Saturday, September 24, 2011

न्यूयार्कर : फेसबुक अपना अलग इंटरनेट बनाना चाहता है

लोकप्रिय सोशल नेट्वर्किंग साईट फेसबुक में होने वाले बदलावों पर यह टिप्पड़ी न्यूयार्कर में प्रकाशित हुई है.












फेसबुक वास्तव में जो चाहता है : न्यूयार्कर  
(अनुवाद : मनोज पटेल)

कोई बड़ा बदलाव करने का एक तरीका यह भी है कि लोगों को इस बात पर भड़का दिया जाए कि आपने कैसे कोई छोटा बदलाव कर दिया. जहाज पर नया पेंट कर दीजिए और लोगों को इस पर बहस करने दीजिए. जब तक वे समझ पाएंगे कि हरा, नीले से बदतर नहीं है, उनमें यह सोचने की शक्ति नहीं रह जाएगी कि आस्ट्रेलिया की समुद्री यात्रा पर निकल पड़ना बेहतर विचार था या नहीं.   

इस सप्ताह फेसबुक की रणनीति कुछ ऎसी ही नजर आई. कम्पनी ने कल साईट को फिर से डिजाइन किया : तस्वीरें बड़ी नजर आ रही हैं, "पोक" बटन गायब हो गया है, दाहिनी तरफ के कालम में तमाम तरह की चीजें लाकर भर दी गई हैं. अगर आप फेसबुक पर ज्यादा नहीं आते, कम्पनी यह बताने के लिए गणित का सहारा लेगी कि आपको अपनी न्यूज फीड में सबसे ज्यादा क्या जंचेगा. फेसबुक जब भी अपने रूप में बदलाव करता है लोग पागल हो उठते हैं. इस बार भी बहुत बड़े पैमाने पर लोग अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं. कम्पनी अपने हेल्प पेज पर खुशी-खुशी पूछती है, "हम आपकी क्या सहायता कर सकते हैं?" फेसबुक प्रयोक्ता जवाब दे रहे हैं, "आई हेट हेट हेट द न्यू फेसबुक लेआउट." अन्त-पन्त हम नए डिजाइन को स्वीकार कर लेंगे और हमेशा की तरह भूल जाएंगे कि हम कितना गुस्साए हुए थे.

ज्यादा जरूरी बातें शायद आज फेसबुक की ऍफ़ 8 डेवलपर कांफ्रेंस के बाद पता चलें. यहाँ फेसबुक, प्रकाशकों, संगीत और वीडियो कंपनियों के साथ नए समझौतों की घोषणा करने वाला है. फेसबुक के भीतर ही पढ़े जाने के लिए समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को फिर से डिजाइन किया जाएगा. आप और आपके दोस्त एक ही साथ संगीत सुन सकेंगे. प्राइवेसी को लेकर फेसबुक की ऐतिहासिक बेरुखी को देखते हुए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि आप जो कुछ भी पढ़ें, सुनें या देखें, उसे संभवतः आपके दोस्तों के साथ साझा किया जाए. लक्ष्य यह है कि हम सामान्यतः इंटरनेट पर जो कुछ भी करते हैं उसे फेसबुक के भीतर ले आया जाए.

फेसबुक और मार्क जुकरबर्ग -- जिन्हें जोसे अंटोनियो वर्गास ने "ओवर-शेयरिंग के युग में ओवर-शेयरर" की उपाधि दी है -- का दीर्घकालीन लक्ष्य एक पृथक इंटरनेट बनाना रहा है. फेसबुक में काम करने वाले लोगों के हिसाब से एक तरफ गूगल और उसके एलागरिद्म्स द्वारा संचालित यह निरुत्साह, भ्रामक, खुला इंटरनेट है. जब आप वहां जाते हैं तो आपको पता नहीं होता कि आपको क्या हासिल होने जा रहा है. और वहीं फेसबुक का उप-इंटरनेट है जहां सबकुछ बेहतर है, आपके दोस्तों द्वारा व्यवस्थित. 

शुरूआत में फेसबुक सिर्फ तस्वीरों को पोस्ट करने की एक जगह थी और यह देखने की कि आपके साथ हाईस्कूल में पढ़ने वाले और कौन-कौन से लोग यहाँ आ गए. फिर यह राजनीतिक विरोधों को संगठित करने और गेमों में समय बर्बाद करने की भी एक जगह बन गया. इनमें से हर तरीके से यह बढ़ता ही गया है. इसे अरब विस्फोट को सुगम बनाने में मदद करने का श्रेय मिलता है, और अब तो यह आज तक ली गई कुल तस्वीरों के चार प्रतिशत को होस्ट करता है. अब अगर फेसबुक अपने रास्ते चल पाया तो यह वह जगह होगी जहां आप ख़बरें पढेंगे, नए गाने सुनेंगे और वीडियो देखेंगे. यह बाक़ी के इंटरनेट का बड़ा हिस्सा साफ़ कर जाएगा.

इसके दूरगामी परिणाम होंगे. हमारे आनलाइन जीवन का जितना ज्यादा हिस्सा फेसबुक पर बीतेगा, हम कम्पनी चलाने वाले लोगों की पसंद पर उतने ही निर्भर होते जाएंगे -- कि प्राइवेसी के बारे में उनकी राय क्या है, कि उनकी राय में हमें अपने दोस्तों को किस ढंग से बनाना चाहिए और वे विज्ञापनदाताओं (और सरकारों) को क्या बताते हैं कि हम क्या कर रहे हैं या क्या खरीद रहे हैं. हमें समाचार और संगीत उपलब्ध करवाने के लिए वे जिन साझेदारों को चुनेंगे, हमें उन पर भरोसा करना होगा. दांव पर वास्तविक मुद्दे हैं - यानी बात सिर्फ इतनी नहीं है कि तस्वीर कितनी बड़ी है या आप "पोक" कर सकते हैं या नहीं. 
                                                      :: :: :: ::
('द न्यूयार्कर' से साभार)

3 comments:

  1. nice review Manoj ji...mujhe lagta he mudda isse bhi bada he....

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  2. कविता और कहानियों के अलावा आप आज कल जो सारगर्भित लेखों का अनुवाद दे रहे है वह काबिले तारीफ़ है . सुचना के विस्फोट वाले समय में इस तरह की जानकारी का यूँ ही बगैर पढ़े गुजरजाना मेरे जेसे पाठकों के लिए एक क्षति है . आपका प्रयास अनुकर्णीय है .

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  3. बाप रे बाप !!
    कैसे-कैसे दाँव-पेंच हैं कैसी-कैसी चालें हैं,
    सरमाएदारी के भईया देखो खेल निराले हैं !

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