ताहा मुहम्मद अली की कविता, "एक महाशक्ति से अब्द अल-हादी की जंग"...
एक महाशक्ति से अब्द अल-हादी की जंग : ताहा मुहम्मद अली
(अनुवाद : मनोज पटेल)
अपनी ज़िंदगी में उसने
न तो कुछ लिखा न पढ़ा.
अपनी ज़िंदगी में उसने
नहीं काटा एक भी पेड़,
न ही गर्दन उतारी
किसी बछड़े की.
अपनी ज़िंदगी में उसने
कभी बात भी नहीं की न्यूयार्क टाइम्स की
यदि वह सामने ही न पड़ा हो,
किसी से नहीं बोला
ऊंची आवाज़ में
सिवाय अपने तकियाकलाम के :
"आइए बराए मेहरबानी,
खुदा की कसम, आप इन्कार नहीं कर सकते."
~
फिर भी --
उसके मुक़दमे में कोई उम्मीद नहीं दिखती,
और उसकी हालत
नाजुक है.
उसके ईश्वर-प्रदत्त अधिकार
नमक के एक कण की तरह
डूब-उतरा रहे हैं समुद्र में.
जूरी के देवियों और सज्जनों :
अपने दुश्मनों के बारे में
मेरा मुवक्किल कुछ भी नहीं जानता.
और मैं आपको भरोसा दिला सकता हूँ कि,
यदि उसे भिड़ना होता
विमान वाहक पोत एंटरप्राइज के समूचे जत्थे से,
उसने परोसे होते उन्हें अंडे
हाफ-फ्राई किये हुए,
और पनीर
एकदम ताजी-ताजी.
जुलाई 1973
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Manoj Patel Translation, Manoj Patel's Blog
सुन्दर ....
ReplyDeleteBadhiya..
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