नाजिम हिकमत की कविता, 'नौवीं सालगिरह'
चाहे जितनी बार वे कतारबद्ध खड़े हुए हों मेरे सामने,
नौवीं सालगिरह : नाजिम हिकमत
(अनुवाद : मनोज पटेल)
घुटनों-घुटनों बर्फ वाली एक रात को
शुरूआत हुई थी मेरे इस अभियान की --
खाने की मेज से खींचकर,
पुलिस की गाड़ी में लादा जाना,
फिर रेलगाड़ी से रवाना करके
एक कोठरी में बंद कर दिए जाना.
उसका नौवां साल बीता है तीन दिन पहले.
बरामदे में स्ट्रेचर पर पीठ के बल लेटा एक आदमी
मर रहा है मुहं बाए हुए,
कैद के लम्बे समय का दुख है उसके चेहरे पर.
दुखद और सम्पूर्ण अकेलेपन को
याद करता हूँ मैं,
अकेलापन जैसे किसी पागल या मृतक का :
शुरूआत में, एक बंद दरवाज़े की
छिहत्तर दिनों की मौन अदावत,
फिर सात हफ़्तों तक एक जहाज के पेंदें में.
फिर भी मैनें हार नहीं मानी थी :
मेरा सर
मेरे पक्ष में खड़ा एक दूसरा इंसान था.
मैं उनमें से ज्यादातर के चेहरे भूल गया हूँ
मुझे याद है तो सिर्फ एक लम्बी नुकीली नाक.
जब मुझे सजा सुनाई जा रही थी, उन्हें एक ही चिंता थी : कि रोबदार दिखें वे.
मगर वे ऐसा दिखे नहीं.
वे इंसानों की बजाए चीजों की तरह नजर आ रहे थे :
दीवार घड़ियों की तरह, मूर्ख
व घमंडी,
और हथकड़ियों-बेड़ियों की तरह उदास और दयनीय.
जैसे बिना मकानों और सड़कों के कोई शहर.
ढेर सारी उम्मीद और ढेर सारा दुख.
फासले बहुत कम.
चौपाया प्राणियों में सिर्फ बिल्लियाँ.
मैं वर्जित चीजों की दुनिया में रहता हूँ !
जहां वर्जित है :
अपनी महबूबा के गालों को सूंघना.
जहां वर्जित है :
अपने बच्चों के साथ एक ही मेज पर बैठकर भोजन करना.
जहां वर्जित है :
बीच में सींखचों या किसी चौकीदार के बिना
अपने भाई या माँ से बात करना.
जहां वर्जित है :
अपनी लिखी किसी चिट्ठी को चिपकाना
या चिपकाई हुई किसी चिट्ठी को पाना.
जहां वर्जित है :
सोने जाते समय बत्ती बुझाना.
जहां वर्जित है :
चौपड़ खेलना.
और ऐसा नहीं है कि यह वर्जित नहीं है,
मगर जो आप छिपा सकते हैं अपने दिल में या जो आपके हाथ में है
वह है प्यार करना, सोचना और समझना.
बरामदे में स्ट्रेचर पर पड़े आदमी की मौत हो गई.
वे उसे ले गए कहीं.
अब न तो कोई उम्मीद और न ही कोई दुख,
न रोटी, न पानी,
न आजादी, न कैद,
न स्त्रियों की हसरत, न चौकीदार, न खटमल,
और कोई बिल्ली भी नहीं बैठकर उसे ताकते रहने के लिए.
वह धंधा तो अब खलास, ख़तम.
मगर मेरा काम तो अभी जारी है :
मेरा सर जारी रखे है प्यार करना, सोचना और समझना,
मेरा नपुंसक क्रोध खाता ही जा रहा है मुझे,
और सुबह से ही टीस रहा है मेरा कलेजा...
20 जनवरी 1946
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कैदी जीवन के दर्दनाक अनुभव महसूस कराती है , नाजिम हिकमत की यह कविता ! सुन्दर अनुवाद ,चयन ! धन्यवाद मनोज जी !
ReplyDeleteमैं वर्जित चीजों की दुनिया में रहता हूँ
ReplyDeleteमगर मेरा काम तो अभी जारी है
मेरा सर जारी रखे है प्यार करना, सोचना और समझना,
मेरा नपुंसक क्रोध खाता ही जा रहा है मुझे,
और सुबह से ही टीस रहा है मेरा कलेजा...मार्मिक ..आभार
बहुत मार्मिक कविता !
ReplyDeletevarjanaon ka dansh kitana peedadayak hai, shayad ek swatantra aadmi ko is kaa ahasaas nahi hota !
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