दून्या मिखाइल की कविता, 'तुम्हारी ई मेल'
तुम्हारी ई मेल : दून्या मिखाइल
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जब तुम जवाब देते हो मेरी ई मेल का
सारे के सारे ग्रह चक्कर लगाने लगते हैं मेरे चारो तरफ
यहाँ तक कि प्लूटो भी शामिल हो जाता है इस परिक्रमा में.
इल्ली एलान कर देती है अपने तितली बन जाने का.
अंगूर पक जाते हैं मेरे लिए
और मेरे पड़ोसी के बगीचे तक फैला देते हैं अपनी बेलें.
फिर से ज़िंदा हो उठती है
मुहब्बत और जंग की देवी इश्तार
और गाने लगती है अपने गीत
उजाड़-वीरान शहरों के लिए,
अपने चेहरे से वह पोंछती है धूल
और नाचने लगती है किसी सधी नर्तकी की तरह,
वापस घर भेज देती है सारे सैनिकों को
और मरहम पट्टी करती है
इस नन्हीं चिड़िया की टूटी हुई टांगों की,
यह चिड़िया भी जख्मी हुई थी औरों के साथ
दज़ला और फ़रात नदियों के इस देश में.
वह गिनती है
अपने लिबास में हुए छेदों को
और सोने चली जाती है.
मगर मैं अब भी इंतज़ार कर रही हूँ तुम्हारी ई मेल का.
स्क्रीन पर अक्स है मेरी थकी हुई आँखों का
और हमआगोश हैं मेरी घड़ी की सुईयां
तुम्हारी खामोशी के बीचोबीच.
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"...और हमआगोश हैं मेरी घड़ी की सुइयाँ / तुम्हारी खामोशी के बीचोबीच !!!"
ReplyDeleteबहुत हसीन कविता... !
ReplyDeletePrem...
ReplyDeleteAur...
Prem ki bulandiyaan...