आज रॉबर्ट ब्लाय की एक अत्यंत चर्चित कविता जो उन्होंने मृत वियतनामी सैनिकों की लाशों की संख्या के बारे में उस दौरान रोजाना की जा रही घोषणाओं पर लिखी थी. कविता का आखिरी हिस्सा उसी दौर के एक प्रचलित विज्ञापन के स्लोगन से लिया गया था. इस कविता के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ उपलब्ध है.
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छोटी काठी की लाशों की गिनती : रॉबर्ट ब्लाय
(अनुवाद : मनोज पटेल)
चलो फिर से गिनते हैं लाशों को.
अगर हम थोड़ा और छोटी कर सकते लाशों को,
खोपड़ी की नाप के बराबर,
हम खोपड़ियों से सफ़ेद कर सकते थे एक पूरे मैदान को चांदनी रात में !
अगर हम थोड़ा और छोटी कर सकते लाशों को,
क्या पता हम बटोर लेते
साल भर की हत्याओं को अपने सामने एक मेज पर !
अगर हम थोड़ा और छोटी कर सकते लाशों को,
हम सजा लेते
एक लाश को एक अंगूठी में, हमेशा के लिए यादगार के तौर पर.
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Manoj Patel Translation, Manoj Patel Blog
ओह ...!!! ...कब तक हम गिनते रहेंगे लाशें ...? कब तक मनाते रहेंगे जश्न मौत का ?... कब तक लाल रंग को सिर्फ खून से पहचानेंगे ?...कब तक सुनेंगे हम चीख़ों की जानलेवा धुन ?...कब? आखिर कब सुनेंगे हम दिल की आवाज़ ???
ReplyDeleteबिल्कुल दहला देने वाली कविता...इसे संभाल कर रख लिया है...बार-बार पढ़ना होगा.
ReplyDelete...एक ला.... अंगूठी में पिरोने की तमन्ना .....ये सपना .....इश्वर करे कभी साक्षत कार न हो ...उस से पहले नव सर्जन हो जाये ...कम से कम अंगुठिया आपने नाम को तो खो ही देगी !!!!!!!इसानी परिकल्पना की जबरदस्त गिरी सोच को ..उकेरती पक्तियां !!!!Nirmal Paneri
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
Dil ko chhoo gayee..
ReplyDeleteसुन्दर , बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें.
बहुत दर्दनाक कविता ,बेहद त्रासद !
ReplyDeleteआभार इस संवेदना से जोडने के लिए !
ये लाईन दरअसल 'नौकर की कमीज़' में गरीबों के वास्ते कही गयी है, पर ये लाईन मुझे हर उस जगह फिट लगती है जहाँ 'संवेदनाओं' को नापने का पैमाना 'सांख्यिकी' हो:
ReplyDeleteगरीब एक स्तर के होते हुए भी एक जैसे इकट्ठे नहीं होते, जैसे पचास आदमी को काटकर पचास आदमी बना देना.
यदि पचास हैं तो उसका मतलब सिर्फ पचास, एक और- फ़िर गिनती करो इक्यावन !