सौ प्रेम पत्र' से निज़ार कब्बानी की कुछ और कविताएँ...
निज़ार कब्बानी की कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल)
क्या हमारी इस समस्या का
कोई हल है तुम्हारे पास,
है इस जर्जर जहाज का कोई समाधान
जो न तो तैरने लायक है न डूबने लायक ?
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मुझे मानना पड़ेगा
तुम्हारे सारे फैसलों को
क्योंकि बहुत पी चुका हूँ मैं
समुन्दर का खारा पानी
बहुत झुलसा चुका है
सूरज मेरी चमड़ी को
और नाराज मछलियाँ
बहुत नोच चुकीं हैं मेरा मांस.
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ऊब चुका हूँ मैं सफ़र करते-करते
ऊब चुका हूँ मैं ऊब से
क्या कोई हल है तुम्हारे पास
इस खंजर का
जो धंसता तो है मगर मारता नहीं ?
है कोई हल तुम्हारे पास इस अफीम का
जो हम लेते तो हैं
मगर जो चढ़ती नहीं कमबख्त ?
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मैं सुस्ताना चाहता हूँ
किसी भी पत्थर, या
किसी भी कंधे पर,
थक चुका हूँ
बिना पाल वाली नावों से
बिना फुटपाथ वाली सड़कों से उकता चुका हूँ.
तुम्हीं कोई हल सुझाओ मेरी प्रिय
वादा करता हूँ उसे मानने का
ताकि सो सकूं मैं पूरी नींद.
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Manoj Patel Padhte Padhte
" है कोई हल तुम्हारे पास इस अफीम का
ReplyDeleteजो हम लेते तो हैं
मगर जो चढ़ती नहीं कमबख़्त "...!!!
सुन्दर कविता!
ReplyDeleteक्या कोई हल है तुम्हारे पास
ReplyDeleteइस खंजर का
जो धंसता तो है मगर मारता नहीं
क्या कोई हल है तुम्हारे पास
ReplyDeleteइस खंजर का
जो धंसता तो है मगर मारता नहीं
जब तक समस्या का हल न मिल जाए, नींद आए भी तो कैसे? खंजर है कि मारता नहीं, सिर्फ़ धंसता है; अफीम है कि चढती ही नहीं, ले ली जाती है तो भी. 'प्रिया' ही हल सुझा सकती है जिसे मान लिए जाने के बाद नींद आ ही जाएगी. क्या नींद आ पाएगी यानी क्या हल सुझा दिया जाएगा? अच्छी कविता, और अच्छा अनुवाद.
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