मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ...
मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल)
ऊब गई हूँ मैं
तुम्हारे हाशिए पर रहते हुए,
रहते हुए तुम्हारी कापियों
और तुम्हारे छोटे से हिस्से में,
तुम्हारे दरवाजे के बाहर खड़ी-खड़ी
आजिज आ चुकी हूँ मैं.
कहाँ है
कहाँ है तुम्हारे स्वर्ग का खुला-खुला विस्तार?
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तुम कितने अलग हो उन सबसे...
तुम्हारी खासियत है
तुम्हारे होठों पर धरा मेरा चुम्बन.
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तुम्हारी कोई गलती नहीं थी.
कोई गलती नहीं थी मेरी भी.
यह तो हवा थी कमबख्त
जिसने गिरा दिया
मेरी कामनाओं का
पका हुआ फल.
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Manoj Patel Translations, Manoj patel"s Blog
बेहद खुबसूरत...
ReplyDeleteतीनों कविताओं में गजब का कॉन्ट्रास्ट है....... तीनों ही शानदार...
ReplyDeleteबेहतरीन ,बेबाक,बहुत अच्छी कवितायेँ ! आभार मनोज जी ,अनुवाद एवं प्रस्तुति क लिए !
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