Friday, September 30, 2011

मरम अल-मसरी : आज शाम मिलेंगे शिकार और शिकारी

मरम अल-मसरी की दो कविताएँ...


















मरम अल-मसरी की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

सिर्फ इतना ही 
चाहता था वह :
एक घर,
बच्चे 
और प्यार करने वाली एक पत्नी.
मगर एक दिन जब वह जागा 
तो पाया कि 
बूढ़ी हो गई है है उसकी आत्मा.

सिर्फ इतना ही 
चाहती थी वह :
एक घर, बच्चे 
और प्यार करने वाला एक पति.
एक दिन 
वह जागी 
और पाया कि 
एक खिड़की खोलकर 
भाग निकली है उसकी आत्मा. 
:: :: ::

आज शाम 
एक पुरुष 
बाहर निकलेगा 
शिकार की तलाश में 
अपनी दमित कामनाओं को शांत करने के लिए.

आज शाम 
एक स्त्री बाहर निकलेगी 
किसी पुरुष की तलाश में 
जो उसे 
हमबिस्तर बना सके.

आज शाम 
मिलेंगे शिकार और शिकारी 
और एक हो जाएंगे 
और शायद 
शायद 
बदल लेंगे अपनी भूमिकाएं. 
:: :: ::        
Manoj Patel Translations, Manoj Patel Blog  

Thursday, September 29, 2011

एर्नेस्तो कार्देनाल : तुम्हें इस तरह कोई नहीं प्यार करेगा

एर्नेस्तो कार्देनाल की 'सुभाषित' श्रृंखला से कुछ कविताएँ...













एर्नेस्तो कार्देनाल की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

हम दोनों ही हार गए जब मैनें खो दिया तुम्हें :
मैं इसलिए हारा क्यूंकि तुम ही थी जिसे मैं सबसे ज्यादा प्यार करता था 
और तुम इसलिए हारी क्यूंकि मैं ही था तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करने वाला.
मगर हम दोनों में से तुमने, मुझसे ज्यादा खोया है :
क्यूंकि मैं किसी और को वैसे ही प्यार कर सकता हूँ जिस तरह तुम्हें किया करता था.  
मगर तुम्हें उस तरह कोई नहीं प्यार करेगा जिस तरह मैं किया करता था. 
                    :: :: ::

लड़कियों, तुम लोग जो किसी दिन पढ़ोगी इन कविताओं को आंदोलित होकर 
और सपने देखोगी किसी कवि के :
जानना कि मैनें लिखा था इन्हें तुम्हारे जैसी ही एक लड़की के लिए 
और व्यर्थ ही गया यह सब.
                    :: :: :: 

यही प्रतिशोध होगा मेरा :
कि एक दिन तुम्हारे हाथों में होगा एक प्रसिद्द कवि का कविता-संग्रह 
और तुम पढ़ोगी इन पंक्तियों को जिन्हें कवि ने तुम्हारे लिए लिक्खा था 
और तुम इसे जान भी नहीं पाओगी. 
                    :: :: :: 
Manoj Patel Translations अर्नेस्तो कार्देनाल 

Wednesday, September 28, 2011

मरम अल-मसरी : तस्वीरें फूल चुम्बन और प्यार

मरम अल-मसरी की दो कविताएँ...
















मरम अल-मसरी की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

छोटी पिनों की मदद से 
वह जड़ता है अपनी स्मृतियों को 
अपने कमरे की 
दीवारों पर 
उन्हें सुखाने के लिए.
तस्वीरें 
फूल
चुम्बन 
और प्यार की महक.
कोमल कृतज्ञता से भरी निगाहों के साथ 
वे सभी ताकते हैं उसे 
क्यूंकि उसने 
शाश्वत बना दिया है उन्हें,
लगभग शाश्वत.
:: :: ::

थोड़ी-थोड़ी देर पर 
वह खोलता है खिड़कियाँ,
और बार-बार 
बंद भी कर देता है उन्हें.
पर्दों के पीछे से उसकी आकृति 
खोल देती है उसका राज 
दिख जाता है वह आते-जाते हुए 
अपने सफ़र पर, दूर और पास.
अपने अकेलेपन को संगीत से भरने के लिए 
वह चलाता है रेडियो,
पड़ोसियों को झांसा देते हुए 
कि ठीक-ठाक है सब.
हम देखा करते थे उसे 
सर झुकाए 
जल्दी-जल्दी जाते हुए,
और ब्रेड लेकर 
उस जगह को लौटते 
जहां 
कोई उसका इंतज़ार नहीं करता होता था.   
:: :: :: 
Manoj Patel Translations 

Tuesday, September 27, 2011

डेज़ी ज़मोरा : मेरे पास नहीं हैं प्यारे शब्द


डेज़ी ज़मोरा का जन्म १९५० में निकारागुआ के एक संपन्न परिवार में हुआ था. कवि, चित्रकार और मनोवैज्ञानिक होने के साथ-साथ उन्होंने तानाशाही के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में भी भाग लिया था. १९७९ की क्रान्ति के बाद नई सरकार में मंत्री के रूप में भी कार्य किया. उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.










क्यूंकि : डेज़ी ज़मोरा 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

क्यूंकि मेरे पास नहीं हैं ऐसे प्यारे शब्द 
जिनकी जरूरत है मुझे
आसरा लेना होता है अपने कामों का 
                        तुमसे बातें करने के लिए.
                   :: :: :: 
Manoj Patel Translations 

Monday, September 26, 2011

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : अगर तुम तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँच रही है

आज अफ़ज़ाल साहब का जन्मदिन है. इस मौके पर पढ़ते हैं उनकी दो कविताएँ... 













अफ़ज़ाल अहमद सैयद की दो कविताएँ 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)

मुझे एक कासनी फूल पसंद था 

मुझे एक कासनी फूल पसंद था. इससे मेरा इशारा उस लड़की की तरफ है जिसे मैनें चाहा. मैं उसका नाम भी ले सकता हूँ लेकिन दुनिया बहुत गुंजान आबाद है. वह मुझे जुड़वा पुलों पर मिली थी, जो मेरे घर से दूर एक झील पर बेख्याली में साथ-साथ बना दिए गए थे. हम एक पुल पर साथ चलते और कभी अलग-अलग पुलों पर एक-दूसरे के हाथ थामते. मैनें अपनी पहली मजदूरी से कीलें खरीदीं और पुल के उखड़े हुए तख्तों को जोड़ने के दरमियान उसकी आँखों के लिए एक शेर बनाते हुए एक कील को अपनी हथेली पर उतारा, और मालूम किया कि मैं लकड़ी का बना हुआ नहीं हूँ. शायद वह पुल किसी खानाजंगी में जला दिया गया हो. मैं ज़िंदगी भर फिर किसी पुल के लिए कीलें नहीं खरीद सका.  
                                                
गुंजान आबाद : घनी बसी 
खानाजंगी      : गृहयुद्ध 
                                        :: :: :: 


अगर तुम तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँच रही है 

अगर तुम तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँच रही है
इसमें एक बाज़गश्त शामिल कर लो 
पुरानी दास्तानों की बाज़गश्त 

और उसमें 
एक शाहज़ादी
और शाहज़ादी में अपनी ख़ूबसूरती 

और अपनी ख़ूबसूरती में 
एक चाहने वाले का दिल 

और चाहने वाले के दिल में 
एक ख़ंजर 

बाज़गश्त : वापसी, गूँज 
                                        :: :: :: 

AFZAL AHMED SYED - افضال احمد سيد MANOJ PATEL TRANSLATIONS 

Sunday, September 25, 2011

एथलबर्ट मिलर : माँ की आँखें

आज बस एथलबर्ट मिलर की यह कविता...

















मेरे पिता की प्रेमिका : एथलबर्ट मिलर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

न्यूयार्क में 
मेरी माँ
कई दस्तकों के बाद 
खोलती हैं 
अपने घर का दरवाज़ा 

उनका चेहरा 
मुझे अल्बर्टा हंटर 
की याद दिलाता है 
जब वह रिटायरमेंट छोड़ 
वापस चली आई थी काम पर 

और उनकी आँखों में 
कुछ ऐसा 
जिससे प्यार हो गया था मेरे पिता को 
                    :: :: :: 

अल्बर्टा हंटर (1894 - 1984) गीतकार, गायिका और नर्स थीं. पचास के दशक में उन्होंने गायन से संन्यास लेकर स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कार्य करना शुरू किया मगर अस्सी के दशक में वे फिर गायन की तरफ लौट आईं. 
Manoj Patel Translations 

Saturday, September 24, 2011

न्यूयार्कर : फेसबुक अपना अलग इंटरनेट बनाना चाहता है

लोकप्रिय सोशल नेट्वर्किंग साईट फेसबुक में होने वाले बदलावों पर यह टिप्पड़ी न्यूयार्कर में प्रकाशित हुई है.












फेसबुक वास्तव में जो चाहता है : न्यूयार्कर  
(अनुवाद : मनोज पटेल)

कोई बड़ा बदलाव करने का एक तरीका यह भी है कि लोगों को इस बात पर भड़का दिया जाए कि आपने कैसे कोई छोटा बदलाव कर दिया. जहाज पर नया पेंट कर दीजिए और लोगों को इस पर बहस करने दीजिए. जब तक वे समझ पाएंगे कि हरा, नीले से बदतर नहीं है, उनमें यह सोचने की शक्ति नहीं रह जाएगी कि आस्ट्रेलिया की समुद्री यात्रा पर निकल पड़ना बेहतर विचार था या नहीं.   

इस सप्ताह फेसबुक की रणनीति कुछ ऎसी ही नजर आई. कम्पनी ने कल साईट को फिर से डिजाइन किया : तस्वीरें बड़ी नजर आ रही हैं, "पोक" बटन गायब हो गया है, दाहिनी तरफ के कालम में तमाम तरह की चीजें लाकर भर दी गई हैं. अगर आप फेसबुक पर ज्यादा नहीं आते, कम्पनी यह बताने के लिए गणित का सहारा लेगी कि आपको अपनी न्यूज फीड में सबसे ज्यादा क्या जंचेगा. फेसबुक जब भी अपने रूप में बदलाव करता है लोग पागल हो उठते हैं. इस बार भी बहुत बड़े पैमाने पर लोग अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं. कम्पनी अपने हेल्प पेज पर खुशी-खुशी पूछती है, "हम आपकी क्या सहायता कर सकते हैं?" फेसबुक प्रयोक्ता जवाब दे रहे हैं, "आई हेट हेट हेट द न्यू फेसबुक लेआउट." अन्त-पन्त हम नए डिजाइन को स्वीकार कर लेंगे और हमेशा की तरह भूल जाएंगे कि हम कितना गुस्साए हुए थे.

ज्यादा जरूरी बातें शायद आज फेसबुक की ऍफ़ 8 डेवलपर कांफ्रेंस के बाद पता चलें. यहाँ फेसबुक, प्रकाशकों, संगीत और वीडियो कंपनियों के साथ नए समझौतों की घोषणा करने वाला है. फेसबुक के भीतर ही पढ़े जाने के लिए समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को फिर से डिजाइन किया जाएगा. आप और आपके दोस्त एक ही साथ संगीत सुन सकेंगे. प्राइवेसी को लेकर फेसबुक की ऐतिहासिक बेरुखी को देखते हुए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि आप जो कुछ भी पढ़ें, सुनें या देखें, उसे संभवतः आपके दोस्तों के साथ साझा किया जाए. लक्ष्य यह है कि हम सामान्यतः इंटरनेट पर जो कुछ भी करते हैं उसे फेसबुक के भीतर ले आया जाए.

फेसबुक और मार्क जुकरबर्ग -- जिन्हें जोसे अंटोनियो वर्गास ने "ओवर-शेयरिंग के युग में ओवर-शेयरर" की उपाधि दी है -- का दीर्घकालीन लक्ष्य एक पृथक इंटरनेट बनाना रहा है. फेसबुक में काम करने वाले लोगों के हिसाब से एक तरफ गूगल और उसके एलागरिद्म्स द्वारा संचालित यह निरुत्साह, भ्रामक, खुला इंटरनेट है. जब आप वहां जाते हैं तो आपको पता नहीं होता कि आपको क्या हासिल होने जा रहा है. और वहीं फेसबुक का उप-इंटरनेट है जहां सबकुछ बेहतर है, आपके दोस्तों द्वारा व्यवस्थित. 

शुरूआत में फेसबुक सिर्फ तस्वीरों को पोस्ट करने की एक जगह थी और यह देखने की कि आपके साथ हाईस्कूल में पढ़ने वाले और कौन-कौन से लोग यहाँ आ गए. फिर यह राजनीतिक विरोधों को संगठित करने और गेमों में समय बर्बाद करने की भी एक जगह बन गया. इनमें से हर तरीके से यह बढ़ता ही गया है. इसे अरब विस्फोट को सुगम बनाने में मदद करने का श्रेय मिलता है, और अब तो यह आज तक ली गई कुल तस्वीरों के चार प्रतिशत को होस्ट करता है. अब अगर फेसबुक अपने रास्ते चल पाया तो यह वह जगह होगी जहां आप ख़बरें पढेंगे, नए गाने सुनेंगे और वीडियो देखेंगे. यह बाक़ी के इंटरनेट का बड़ा हिस्सा साफ़ कर जाएगा.

इसके दूरगामी परिणाम होंगे. हमारे आनलाइन जीवन का जितना ज्यादा हिस्सा फेसबुक पर बीतेगा, हम कम्पनी चलाने वाले लोगों की पसंद पर उतने ही निर्भर होते जाएंगे -- कि प्राइवेसी के बारे में उनकी राय क्या है, कि उनकी राय में हमें अपने दोस्तों को किस ढंग से बनाना चाहिए और वे विज्ञापनदाताओं (और सरकारों) को क्या बताते हैं कि हम क्या कर रहे हैं या क्या खरीद रहे हैं. हमें समाचार और संगीत उपलब्ध करवाने के लिए वे जिन साझेदारों को चुनेंगे, हमें उन पर भरोसा करना होगा. दांव पर वास्तविक मुद्दे हैं - यानी बात सिर्फ इतनी नहीं है कि तस्वीर कितनी बड़ी है या आप "पोक" कर सकते हैं या नहीं. 
                                                      :: :: :: ::
('द न्यूयार्कर' से साभार)

Friday, September 23, 2011

नरेंद्र मोदी के नाम संजीव भट्ट का खुला पत्र


नरेंद्र मोदी के नाम निलंबित आई पी एस अधिकारी संजीव भट्ट का यह पत्र 15 सितम्बर 2011 के हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था. 











नरेन्द्र मोदी के नाम निलंबित आई पी एस अधिकारी संजीव भट्ट का खुला पत्र 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

प्रिय श्री मोदी,

मुझे खुशी है कि आपने 'छ करोड़ गुजरातियों' को एक खुला पत्र लिखने का फैसला किया. इसने न केवल आपके दिमाग में झाँकने के लिए मुझे एक खिड़की मुहैया कराई बल्कि उसी माध्यम से आपको कुछ लिख भेजने का अवसर भी दिया. 

मेरे प्रिय भाई, ऐसा लगता है कि आपने माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा विशेष अनुमति याचिका (फौजदारी) संख्या 1088 आफ 2008 नामशः जाकिया नसीम अहसन एवं एक अन्य बनाम स्टेट आफ गुजरात एवं अन्य से उत्पन्न होने वाली फौजदारी अपील संख्या 1765 आफ 2011 में पारित किए गए माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले एवं आदेश की गलत व्याख्या कर ली है. बहुत मुमकिन है कि आपके चुने हुए सलाहकारों ने एक बार फिर आपको गुमराह किया है और परिणामस्वरूप आपसे 'छ करोड़ गुजरातियों' को भी गुमराह करवा दिया है जो आपको अपना निर्वाचित नेता मानते हैं. 

एक छोटे गुजराती भाई की हैसियत से इस निर्णय एवं आदेश का गूढ़ार्थ समझने में आप कृपया मुझे अपनी सहायता करने दें जिसने राजनीतिक वर्णक्रम के कुछ हिस्सों में सुस्पष्ट विद्वेषी आनंद और जश्न का माहौल पैदा कर दिया है. आपके पत्र में कहा गया है कि "उच्चतम न्यायालय के फैसले से एक चीज स्पष्ट है. 2002 के दंगों के बाद मेरे और गुजरात सरकार के खिलाफ निराधार और झूठे आरोपों ने जो खराब माहौल बनाया था, उसका अब खात्मा हो गया है."   

मुझे यह स्पष्ट करने दें कि दूर-दराज से भी माननीय उच्चतम न्यायालय का आदेश कहीं भी यह नहीं कहता कि श्रीमती जाकिया जाफरी द्वारा दायर की गई शिकायत में उल्लिखित आरोप निराधार अथवा झूठे थे. सच तो यह है कि गुजरात नरसंहार के अभागे पीड़ितों को इन्साफ दिलाने की दिशा में माननीय उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय एक बहुत बड़ा कदम है. जैसा कि आप भली भांति जानते हैं, श्रीमती जाफरी इस प्रार्थना के साथ गुजरात उच्च न्यायालय गईं थीं कि उनकी शिकायत को प्रथम सूचना रिपोर्ट के तौर पर दर्ज किया जाए. माननीय गुजरात उच्च न्यायालय ने उनकी यह याचिका खारिज कर दी थी. उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ श्रीमती जाफरी ने माननीय उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की थी. 

माननीय उच्चतम न्यायालय ने विशेष जांच दल को उनकी शिकायत की जांच करने के लिए निर्देशित किया और बाद में न्यायालय की सहायता कर रहे विद्वान् अधिवक्ता को विशेष जांच दल द्वारा जमा किए गए सबूतों का परीक्षण करने का भी निर्देश दिया. इस लम्बी और मुश्किल कसरत के बाद माननीय उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती जाफरी की अपील को न केवल स्वीकार कर विशेष जांच दल को श्रीमती जाफरी की शिकायत को वस्तुतः प्रथम सूचना रिपोर्ट के तौर पर मानने हेतु निर्देशित किया बल्कि विशेष जांच दल को यह भी निर्देशित किया कि वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (2 ) के तहत रिपोर्ट फ़ाइल करे. आपके और आपके छ करोड़ गुजराती भाईयों और बहनों की सुविधा के लिए मुझे यह बताने की अनुमति दें कि धारा 173 (2 ) की इस रिपोर्ट को आम बोलचाल की भाषा में चार्ज-शीट (आरोप-पत्र) या फाइनल रिपोर्ट कहा जाता है. 

भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती जाफरी को जो दिया है वह उससे बहुत-बहुत ज्यादा है जिसकी कि उन्होंने मूल रूप से प्रार्थना की थी. जिस आदेश पर हममें से कुछ लोग झूठा जश्न मना रहे हैं, वह दरअसल बहुत होशियारी से शब्दबद्ध किया हुआ एक ऐसा आदेश है जो 2002 जनसंहार के अपराधियों और उसे सुगम बनाने वालों को उनके हिसाब-किताब के दिन के कुछ कदम और नजदीक ले जाने वाला है. यह झूठी डींग गुजरात की भोली-भाली जनता को गुमराह करने और राजनीतिक तबके में एक फर्जी आत्मविश्वास की भावना को स्थापित करने का एक चतुर प्रयास है. कृपया भरोसा रखें कि जब इस आदेश का वास्तविक आशय समझ में आने लगेगा और न्यायिक प्रभाव लेने लगेगा, तब पूरी तरह से एक अलग तस्वीर हमारे सामने आएगी.  

'छ करोड़ गुजरातियों' में से एक होने की वजह से मैं बहुत दुखी और ठगा हुआ महसूस करता हूँ जब आप जैसे लोग जाने अनजाने में निहित स्वार्थों के लिए गुजरात की जनता को गुमराह करते हैं. एडोल्फ हिटलर के एक नजदीकी सहयोगी और नाज़ी जर्मनी के रिख प्रचार मंत्री पाल जोसेफ गोएबल्स द्वारा प्रतिपादित और व्यवहार में लाया गया सिद्धांत निश्चित रूप से जनसंख्या के अधिकाँश के लिए कुछ समय तक काम कर सकता है. मगर ऐतिहासिक अनुभवों से हम सभी जानते हैं कि गोएबलीय प्रोपेगंडा सभी लोगों को हमेशा के लिए मूर्ख नहीं बना सकता. 

मैं आपके इस एहसास का पूरी तरह से समर्थन करता हूँ कि "नफरत को कभी नफरत से नहीं हराया जा सकता." आपसे बेहतर इस बात को और कौन समझ सकता है जिसने इस प्रदेश की पिछले एक दशक से सेवा की है ; या मुझसे बेहतर जिसने भारतीय पुलिस सेवा में पिछले 23 साल नौकरी की है. 2002 के उन दिनों मुझे भी आपके साथ काम करने का दुर्भाग्य हासिल हुआ था जब गुजरात के विभिन्न स्थानों पर घृणा के नृत्य का निर्देशन और पाप किया जा रहा था. हालांकि मेरे लिए हम दोनों की निजी भूमिकाओं की चर्चा और उनके विस्तृत विवरण को जाहिर करने का यह उचित मंच नहीं है, मुझे पूरा विश्वास है कि हमको पर्याप्त रूप से सशक्त मंच के सामने गुजरात की व्यवहारिक राजनीतिक में घृणा और द्वेष के गतिविज्ञान के अपने ज्ञान को जाहिर करने के भरपूर अवसर मिलेंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि आप और सरकार के भीतर और बाहर के आपके सहयोगी इसके लिए मुझसे और अधिक नफरत नहीं करेंगे. 

मैं आपसे और अधिक सहमत नहीं हो सकता जब आप कहते हैं कि "झूठी बातें फैलाने और गुजरात को बदनाम करने वालों की विश्वसनीयता सबसे निचले स्तर पर आ गई है. इस देश के लोग ऐसे तत्वों पर अब और विश्वास नहीं करेंगे." मगर मेरे प्यारे भाई, लगता है कि आप इस बात को पूरी तरह से गलत समझ रहे हैं कि झूठी बातें कौन फैला रहा है और गुजरात को कौन बदनाम कर रहा है. मेरी समझ से, गुजरात उन बदनसीब पीड़ितों की वजह से नहीं बदनाम हुआ है जो लगातार सत्य और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि उन लोगों के घिनौने कृत्यों की वजह से बदनाम हुआ है जिन्होनें राजनीतिक और चुनावी लाभ की फसल काटने के लिए नफरत की खेती की है. कृपया इस पर थोड़ा विचार करें. कभी कभी आत्मावलोकन बहुत फायदेमंद होता है.

"गुजरात की शान्ति, एकता और सामंजस्य के माहौल को और मजबूत करने" के आपके सरोकार और प्रयासों से मैं बहुत गहरे प्रभावित हुआ. आपको और आपके स्वजनों को धन्यवाद कि 2002 के बाद गुजरात बड़े पैमाने की किसी साम्प्रदायिक हिंसा के स्फोटन से मुक्त रहा है.  

 हमारे "छ करोड़ गुजरातियों" के लिए इसकी वजहें बहुत स्पष्ट नहीं होंगी. भारतीय पुलिस सेवा में यह मेरा चौबीसवां साल है. मुझे गुजरात कैडर ऐसे समय में आवंटित हुआ था जब प्रदेश अत्यंत विस्तृत और छिटपुट साम्प्रदायिक हिंसा की तीव्र वेदना से गुजर रहा था. इस आग से बपतिस्मा पाने के बाद से ही मैं आप जैसे लोगों को समझने और उनसे निपटने में लगा हूँ जो घृणा की बांटने वाली राजनीति में संलग्न हैं. यह मेरी पुख्ता राय है कि गुजरात की राजनीति अब उस चरण को पार कर गई है जहां साम्प्रदायिक हिंसा किसी राजनीतिक दल को कोई चुनावी फायदा पहुंचा सकती है क्योंकि गुजरात में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी है. 

गुजरात प्रयोगशाला में बांटने वाली घृणा की राजनीति के प्रयोग बहुत सफल रहे हैं. राजनीति के अखाड़े के आप और आप जैसे लोग "छ करोड़ गुजरातियों" के दिलो दिमाग में विभाजन पैदा करने में बड़े पैमाने पर कामयाब हुए हैं. गुजरात में कुछ और साम्प्रदायिक हिंसा के उपाय की जरूरत पहले ही पुरानी पड़ चुकी है. 


हमारे जैसे सांविधानिक लोकतंत्र में राज्य के लिए हर समय और हर परिस्थिति में सद्भावनापूर्वक कार्य करना आवश्यक है. पिछले साढ़े नौ सालों में बहुत से साथी इस गुमराह करने वाले प्रचार का शिकार हुए हैं कि 2002 का गुजरात जनसंहार, 27 फरवरी 2002 की मनहूस सुबह को गोधरा में हुए निंदनीय कृत्य की तात्कालिक प्रतिक्रया था. न्यूटन के सिद्धांत को इससे बड़ी गाली पहले कभी नहीं दी गई थी. आपने मार्च 2002 में न्यूटनी भौतिकी के अपने ज्ञान और समझ का सहारा लिया और 2002 के गुजरात जनसंहार के चरम पर राज्य व्यवस्था और शासन में उसे लागू करने का रास्ता तलाशा.  


मगर उस समय आपने जानबूझकर जिस बात की अनदेखी की, और जिसे हममें से बहुत से लोग अनजाने में ही आज भी अनदेखा करते लग रहे हैं, वह सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत शासन का वह सिद्धांत था जो यह अनिवार्य करता है कि किसी सांविधानिक लोकतंत्र में स्पष्ट रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को पक्षपाती होने की इजाजत नहीं दी जा सकती. यह राज्य का बाध्यकारी कर्तव्य था कि उसने किसी भी संभावित न्यूटनी प्रतिक्रया का अनुमान लगाकर उसे नियंत्रित किया होता ; न कि निर्दोष लोगों को सुनियोजित रूप से निशाना बनाने को सुगम बनाता ! 


जैसा भी हो, महात्मा की भूमि में सद्भावना के प्रसार के आपके घोषित लक्ष्य के साथ एका प्रदर्शित करते हुए मैं आपके सद्भावना मिशन में आपका साथ देने का संकल्प लेता हूँ. इसका इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है कि सत्य को उजागर करने में मदद की जाए और न्याय एवं सद्भावना को विजयी होने दिया जाए. जैसा कि हम सभी समझते हैं, सत्य एवं न्याय के बिना कोई सद्भावना नहीं हो सकती. मैं एतद्वारा गुजरात के प्रशासन एवं राज्य व्यवस्था में फिर से सद्भावना कायम करने के लिए यथाशक्ति सहयोग करने का अपना संकल्प दुहराता हूँ. 


मगर मैं आपको चेताना चाहता हूँ कि दिल से महसूस की जाने वाली सच्ची सद्भावना एक ऎसी चीज है जिसकी हम न तो मांग कर सकते हैं न ही उसे खरीद या छीन सकते हैं... हम बस उसके लायक होने के लिए प्रयास कर सकते हैं. और यह कोई आसान काम नहीं साबित होने वाला है. महात्मा की भूमि निश्चित रूप से धीरे-धीरे अपनी सम्मोहन की अवस्था से बाहर आ रही है.  


गुजरात के सबसे ताकतवर व्यक्ति होने के कारण आपको लग सकता है कि आपको समाज के सभी वर्गों की समझ के हिसाब से जवाबदेह महसूस करने की आवश्यकता नहीं है. मगर मेरा विश्वास करें, इतिहास ने बार-बार यह साबित किया है कि वास्तविक सद्भावना के बिना सत्ता खतरों से भरे हुए एक रास्ते की तरह है... यह एक ऐसा रास्ता भी है जहां से वापसी की कोई गुंजाइश नहीं होती.


समभाव एक ऎसी स्थिति है जो सद्भाव की पूर्ववर्ती होती है. साम्य एवं सद्भाव के साथ शासन न केवल आपकी आस्था की पहली चीज होनी चाहिए वरन आपके सम्प्रदाय की आखिरी चीज भी. 


सत्य अक्सर कड़ुआ होता है और इसे स्वीकार करना इतना आसान नहीं है. मैं आशा करता हूँ कि इस पत्र को आप उसी भावना के साथ ग्रहण करेंगे जिस भावना के साथ यह लिखा गया है और आप या आपके प्रतिनिधि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बदले के किसी कृत्य में संलग्न नहीं होंगे जैसा कि आपकी आदत है. 


मार्टिन लूथर किंग जूनियर के शब्दों में - किसी भी जगह पर अन्याय, हर जगह पर न्याय के लिए एक ख़तरा है. न्याय के लिए संघर्ष कर रहे गुजरात के अभागे पीड़ितों का उत्साह कभी मंद पड़ सकता है मगर उसे झूठे गोएबलीय प्रोपेगंडा की किसी भी मात्रा द्वारा दबाया नहीं जा सकता. इन्साफ की लड़ाई दुनिया में कहीं भी आसान नहीं रही है... इसमें हमेशा अनंत धैर्य और अचूक लगन की आवश्यकता होती है. गुजरात में सत्य एवं न्याय के लड़ाकों की भावना को एम एस विश्वविद्यालय, बड़ौदा के पुराछात्र भूचुंग सोनम की इस कविता में व्यक्त किया गया है -   

मेरे पास सिद्धांत हैं और कोई सत्ता नहीं 
तुम्हारे पास सत्ता है और कोई सिद्धांत नहीं 
तुम, तुम हो
और मैं, मैं हूँ
समझौते का कोई सवाल ही नहीं 
तो शुरू होने दो युद्ध...

मेरे पास सत्य है और कोई ताकत नहीं 
तुम्हारे पास ताकत है और कोई सत्य नहीं 
तुम, तुम हो 
और मैं, मैं हूँ 
समझौते का कोई सवाल ही नहीं 
तो शुरू होने दो युद्ध... 

तुम कूंच सकते हो मेरा सर 
मैं लड़ूंगा
तुम कुचल सकते हो मेरी हड्डियां 
मैं लड़ूंगा
ज़िंदा दफना सकते हो मुझे 
मैं लड़ूंगा
अपनी नसों में दौड़ते हुए सत्य के साथ
मैं लड़ूंगा
अपनी रत्ती-रत्ती ताकत भर 
मैं लड़ूंगा
उखड़ती हुई अपनी आखिरी सांस तक 
मैं लड़ूंगा...
तब तक लड़ूंगा मैं 
जब तक कि जमींदोज नहीं हो जाता 
तुम्हारे झूठों से बना हुआ किला 
जब तक कि तुम्हारे झूठों से पूजा हुआ शैतान 
घुटने नहीं टेक देता सत्य के मेरे फ़रिश्ते के सामने. 

कृपालु ईश्वर आपको निष्पक्ष एवं सद्भावपूर्ण होने के लिए अपेक्षित शक्ति प्रदान करे 

आप सभी के लिए,
सत्यमेव जयते !

शुभकामनाओं सहित,

आपका 
संजीव भट्ट  
                                                                   ::  :: :: :: 
(हिन्दुस्तान टाइम्स से साभार) 

Thursday, September 22, 2011

एथलबर्ट मिलर की दो कविताएँ

एथलबर्ट मिलर की दो कविताएँ... 












एथलबर्ट मिलर की दो कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल)

पहली बार 

जब पहली बार 
हमने प्यार किया 
मैं जागता रहा 
पूरी रात 
तुम्हें 
सोते देखते हुए 

बगल के घर में 
रहने वाला आदमी 
खांसता रहा 
रात भर 
:: :: ::


पहली किरण 

बिल्ली खोल देती है बेडरूम का दरवाजा 
देखता हूँ तुम्हें अकेले सोते हुए
चादर में छुपा है तुम्हारा चेहरा
कुछ घंटे बाक़ी हैं अभी पहली किरण के फूटने में 
मातृ दिवस है आज 
निपटाने के लिए कुछ काम पड़ा है मेरी मेज पर 
और भुगतान किए जाने के लिए कुछ बिल 
रेमंड कार्वर को पढ़ रहा हूँ मैं
कैसे कविता को जन्म देता है एक इंसान ?
कितनी मुश्किल और कितनी उम्मीद से 
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Manoj Patel Translations 

एथलबर्ट मिलर : मेरे पिता का हैट

एथलबर्ट मिलर की कुछ कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं. आज उनकी एक और कविता...












अश्वेत व्यक्ति की आलमारी : एथलबर्ट मिलर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

आलमारी के 
सबसे ऊपरी खाने में 
हैट रहता है मेरे पिता का 
जिसे वे पहनते हैं ख़ास मौकों पर 
यह उस बड़े से जार के बगल में रखा रहता है 
जिसमें वे रेजगारी इकट्ठा करते हैं 

नंगा ही रहता है उनका सर 
जब भी मैनें उन्हें देखा है 
सड़कों पर चलते हुए 

एकबार उनके बेडरूम में बैठा 
मैं देख रहा था उन्हें 
स्वेटरों और सूटों को उलटते-पुलटते 
वे कुछ ढूंढ़ रहे थे 
शायद कोई टाई

अचानक वे रुक गए 
और धीरे-धीरे गए आलमारी की तरफ 
उसमें से हैट निकाला अपना 

मैं बैठा रहा बिस्तर पर 
उनकी पीठ निहारता 
उनके मुड़ने का इंतज़ार करता हुआ
और यह बताने का कि किसकी मौत हो गई है 
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Manoj Patel Translations

Wednesday, September 21, 2011

नाओमी शिहाब न्ये : प्याज का सफ़र

नाओमी शिहाब न्ये की कविता...












प्याज का सफ़र : नाओमी शिहाब न्ये 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

"ऐसा माना जाता है कि प्याज मूल रूप से हिन्दुस्तान से आई. मिस्र में इसकी पूजा की जाती थी - ऐसा क्यों था यह मुझे पता नहीं चल पाया. मिस्र से प्याज यूनान और  इटली पहुंची. फिर वहां से पूरे यूरोप में."
                                                                                 - बेटर लिविंग कुकबुक


जब मैं सोचती हूँ कि कितना लंबा सफ़र तय किया है प्याज ने 
सिर्फ आज मेरे स्ट्यू में शामिल होने के लिए, 
झुक कर तारीफ़ करने का मन होता है 
भुला दिए जाने वाले ऐसे छोटे-छोटे करिश्मों की, 
चटचटा कर उतरना पतले से कागजी छिलके का,
भीतर एक चिकनी तालमेल में मोतियों सी परतें,
कैसे उतरता है चाकू प्याज में 
और खुल जाती है प्याज 
एक इतिहास जाहिर करती हुई.  

और मैं प्याज को कभी दोष नहीं दूंगी 
आंसू निकालने के लिए.
यह तो ठीक ही है कि आंसू निकल आएं 
किसी छोटी और भूली-बिसरी चीज के लिए.
खाना खाते समय हम कैसे बैठकर 
बातें करते हैं मांस की बनावट और मसालों की खुशबू की 
मगर कभी बात नहीं करते अब बँट और बिखर चुकी  
प्याज की पारभासकता पर,
या जमाने पुराने इसके इज्जतदार पेशे पर :
खुद को गायब कर लेना 
दूसरों के भले के लिए. 
                    :: :: ::  
Manoj Patel Translations 

Tuesday, September 20, 2011

मरम अल-मसरी : रोती है गुड़िया

मरम अल-मसरी की चार कविताएँ...












मरम अल-मसरी की चार कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

इंतज़ार करूंगी 
बच्चों के सोने का 
और फिर 
अपनी नाकामयाबी की लाश को 
बहने दूंगी 
छत तक.
:: :: :: 

एक दिन 
वह मोल ले लाया 
एक गुड़िया.
वह हंसती थी 
जब वह हंसने का हुक्म देता था उसे,
गाती और नाचती थी 
उसके बटन दबाने पर,
और सो जाती थी 
जब वह लिटा देता था उसे.
मगर ओह मालिक का गुस्सा !
उसके बिस्तर में लेटी
गुड़िया
रोती है कभी-कभी 
और ताकती रहती है आँखें फाड़ कर. 
:: :: :: 

माफी चाहती हूँ...
अनजाने,
और अनचाहे,
मेरी हवाओं ने 
झकझोर दिया तुम्हारी डालियों को   
और गिरा दिया 
तुम पर अभी तक खिला 
इकलौता फूल.
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उसके पास दो स्त्रियाँ हैं :
एक सोती है उसके बिस्तर पर,
और दूसरी 
उसके ख़्वाबों के बिस्तर पर.

उसके पास उससे प्यार करने वाली दो स्त्रियाँ हैं :
एक बूढ़ी हो रही है उसके बगल में,
दूसरी उसे पेश करती है अपनी जवानी 
और फिर कुम्हला जाती है. 

उसके पास दो स्त्रियाँ हैं :
एक उसके घर के दिल में,
और दूसरी उसके दिल के घर में.
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Monday, September 19, 2011

दून्या मिखाइल : उसने कहा था



'उसने कहा था' के क्रम में आज दून्या मिखाइल के कुछ कोट्स... 



उसने कहा था : दून्या मिखाइल 
(अनुवाद एवं प्रस्तुति : मनोज पटेल)


1. 
सिर्फ पत्थर ही हैं जिनके ख्वाब नहीं चिटकते 
सिर्फ पत्थर के ही दिल टिकते हैं. 

2. 
क्या मृतकों को खुदकशी करने और 
इस तरह पृथ्वी पर वापस आने का हक़ है ? 

3. 
हम दोनों को  (पृथ्वी और मुझे)
भरोसा है कि एक ने दफना रखा है दूसरे को अपने भीतर.
मैं सोचती हूँ कि कौन दफनाया गया होगा पहले ?

4. 
-- जीत क्या है ?
-- वे हमारे नसीब में हार लिखती हैं.

5. 
कल, चाँद गिर पड़ा तंदूर में 
और सिंक गया रोटी के साथ. 

6. 
हम सोते हैं कतार में खड़े-खड़े 
और विशेषज्ञ उपाय सोचते हैं सीधी खड़ी कब्रों के लिए 
क्योंकि खड़े-खड़े ही मर जाना है हमें. 

7. 
-- पुल क्या होता है ?
-- पुल एक माँ है अपने बच्चे पर झुकी हुई 
जो गिर पड़ा है मुरझाई पत्तियों के साथ.

8. 
दुनिया मानती है लोकतंत्र को,
इसलिए यह मृतकों को देती है 
शहर में भटकने की आजादी.

9. 
मुझे पता है कि तुम्हारे हाथ खाली हैं.
जानती हूँ कि अभी कुछ नहीं है करने के लिए तुम्हारे हाथों के पास.
मगर इससे ठीक नहीं साबित हो जाता उन्हें ताली बजाना सिखाना.

10. 
तुम रात की तरह तो नहीं हो, फिर अन्धेरा तुम्हें क्यों चाहता है ?

11. 
जब भाषा मर जाती है,
धरती के लोग इसे शब्दकोषों में दफना देते हैं. 

12. 
मगर यह पल है कहाँ ?
यह गायब हो जाता है हमारे बोलते ही.
अपनी जगह दूसरे पल को दे देता है 
और अतीत हो जाता है.
दुनिया हमेशा ही भूतकाल में रहती है.

13. 
जब जंग शुरू हुई मैनें शतरंज खेलना छोड़ दिया :
कोई मतलब नहीं था इतने सारे प्यादों को कुर्बान करने का 
सिर्फ एक बादशाह को बचाने के लिए. 

14.
जब बरस रही हो खुदा की बारिश 
मेरे दोस्त 
खामोश रहो थोड़ी देर 
कि कहीं भीग न जाएं बातें !

15.
वक़्त ठहर गया बारह बजे
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी की सूइयां
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर. 


16.  
- मैं पृथ्वी की तस्वीर बनाना चाहता हूँ
- बनाओ, मेरे बच्चे. 
- मैनें बना लिया.
- और यह कौन है ?
- वह मेरी दोस्त है.
- और पृथ्वी कहाँ है ?
- उसके हैण्डबैग में. 


17.
किसी मोची के हाथों 
मुट्ठी भर कील ही तो है ज़िंदगी.


18.
किसी हाईकू कविता की तरह
मेरे सूटकेस ने समेट दी मेरी दुनिया 
तस्वीरों और चिट्ठियों 
एक कापी और एक पेन्सिल में. 
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Sunday, September 18, 2011

नाजिम हिकमत : जैसे किसी बाग़ी का झंडा

नाजिम हिकमत की 'रात 9 से 10 के बीच की कविताएँ' से एक और कविता...












रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 4 : नाजिम हिकमत 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

(पत्नी पिराए के लिए)

4 दिसंबर 1945 

अपना वही कपड़ा निकालो जिसमें मैनें तुम्हें पहले पहल देखा था,
सबसे सुन्दर नजर आओ आज,
बसंत ऋतु के पेड़ों की तरह...
अपने जूड़े में वह कारनेशन लगाओ 
          जो मैनें तुम्हें जेल से भेजा था एक चिट्ठी में,
ऊपर उठाओ अपना चूमने लायक, चौड़ा गोरा माथा.
आज कोई रंज नहीं कोई उदासी नहीं --
                                                         कत्तई नहीं ! --
आज नाजिम हिकमत की बीवी को बहुत खूबसूरत दिखना है 
                                                         जैसे किसी बाग़ी का झंडा...
                               :: :: ::

Saturday, September 17, 2011

बिली कालिन्स : कविता का असली मतलब

बिली कालिन्स की एक कविता...













कविता का परिचय : बिली कालिन्स
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं उनसे कहता हूँ
किसी कविता को लेकर उसे रोशनी की तरफ करके देखो 
जैसे देखते हैं किसी रंगीन स्लाइड को 

या फिर अपना एक कान सटाओ इसके संग्रह से. 

मैं कहता हूँ कविता के भीतर एक चूहा छोड़ो
और उसे बाहर निकलने का अपना रास्ता तलाशते देखो,

या फिर दाखिल होओ कविता के कमरे के भीतर 
और दीवार टटोलो बिजली की बटन के लिए.

मैं उनसे चाहता हूँ किसी कविता की सतह पर 
वाटरस्कीइंग करवाना 
किनारे कवि के नाम की तरफ हाथ हिलाते हुए.

मगर वे तो सिर्फ 
कविता को कुर्सी से बांधकर
उससे जबरन कुछ कबुलवाना चाहते हैं. 

वे उसे पीटने लगते हैं एक पाइप से 
उसका असली मतलब जानने के लिए. 
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