येहूदा आमिखाई की कविता...
आखिरी शब्द कप्तान है : येहूदा आमिखाई
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मेरा सर भी नहीं बढ़ा है
जबसे मैनें बंद किया है बढ़ना
और मेरी स्मृतियों का ढेर लग गया है मेरे भीतर,
मैं मानता हूँ कि वे अब मेरे पेट
मेरी जाँघों और पैरों में जमा हो गई हैं.
एक तरह का चलता-फिरता अभिलेखागार, एक सुव्यवस्थित दुर्व्यवस्था,
जैसे क्षमता से अधिक भरे जहाज पर लादने के लिए
माल रखने की जगह.
कभी-कभी मैं सो जाना चाहता हूँ किसी पार्क की बेंच पर :
जो कि बदल देगा मेरी स्थिति
अपने भीतर की गुमशुदगी से
बाहर की गुमशुदगी में.
शब्द मुझे छोड़कर जाने लगे हैं
जैसे चूहे छोड़ देते हैं डूबते हुए जहाज को
और आखिरी शब्द कप्तान है.
:: :: ::
वाह ,वाह, येहूदा अमीखाई ....................एक तरह का चलता-फिरता अभिलेखागार, एक सुव्यवस्थित दुर्व्यवस्था,
ReplyDeleteजैसे क्षमता से अधिक भरे जहाज पर लादने के लिए
माल रखने की जगह. ................
गजब की कविता ! आभार मनोज जी ! ऐसी कवितायेँ कितना समृद्ध करती हैं दिलो-दिमाग को !
मेरी स्म्रतियों का ढेर लगा है मेरे भीतर ..
ReplyDeleteकभी कभी मैं सो जाना चाहता हूँ किसी पार्क की बेंच पर
जो की बदल देगा मेरी स्थिति...
आप बोलती बंद कर देतेहैं मनोज जी...कितनी बार पढ़ चुकी हूँ.
Sundar
ReplyDeleteaur akhiri shabd kaptaan hai !
ReplyDelete