एक बार फिर मरम अल-मसरी...
मरम अल-मसरी की कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल)
छोटी जलधाराओं की तरह
वे दाखिल हुए हमारी ज़िंदगी में
मगर अचानक
हम डूब गए उनमें
और जान नहीं पाए कि
किसने दे दिया हमें
पानी और नमक
और छोड़ गया हमारे भीतर
इतनी कड़वाहट.
:: :: ::
आखिर कहाँ से आती है यह धूल ?
कहाँ से ?
आप उसपर अपनी हथेली फिराते हैं उसे पोंछने के लिए,
मगर वह फिर लौट आती है हमेशा
चेहरों, और
आवाजों की तरह.
आपको लगता है कि वह केवल सतह पर जमती है,
मगर आप पाते हैं कि वह पाट देती है गहराईयों को.
ये यादें कहाँ से आती हैं ?
आखिर कहाँ से आती हैं वे ?
:: :: ::
हर बार
जब खोलती हूँ अपना बैग
धूल उड़ने लगती है उससे निकलकर.
:: :: ::
''ये यादें कहाँ से आती हैं ?
ReplyDeleteआखिर कहाँ से आती हैं ?''....सुंदर अनुवाद !!!
Wonderful...
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता, भीतर से जोड़ती हुई !
ReplyDeleteआखिर कहाँ से आती है यह धूल ?
ReplyDeleteकहाँ से ?
आप उसपर अपनी हथेली फिराते हैं उसे पोंछने के लिए,
मगर वह फिर लौट आती है हमेशा
चेहरों, और
आवाजों की तरह.
आपको लगता है कि वह केवल सतह पर जमती है,
मगर आप पाते हैं कि वह पाट देती है गहराईयों को.
ये यादें कहाँ से आती हैं ?
आखिर कहाँ से आती हैं वे ?
:: :: ::
sundar rachna ..
किसी को नहीं पता यह यादें कहाँ से आती हैं और कहाँ कहाँ ले जाती हैं ?अच्छा लगा पढ़ कर यह अनुवाद..सुन्दर!
ReplyDeleteYaadon kee dhool paat detee hai dil kee gahraaiyon ko..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर दोनों रचनाये ...आभार
ReplyDeleteमगर अचानक
ReplyDeleteहम डूब गए उनमें
और जान नहीं पाए कि
किसने दे दिया हमें
पानी और नमक
और छोड़ गया हमारे भीतर
इतनी कड़वाहट.
bahut achichi ....