Sunday, September 11, 2011

मरम अल-मसरी : सिर्फ एक चुम्बन के लिए

मरम अल-मसरी की कुछ और कविताएँ...















मरम अल-मसरी की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मैं ही हूँ चोर
तुम्हारी दूकान में सजी 
टाफियों की.
उंगलियाँ चिपचिपी हो गईं मेरी 
मगर 
डाल न सकी एक भी 
अपने मुंह में.
:: :: :: 

ख्वाहिश भड़काती है मुझे
और चमकने लगती है मेरी आँखें.
नैतिकताओं को ठूंस देती हूँ मैं 
नजदीकी दराज में,
बदल जाती हूँ शैतान में
फरिश्तों की आँखों पर बाँध देती हूँ पट्टी 
सिर्फ 
एक चुम्बन के लिए. 
:: :: :: 

कोई दस्तक दे रहा है दरवाज़े पर.
कौन ?
बुहार कर कालीन के नीचे कर देती हूँ
अपने अकेलेपन की गर्द.
एक मुस्कराहट का बंदोबस्त करके
खोल देती हूँ दरवाज़ा.
:: :: ::   

7 comments:

  1. 'अकेलेपन की गर्द' और 'मुस्कुराहट का बंदोबस्त'---जवाब नहीं इस अभिव्यक्ति का.

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  2. 'ख्वाइश भडकाती है मुझे और चमकने/ लगती हैं मेरी आंखें/ नैतिकताओं को ठूंस देती हूँ मैं/ नजदीकी दराज में.....सिर्फ़ एक चुम्बन के लिए', एक दम साफ़-सुथरी अभिव्यक्ति है. नैयिकता-बोध है,और सही भी है,पर अपनी जगह देह और मन दोनों की आकांक्षाएं भी तो हैं. एक बेहद ईमानदार अभिव्यक्ति!

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  3. क्या कविताएँ है... पढ़ने के बाद हम एक मधुर बेचैनी से घिर जाते है.

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  4. bahut khubsurat andaj hai aazadi ka,

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  5. दिल और दिमाग का बेहतर संघर्ष...आभार

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  6. हम में से हर कोई कभी कभार शैतान होना चाहता है..ईमानदार रचना .

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