Saturday, October 15, 2011

मरम अल-मसरी : तुम्हारे हाशिए पर रहते हुए

मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ...











मरम अल-मसरी की तीन कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

ऊब गई हूँ मैं 
तुम्हारे हाशिए पर रहते हुए,
रहते हुए तुम्हारी कापियों 
और तुम्हारे छोटे से हिस्से में,
तुम्हारे दरवाजे के बाहर खड़ी-खड़ी 
आजिज आ चुकी हूँ मैं.
कहाँ है 
कहाँ है तुम्हारे स्वर्ग का खुला-खुला विस्तार?
:: :: :: 

तुम कितने अलग हो उन सबसे...
तुम्हारी खासियत है 
तुम्हारे होठों पर धरा 
मेरा चुम्बन.
:: :: ::

तुम्हारी कोई गलती नहीं थी.
कोई गलती नहीं थी मेरी भी.
यह तो हवा थी कमबख्त 
जिसने गिरा दिया 
मेरी कामनाओं का 
पका हुआ फल. 
:: :: ::
Manoj Patel Translations, Manoj patel"s Blog 

3 comments:

  1. बेहद खुबसूरत...

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  2. तीनों कविताओं में गजब का कॉन्ट्रास्ट है....... तीनों ही शानदार...

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  3. बेहतरीन ,बेबाक,बहुत अच्छी कवितायेँ ! आभार मनोज जी ,अनुवाद एवं प्रस्तुति क लिए !

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