Friday, May 31, 2013

मोनिका मेस्टरहाज़ी की कविता

हंगरी की कवयित्री मोनिका मेस्टरहाज़ी की एक कविता... 

देश और काल : मोनिका मेस्टरहाज़ी  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 
          एफ. ए. के प्रति 

उन्हें नहीं पता कैसे पढ़ी जाती हैं कविताएँ: 
वे पढ़ नहीं पाते जो लिखा होता है 
दो पंक्तियों के बीच. 
             :: :: :: 

Friday, May 24, 2013

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : मेरा दिल चाहता है


अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   
मेरा दिल चाहता है : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यन्तरण : मनोज पटेल) 

मौत फ़रोख्त नहीं होती 
यह खुद को सिपुर्द कर देती है 
ज़हर की एक बूँद 
और स्याह सीढ़ियों के नीचे 

मौत की तलाश में 
हम उनके साथ भटक जाते हैं 
जिनके फांसीघरों में 
हमारे लिए कोई गिरह नहीं 

हम मौत को उन शहरों में ढूँढ़ते हैं 
जहाँ लोहे को ज़ंग नहीं लगता 

चीते के उन पंजों में तलाश करते हैं 
जो उतार दिए गए 

हम मरने के लिए जगह खरीदते हैं 
दरख़्त के साए में 
सुतून के पास 
या 
किसी बिकने वाले दिल में 
मगर हम किसी पुल पर दफ़्न नहीं हो सकते 

मौत किसी का रास्ता नहीं रोकती 
मुझे नहीं मालूम 
क़त्लगाह के दरवाजे पर मुझे 
क्यों रोक दिया गया  
मुझे नहीं मालूम 
खंजर नीलाम करने वाला 
मुझसे किस तरह पेश आएगा 

मैंने आखिरी बोली क्यों लगाई 
जबकि मेरे पास 
कोई रक़म नहीं 

शायद मैं मौत से उधार कर सकता हूँ 
सोने की एक सौ ईंटें 
या 
आधी दुनिया 
शायद मैं मौत से कह सकता हूँ 
मेरा बच्चा 
जो एक लड़की अपने बदन में ज़ाया कर रही है 
किसी और लड़की में 
मुंतक़िल कर दे 

मगर 
उतनी देर में 
गुज़रगाह की दूसरी तरफ़ 
कैद किए हुए जानवरों पर शाम आ जाती है 

मेरा दिल चाहता है 
मैं मौत से बेवफ़ाई करूँ 

मेरा दिल चाहता है 
तुम्हें बता दूँ 
मेरी मौत तुम्हारे उस ख़्वाब में है 
जो तुमने मुझसे बयान नहीं किया 

मेरा दिल चाहता है 
तुम्हारा देखा हुआ ख़्वाब 
तुम्हारे सामने दुहराऊँ 
और 
मर जाऊँ 
            :: :: :: 

फ़रोख्त  :  बिक्री 
सुतून  :  खम्भा 
फांसीघर  :  फांसी देने का स्थान 
गिरह  :  गाँठ, फंदा 
क़त्लगाह  :  वधस्थल 
मुंतक़िल  :  स्थानांतरित 
गुज़रगाह  :  रास्ता 

Thursday, May 23, 2013

एमिली डिकिन्सन की कविता

अमेरिकी कवयित्री एमिली डिकिन्सन की एक कविता... 

याद जब डबाडब हो : एमिली डिकिन्सन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

याद जब डबाडब हो 
ठीक से लगा दो ढक्कन उस पर -- 
आज सुबह का सबसे खूबसूरत लफ़्ज 
कहा गुस्ताख़ शाम ने --
             :: :: :: 

Saturday, May 18, 2013

डोरोथिया ग्रासमैन की कविता

डोरोथिया ग्रासमैन की एक कविता... 

मैं समझ गई कुछ गड़बड़ है  :  डोरोथिया ग्रासमैन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मैं समझ गई कुछ गड़बड़ है 
जिस दिन मैंने कोशिश की 
धूप का एक छोटा सा टुकड़ा उठाने की 
और कोई आकार लेने का अनिच्छुक, 
वह फिसल गया मेरी उँगलियों से. 
बाकी सारी चीजें पूर्ववत ही रहीं -- 
कुर्सियाँ और कालीन 
और सारे कोने-अंतरे 
जहाँ जारी था इंतज़ार. 
             :: :: :: 

Wednesday, May 15, 2013

डोरोथिया ग्रासमैन : तुम्हें बताना है

डोरोथिया ग्रासमैन की एक कविता... 

तुम्हें बताना है  :  डोरोथिया ग्रासमैन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम्हें बताना है 
कभी-कभी होता है यूँ भी 
कि सूरज बजा देता है मुझे 
किसी घंटे की तरह,  
और मुझे याद आ जाता है सब कुछ, 
तुम्हारे कान भी. 
            :: :: :: 

Monday, May 13, 2013

क्रांतिकारी कवि लिओनेल रुगामा की कविता

लिओनेल रुगामा का जन्म 1949 में निकारागुआ में हुआ था. 1967 में वे, वहां के तानाशाह सोमोज़ा के विरुद्ध भूमिगत संघर्ष चला रही सांदिनीस्ता नेशनल लिबरेशन फ्रंट में शामिल हो गए और 15 जनवरी 1970 को बीस वर्ष की अल्पायु में सोमोज़ा की फौज से लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई. यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता... 

पृथ्वी चंद्रमा की एक उपग्रह है  :  लिओनेल रुगामा  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अपोलो 2 ज्यादा महँगा था अपोलो 1 के मुकाबले 
अपोलो 1 बहुत महँगा था. 

अपोलो 3 ज्यादा महँगा था अपोलो 2 के मुकाबले 
अपोलो 2 ज्यादा महँगा था अपोलो 1 के मुकाबले 
अपोलो 1 बहुत महँगा था. 

अपोलो 4 ज्यादा महँगा था अपोलो 3 के मुकाबले 
अपोलो 3 ज्यादा महँगा था अपोलो 2 के मुकाबले 
अपोलो 2 ज्यादा महँगा था अपोलो 1 के मुकाबले 
अपोलो 1 बहुत महँगा था. 

अपोलो 8 ने तो भट्ठा ही बैठा दिया था, मगर किसी ने एतराज नहीं जताया 
क्योंकि अन्तरिक्ष यात्री प्रोटेस्टैंट थे 
उन्होंने बाइबिल का पाठ किया चंद्रमा पर 
और अचंभित और खुश कर दिया हर इसाई को 
और उनके लौटने पर पोप पॉल छंठे ने दुआ दी उन्हें. 

अपोलो 9 इन सबकी सम्मिलित लागत से भी अधिक महँगा था 
अपोलो 1 सहित, जो कि बहुत महँगा था. 

अकावालिंका के लोगों के परदादा-दादी  
भूख से कम पीड़ित थे, उनके दादा-दादी के मुकाबले. 
उनके परदादा-दादी मरे थे भूख से. 
अकावालिंका के लोगों के दादा-दादी 
भूख से कम पीड़ित थे, उनके माता-पिता के मुकाबले. 
उनके दादा-दादी मरे थे भूख से.  
अकावालिंका के लोगों के माता-पिता 
भूख से कम पीड़ित थे, वहाँ के लोगों के बच्चों के मुकाबले. 
उनके माता-पिता मरे थे भूख से. 

अकावालिंका के लोग भूख से कम पीड़ित हैं 
वहाँ के लोगों के बच्चों के मुकाबले. 
अकावालिंका के लोगों के बच्चे जन्मे नहीं हैं भूख के कारण 
वे भूखे हैं जन्म लेने के लिए, सिर्फ भूख से मर जाने के लिए ही. 
खुशकिस्मत हैं गरीब कि उन्हें चंद्रमा मिलेगा विरासत में. 
                                    :: :: ::

Friday, May 10, 2013

डान सोशिउ : चीन जितनी बड़ी

रोमानियाई भाषा के कवि डान सोशिउ की एक कविता... 

चीन जितनी बड़ी  : डान सोशिउ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

और हम बैठ गए पत्थर की गीली बेंचों पर 
पुराने अखबार दबाए अपने चूतड़ों के नीचे 
हम में से एक ने कहा सुनो मेरी सचमुच बड़ी इच्छा है 
सिगरेट की ठूँठों से अपने लिए एक माला बनाने की 

वह '95 का कोई दिन था 
क्योंकि दूसरी बोतल खाली करने के बाद 
हमने उसे टिका दिया था पहली वाली के ऊपर 
और गिरी नहीं थी वह बोतल 

फिर एक लड़की आ गई थी वायलिन लिए हुए 
सिर्फ एक ही धुन आती थी उसे 
और उसने दो बार बजाया था उसे हमारे लिए 

ऊब, चीन जितनी बड़ी किसी ने कहा था 
चलो चमकाकर उन्हें लटका लेते हैं अपनी गर्दनों में किसी ने कहा था 
                           :: :: ::

Tuesday, May 7, 2013

राबर्तो हुआरोज़ की कविता


राबर्तो हुआरोज़ की कविताओं के क्रम में एक और कविता... 

राबर्तो हुआरोज़ की कविता 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मैं पलटता हूँ तुम्हारी तरफ, 
बिस्तर में या जीवन में, 
और पाता हूँ कि पगली हो तुम. 

उसके बाद पलटता हूँ अपनी तरफ 
और पाता हूँ वही हाल. 

इसलिए 
भले ही हम पसंद करते हैं सयानेपन को, 
आखिरकार एक बक्से में बंद कर देते हैं हम उसे, 
ताकि अब और न आ पाए वह इस पागलपन के रास्ते 
जिसके बिना हम चल नहीं सकते साथ-साथ. 
                                         (लारा के लिए फिर से, जब हम एक-दूसरे के पास आते जा रहे हैं.) 
                             :: :: ::

Sunday, May 5, 2013

ऊलाव हाउगे : रोड रोलर

उलाव हाउगे की एक और कविता... 

रोड रोलर  : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मोड़ पर वह मुनासिब चेतावनी देता है तुम्हें, 
नीम रौशनी में आता है तुम्हारी ओर, 
सुलगते सींग 
उसके माथे से झिलमिलाते हुए -- 
आता है बोझिल, साधिकार आता है लुढ़कते हुए 
उस डामर पट्टी को बराबर करते जिस पर चलना ही है तुम्हें. 

हर किसी को बने ही रहना है डामर पट्टियों पर, 
प्रसूति गृह से शवदाहगृह तक दौड़ती 
कन्वेयर बेल्टों पर. 
                     :: :: :: 

Friday, May 3, 2013

येहूदा आमिखाई : किसी जगह

यहूदा आमिखाई की एक और कविता... 

किसी जगह  : येहूदा आमिखाई  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

किसी जगह 
ख़त्म हो चुकी है बारिश, मगर 
मैं कभी नहीं खड़ा हुआ सीमा पर, 
जहाँ कि अभी सूखा ही हो एक पैर 
और दूसरा भीग जाए बारिश में. 

या किसी ऐसे देश में 
जहाँ लोगों ने बंद कर दिया हो झुकना 
अगर गिर जाए कोई चीज जमीन पर. 
                    :: :: ::

Wednesday, May 1, 2013

फ्रेडरिक नीत्शे : उसने कहा था


उसने कहा था के क्रम में आज फ्रेडरिक नीत्शे के कुछ कोट्स... 

उसने कहा था  : फ्रेडरिक नीत्शे  
(अनुवाद : मनोज पटेल) 


मेरा अकेलापन लोगों की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर नहीं करता; बल्कि मैं तो ऐसे लोगों को नापसंद करता हूँ जो मुझे सच्ची सोहबत दिए बिना मेरा अकेलापन हर लेते हैं. 

तुम्हारा अपना रास्ता है और मेरा अपना. रही बात ठीक रास्ते, सही रास्ते और इकलौते रास्ते की, तो उसका अस्तित्व नहीं है. 

आस्था : यह जानने की इच्छा न होना कि सच क्या है. 

स्वर्ग से सभी मजेदार लोग अनुपस्थित हैं. 

प्रेम में हमेशा कुछ पागलपन होता है. मगर पागलपन में भी हमेशा कुछ तर्क होता है. 

प्रेम अँधा होता है; दोस्ती अपनी आँखें बंद कर लेती है. 

मेरी अभिलाषा है कि मैं दस वाक्यों में वह बात कह दूँ जो दूसरे लोग एक पूरी किताब में कहते हैं. 

व्यक्तियों में मूर्खता अपवाद स्वरूप ही होती है; लेकिन समूहों, दलों, राष्ट्रों और कालखंडों में वह नियम होती है. 

क्या मनुष्य, ईश्वर की एक भारी भूल है? या ईश्वर, मनुष्य की एक भारी भूल है? 

सर्वश्रेष्ठ लेखक वही होगा जो लेखक बनकर शर्मिंदा हो. 
                                                                   :: :: ::
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