने मेरी ढलान और ऊपर क्यूं उठा दी 
कि मेरे ही ऊपर गिर जाएं मेरे घोड़े ? 
मैनें चाहा था तुम्हें ले चलना इस धरती के छोर तक 
कविता के बहते झरने के पास. कितनी खूबसूरत हो तुम ! 
दमिश्क भी है कितना खूबसूरत अगर ज़ख्म न होते इसके मायने मेरे लिए. 
तो अपने आधे दिल को मिलने दो मेरे आधे दिल से दोस्त. 
आओ बनाएं एक मजबूत और दूरदर्शी दिल उसके लिए, मेरे लिए, तुम्हारे लिए. 
एक दीगर दमिश्क के लिए, दमिश्क में मेरी रूह का अक्स दिखाने की खातिर. 

(अनुवाद : मनोज पटेल) 

2 comments:

  1. मैं उस अजनबी को नहीं जानता ..कविता का दर्शन बहुत अच्छा लगा ..और दमिश्क में एक और दमिश्क मैं ये पंक्तियाँ खास पसंद आयीं ..

    मुझे देखने के लिए तुम खंजर की तरफ क्यूं झुके ?
    तुमने मेरी ढलान और ऊपर क्यूं उठा दी
    कि मेरे ही ऊपर गिर जाएं मेरे घोड़े ?

    धन्यवाद इनका अनुवाद शेयर करने के लिए ,... सादर

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  2. तुमने मेरी ढलान और ऊपर क्यू उठा दी ....की मेरे ही ऊपर गिर जाये मेरे घोड़े ?...मेने चाह था तुम्हे ले चलना इस धरती के छोर तक .......!!!!!! दमिश्क में एक और दमिश्क .......कितना गलत .......था ....??????वाह सिने में उठती कई लहरों (सकारात्मक /नकरात्मक )को महसूस कर ढालने का एक और नायब शाब्दिक कोष .....सुन्दर सजाया है दरवेश जी ने ....शुक्रिया मनोज जी ...आज देर से आना हुआ ....अन्ना की सेवा में लगा था ...हाहाह शुक्रिया दोस्त !!!!!Nirmal Paneri

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