Friday, September 9, 2011

दून्या मिखाइल : समुद्र से बिछड़ी एक लहर की डायरी


दून्या मिखाइल की 'समुद्र से बिछड़ी एक लहर की डायरी' ईराक के युद्धों और उसके असर पर एक लम्बी कविता है. दो हिस्सों में बंटी इस डायरी का पहला हिस्सा बग़दाद में 1995 में प्रकाशित हुआ था. इस डायरी के प्रकाशन के बाद पैदा हुई परिस्थितियों की वजह से ही उन्हें देश छोड़ने का फैसला करना पडा. 1996 में अमेरिका चले आने के बाद दून्या मिखाइल ने इसका दूसरा हिस्सा लिखा. बकौल दून्या पहले हिस्से में मैं वह सबकुछ नहीं कह पाई जो मुझे याद था, और दूसरे हिस्से में मुझे वह सबकुछ याद ही नहीं रहा जो मैं कहना चाहती थी. यह डायरी दून्या के अतीत और वर्तमान का एक काव्यात्मक संस्मरण है जिसमें उनके बचपन, उनके पिता की मौत, उनके इराकी कवि मित्रों, बग़दाद आब्जर्वर के लिए एक पत्रकार के रूप में उनके द्वारा किए गए कार्यों आदि का ब्योरा है. पढ़िए बहुत पहले किए गए इस अनुवाद के कुछ अंशों को आज इस ब्लॉग की पहली सालगिरह के मौके पर...













समुद्र से बिछड़ी एक लहर की डायरी 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अपने बचपन में, मुझे जलन होती थी अपने आप से एक बच्ची होने के लिए.
मुझे लगता था सबलोग वैसे ही पैदा हुए हैं, जैसे कि वे इस वक़्त हैं :
एक बच्चे, बुजुर्ग या माँ की तरह ही पैदा हुए हैं वे. 

मैं दुखी हो जाती थी अपनी माँ के लिए.
अपनी उम्र की वजह से वे खेल नहीं सकती थीं मेरे साथ 
रेत में 
या बिस्तर पर कूदना या उसके नीचे छुपना 
या समुन्दर में कंकड़ फेंकना 
तरंगों को तब तक फैलते हुए देखने के लिए जब तक कि वे गुम न हो जाएं. 

इसलिए मैं रोज प्रार्थना करती थी,
खुदा का शुक्र अदा करते हुए कि उसने मुझे एक बच्ची बनाया.

जब बड़ी हो गयी मैं, बंद न कर सकी अपने आप से ईर्ष्या करना 
अब भी बचपन से भरपूर होने के लिए. 

ख़्वाबों को गिना करती थी मैं उँगलियों पर 
और रोती थी क्योंकि कम पड़ जाती थीं उंगलियाँ मेरी !
तब भी रोया करती थी जब खुद को देखती थी तस्वीरों में 
और चीखती थी :
"मुझे बाहर निकालो तस्वीर में से !"

हजारों हजार तस्वीरें 
और गानों के कैसेट 
शोर-गुल करते हैं स्मृतियों के अंतहीन विस्तार में,
और हर तस्वीर फ्रेम है एक क्षणभंगुर लमहे की.

और क्योंकि फ्रेम पसंद नहीं हैं मुझे, मैं तोड़ डालती हूँ उन्हें 
और रिहा कर देती हूँ हजारों लोगों को 
और चीजों 
और सितारों 
और परिंदों 
और पलों को 
एक टूटे - धूसर क्षितिज पर बिखेर देने के लिए. 
:: :: ::

अपने बचपन में, मैनें तस्वीर बनायी धूल की फौजों की 
उनके पीछे फैले हुए एक फीते के साथ.
मैनें तस्वीर बनायी बेहिसाब आईनों की 
जिनमें अक्स था मेरे ख़्वाबों का.  

मैनें समुन्दर की तस्वीर बनायी 
और उसमें नष्ट होते अपने प्राणियों की.

मैनें चन्द्रमा की तस्वीर बनायी 
और इसके चारो तरफ अपने अकेलेपन के घेरों की.

मैनें तुम्हारे चले जाने की तस्वीर बनायी 
और उन आसुओं की जो मैनें तुम्हारे लिए बहाए.

मैनें परों की तस्वीर बनायी 
ताकि तुम्हारे साथ चल सकूं मैं भी.

और इसी तरह से.
:: :: :: 

बचपन में मेरे पिता एक शतरंज लाए थे मेरे लिए 
और कहा था 
"ऎसी ही होती है ज़िंदगी - सफ़ेद और काली." 

जब दाखिल कराए गए वे अस्पताल में,
सफ़ेद ही था सबकुछ : दीवारें, चादरें 
नर्सों की वर्दियाँ,
दिल मेरे पिता का,
और डाक्टरों का बर्फीला सर्द व्यवहार. 

और काला था सबकुछ जब अस्पताल छोड़ा मैनें :
वक़्त, स्त्रियों के कपड़े,
तस्वीरें, रात, 
और दिन. 

जब बहुत लम्बी हो गई मेरे पिता की गैरहाजिरी 
मैं रोई जार-जार.  

उनकी गैरहाजिरी के लिए नहीं :
रोई मैं अपनी मौजूदगी के लिए !
:: :: :: 

मेरे महबूब की गैरहाजिरी भी लम्बी होती गयी...

और सूरज की 
और चन्द्रमा की 

एक शाम...
नहीं...एक सुबह...
नहीं... मुझे पता नहीं... एक इंतज़ार... 
मौत हमारी आँखों के सामने से गुजरी, जैसा कि रोज गुजरा करती थी वह. 
मैं अकेली नहीं थी इंतज़ार करते समय ;
नदी भी थी वहां,
और विस्फोटों से उठता धुंआ  
और एक आशिक की सिगरेट से उठता धुंआ
जो गौर कर रहा था अपने अकेलेपन पर 
बिसात के कोने में खड़े प्यादे की तरह. 

वक़्त के कोलाहल के अलावा
जो धमक रहा था मेरे कानों में किसी शौकिया साजिन्दे के साज की तरह,
डर के खर्राटे, और 
और पेड़ों का क्रंदन भी था मेरे कानों में. 

इसके बावजूद, मैं सो गयी 
तुम्हें देखने के लिए अपने ख़्वाबों में.

भरसक कोशिश की मैनें, बेमतलब 
ख्वाब में ही बने रहने की.

और जब मैं जागी, अपने दिल को छूकर धड़कन को महसूस किया 
तुम्हारे अस्तित्व के प्रति आश्वस्त होने के लिए ! 

लड़खड़ाता रहा तुम्हारा प्यार नदी के किनारों पर 
मेरे दिल की तरह 
और तब मैनें जाना 
कि सिर्फ पत्थर ही हैं जिनके ख्वाब नहीं चिटकते 
कि सिर्फ पत्थर के ही दिल टिकते हैं. 

दूसरे लोग विनती करते हैं मुझसे 
कि किसी लाश से बुहार लूं मैं 
तुम्हारे समय की राख.

और मैं गुजारिश करती हूँ तुमसे कि आवाज़ दो मुझे.
मेरे जवाब देने या हाजिर होने के लिए नहीं 
बल्कि इसलिए कि मुझे अच्छा लगता है उनकी आवाज़ सुनना, जिन्हें मैं प्यार करती हूँ. 

जब एक दिन कहा था मैनें : "आई लव यूं,"
अपनी कब्र से निकल पड़े थे मेरे ख्वाब 
और नाचा किए थे लफ़्ज़ों के इर्द-गिर्द.

और जब एक दिन देखा था मैनें तुम्हें 
और तुम चले गए थे दूर 
जब तक तुम मुझसे, मेरी आत्मा से भी अधिक दूरी पर रहे,
मैनें देखा अपने ख़्वाबों को 
उनकी कब्र में लौटते हुए. 
:: :: :: 

तुम्हारा साया पंजों के बल उकड़ूं बैठा रहता है 
हमारी घड़ी की सूइयों पर और घूमा करता है.
घूमा करता है... मेरे सर की तरह...
नहीं... मेरे सर की तरह नहीं...
ठीक है... मेरे सर की ही तरह...

अरे... कहाँ रहती है दुनिया ?
बेशक स्मृति में नहीं.

सड़कें रेंगती हैं, मेरे हाथों की नसों में एक-दूसरे को काटते हुए.
आपस में मिल जाती हैं शहर की बनावटें मेरे दिमाग में.
नाम गड़बड़ा जाते हैं 
चेहरों के साथ 
मुखौटों के साथ 
तारीखों, और 
मौसमों के साथ.

मैं कैसे तरतीब दूं इन चीजों को 
अपनी स्मृति में ?

किसी ने कहा,
"क्यों नहीं तुम लोगों का इस्तकबाल करती 
जब देखो उन्हें अपने सामने ?"
अगले दिन, मैं बहुत देर तक हिलाती रही अपना हाथ 
लेकिन तब किसी को नहीं देखा अपने सामने ! 
:: :: :: 

पृथ्वी पर वापस जाने का रास्ता कौन सा है ?

मेरी याददाश्त पर चोंच मारते हैं हवा में परिंदे.
यह है वो जगह जहां से सुराख होते हैं.
मैं ज़मीन पर रखना चाहती हूँ अपने पैर,
और जानना चाहती हूँ गुरुत्वाकर्षण का नियम. 

यहाँ... आसमान में...
न तो गुरुत्वाकर्षण, न ही याददाश्त सहारा देती है मुझे. 

यह एक नामौजूदगी है 
भार की 
विचारों की 
हर चीज की.

क्या मृतकों को खुदकशी करने और 
इस तरह पृथ्वी पर वापस आने का हक़ है ? 

ऐसा कैसे हो सकता है, जबकि मैं महज एक आत्मा ही हूँ 
अनजानी चीजों के ऊपर, और   
और बेवजूद जगहों पर उड़ती हुई ?

इतनी सब नामौजूदगी कैसे भर गयी मेरे भीतर ?

और कैसे मेरी आत्मा ने नष्ट कर लिया खुद को 
ऎसी फिजूलखर्ची में ?

थोड़ी सी पृथ्वी चाहती हूँ मैं अपने पैरों के नीचे. 

हम दोनों को  (पृथ्वी और मुझे)
भरोसा है कि एक ने दफना रखा है दूसरे को अपने भीतर.
मैं सोचती हूँ कि कौन दफनाया गया होगा पहले ?

और किसने बैठने दिया सूरज को 
मेरे दिल की दहलीज पर 
दिन-रात जलाते रहने के लिए इसे ? 

हर रोज़ मैं संवारती हूँ अपनी आत्मा को --
फुहार मारती हूँ इसपर पानी की 
ताकि किसी दिन शायद, एहसास कर सके यह सुकून का.

कभी-कभी मैं कल्पना करती हूँ कि युद्ध ख़त्म हो गया है 
और जीवन धीरे से दाखिल हो जाता है लाशों के माथे में 
एक पल के लिए.
एक पल काफी होता है.
एक लमहा 
गोली के आकार का.

क्या सचमुच युद्ध समाप्त हो गया है ?

अरे... क्या इतना सब चाहने के लिए काफी जगह है ज़िंदगी में ? 

क्या युद्ध समाप्त हो गया है ? 
तो अब हम क्या करेंगे 
दुश्मनों के बिना ?
:: :: :: 

मैं भटकती हूँ उजाड़ खंडहरों में 
जैसे अपने अर्थ की तलाश में 
भटक रहा हो शब्दकोष में कोई शब्द 
बगैर क्रियाओं वाली एक भाषा में.
मैं एक क्रिया हूँ भूतकाल की,
बेमतलब ही कोशिश कर रही वर्तमान काल में बदलने की. 

उन्होंने कहा,
"चाहे कितनी भी छोटी हो,
हर खिड़की से 
देखा जा सकता है आसमान."

जबसे सुनी है यह बात मैनें, मैं खिड़कियाँ उकेरती रही हूँ 
जो कुछ नहीं की तरफ खुलती हैं.

मैनें गौरैयों को देखा लिखते हुए अपनी डायरियों में. 
उन्होंने बयान किया था कि कैसे कायम रहीं हैं वे मेरे दिल पर, 
उन्होंने बताया कि प्रेम का एक भी दाना 
काफी है ताजिंदगी गुजारा करने के लिए. 

मैनें खोल दी अपनी ज़िंदगी की खिड़की.
और उड़ गयीं सारी गौरैयाँ.
वे युद्धक्षेत्र की तरफ गयीं 
मारे गए लोगों के हेलमेट में घोंसले बनाने के लिए.
हेलमेट जो भरे थे स्मृतियों 
और चांदनी से. 

युद्ध में, डर के मारे, स्मृतियाँ सिकुड़ जाती हैं वापस. 

मैं अपनी हथेली में लिए रहती हूँ अपनी मातृभूमि. 
फैलाती हूँ अपना हाथ.
वहां कुछ नहीं है सिवाय फूलती साँसों के, 
ख्वाहिश की देंह में एक गोली,
कुचला हुआ एक ख्वाब. 
जब मेरा वक़्त पीछा करता है मेरा,
मैं छिप जाती हूँ.
लेकिन जब कभी यह भाग निकलता है 
इसका पीछा करती हूँ 
इसकी निर्जनता से बटोरने के लिए 
यह बिखरी हुई चिड़िया 
जो साझा करती है मेरी कंपकंपी. 
एक ही ख्वाहिश काफी है 
दिन भर दरवाज़ा खोले रखने 
और सूरज को सूरज नाम देने के लिए.
एक ही ख्वाहिश काफी है 
किसी भाप की तरह ब्रम्हांड को 
दिल से उठाने के लिए. 
शुरूआत में, ख्वाहिशें लिए जाती थीं मुझे 
और घुमाती थीं चारो ओर.
अब मैं उन्हें लिए रहती हूँ और घूमती हूँ उनके साथ.
हम घूमते हैं... हम घूमते हैं... 
और इसी तरह घूमती हैं रातें 
और ख्वाहिश ही रहती हैं मेरी ख्वाहिशें. 
:: :: :: 

सपने में बच्चे ने अपनी मुट्ठी भींच ली 
जब उसने बार-बार दुहराया जाता यह हुक्म सुना :

अपने दुश्मनों को गोली मार दो.

अपने दुश्मनों को गोली मार दो.

बच्चा उठ गया और उसने अपनी माँ से पूछा :

-- दुश्मन क्या होते हैं, माँ ?
-- वे प्रेत जो लकीर के पीछे खड़े होते हैं 
चंद्रमा की तरफ ताने हुए अपनी बन्दूक.

-- लेकिन चन्द्रमा तो हम सभी का है, उनका भी और हमारा भी,
तो क्या वे हमारे वाले हिस्से पर गोली चला रहे हैं ?
-- हाँ कभी-कभी वे सटीक निशाना लगाते हैं 
जिससे आधा या उससे थोड़ा ज्यादा चन्द्रमा गिर पड़ता है,
एक अर्द्धचन्द्र बनाता हुआ. और कभी-कभी तो चन्द्रमा 
पूरा गायब ही हो जाता है. 

-- इसका मतलब कभी-कभी उनकी गोली उनके वाले आधे हिस्से 
पर ही लग जाती है, न माँ.
-- हाँ, यह सच है. और इसे बलिदान कहा जाता है.
हमें हमारी अपनी चीजों से वंचित करने के लिए 
वे अपनी चीजों का बलिदान कर देते हैं.

-- और इससे उन्हें क्या मिलता है, माँ ?
-- वे हमारी जीत को निष्फल कर देते हैं.

-- जीत क्या है ?
-- वे हमारे नसीब में हार लिखती हैं.

-- हार क्या है ?
-- जीत को हारना या हार को जीतना. 

-- हम यहाँ से कब चलेंगे ?
-- किधर चलेंगे ?
-- वहां, जहां चन्द्रमा नहीं गिरा करता. 
:: :: :: 

कल, चाँद गिर गया तंदूर में
और सिंक गया रोटी के साथ. 
और इसलिए मैनें एक गलती की अपनी प्रार्थना में :
हमारे परमपिता, जो विराजते हैं स्वर्ग में,
हमें चाँद बख्शो हमारा वही रोज़ाना वाला... 

इस गलती को ठीक करने की खातिर मैनें कहा :
मुझे माफ़ करो चाँद को खा जाने के लिए.
जानती हूँ कि तुम मौजूद हो हर जगह,
मगर मुझे इंतज़ार है तुम्हारे गीतों का 
इस समय जबकि मैं इंतज़ार कर रही हूँ गुमशुदा का.

हर रोज हम अपनी इच्छाएं लिखते हैं कागज़ की पर्चियों पर 
और एक थैले में रख देते हैं उन्हें.
क्या यह सच है कि शैतान आता है रोजाना 
थैले को नर्क तक ले जाने के लिए ?
हे परमपिता, रोको उसे ! रोको उसे बीच सड़क,
मगर हमारी इच्छाओं को हमारे ऊपर मत फेंको.
वे बहुत भारी हैं,
और अगर न भी हों,
तो भी यह काफी है कि वे हमें एहसास कराती हैं कि हमने झूठ बोला था,
हमने झूठ बोला था अपने आप से.
हे परमपिता, तुम्हीं ने तो हमें हुक्म दिया था झूठ न बोलने का. 

हमारे फ़ौजी बंजर धरती पर उगे हैं.
उनमें से कुछ स्वर्ग की तरफ उड़ गए. उन्होंने बादलों पर प्रहार किए 
-- यह सोचते हुए कि बादल दुश्मन हैं --
अपने परों से. 
और माताओं की आँखों से उमड़ पड़ी बारिश. 

तुमने उनसे क्या कहा था स्वर्ग का फाटक खोलते समय ?

हमारा वतन सोता है मौन खड़े हुए ;
इसका वक़्त गुजरता है मौन खड़े हुए ;
इसके दिल की धड़कनें भी मौन खड़ी हुईं --
तो आईए एक मिनट के लिए मौन खड़ें हों हम भी शोक में.

ऐ मेरी मातृभूमि, तुम्हारे पास एक विचार है सूई की तरह का 
(नुकीला, महीन, और चुभने वाला).
तुम्हारी आँखों के रास्ते  
दाखिल होता है इतिहास 
और सुराखदार हेलमेट बाहर आते हैं.

बार-बार भूकंप के झटके आते हैं तुम्हारी जमीन पर 
जैसे दिन-रात तुम्हारे पेड़ों को हिलाते हों अदृश्य हाथ. 

उन्होंने तुम्हारी नाकेबंदी करके तुम्हारे पानी से निकाल बाहर किया आक्सीजन को,
पीछे हाइड्रोजन के अणुओं को एक-दूसरे से झगड़ा करते रहने के लिए छोड़कर. 

क्या मुल्कों को किसी बच्ची के चेहरे से परेशान नहीं होना चाहिए 
जो अपनी आँखें और मुंह बंद कर लेती है 
संयुक राष्ट्र के प्रस्तावों के समक्ष समर्पण करते हुए ?
मगर वे बस थोड़ा सा खोलते हैं अपना मुंह,
बहुत थोड़ा सा,
पता नहीं जम्हाई लेते हुए या मुस्कराते हुए.

हमने अपने समय में जगह बनाई हर सितारे के लिए,
और हमारे मृतक बिना कब्रों के ही रहे.  

हमने हर फूल के नाम लिखे दीवारों पर 
और हम, भेंड़, बनाते रहे घास 
-- अपना पसंदीदा भोजन --
और खड़े रहे हवा में फैलाए हुए अपने हाथ 
जिससे पेड़ों की तरह दिखते रहे हम.
यह सब बगीचे में बदलने के लिए चहारदीवारियों को.
एक भोली-भाली मधुमक्खी इस चाल में आ चूर-चूर हो गई दीवार से टकराकर, 
जिसकी तरफ उड़ी आ रही थी वह उसे एक फूल समझ. 
क्या मधुमक्खियों को चहारदीवारियों के ऊपर से उड़ने के काबिल नहीं होना चाहिए ? 

हमारे सामने हैं लम्बी कतारें.
खड़े हुए, हम अपनी उँगलियों पर गिनते हैं आटे की शीशियाँ 
और आपस में बतियाते बर्तनों में बाँटते हैं सूरज को. 


हम सोते हैं कतार में खड़े-खड़े 
और विशेषज्ञ उपाय सोचते हैं सीधी खड़ी कब्रों के लिए 
क्योंकि खड़े-खड़े ही मर जाना है हमें. 

हम ऐसे दृश्य हैं जिसमें कुछ भी नहीं है मौजूद :
अस्तित्व में हैं हम,
यदि सिर्फ राजनीति के अस्तित्व के लिए ही न कहा जाए हमारी मौजूदगी को. 

हमारे फूल नापते हैं दीवारों को ख़्वाबों में. 

खिड़कियाँ ख्वाब देखती हैं सारसों का 
गुमशुदा लोगों को चिमनी से नीचे गिराती हुईं. 

और यतीम बच्चे दाखिल होते हैं भूमिगत सुरंगों में 
अपने आप को चुम्बन समझते हुए. 

हर रोज हम गुणगान करते हैं ईश्वर का 
और बर्दाश्त करते हैं शैतान की सींक की चुभन को,
फिर दुआ करते हैं मातृभूमि के लिए, 
अपने खोए हुए स्वर्ग के लिए.
हर रोज, वे मर्तबानों को भर देते हैं शब्दों या जंग से ;
हर रोज हम चूर-चूर कर देते हैं मर्तबानों को.

जंग के सौदागर हवा बेचते हैं 
और महिमा गाते हैं टिन के बने हुए तमगों की ;
और हर रोज लड़कियां साफ़ करती हैं गेहूं 
और कटोरे में चालती हैं बादलों को 
ताकि उनके सर से भी ऊपर बढ़ आए कपास 
जैसे किसी सफ़ेद पोशाक में 
उग आते हैं बड़े बदलाव, और लड़कियों 
को नहीं पता होता कि यह कफ़न है 
या शादी का जोड़ा ! 
:: :: :: 

5 comments:

  1. अच्छी कविता पढ़ कर सर भी चकरा जाता है, यह आज जाना.कविता ने जैसे अपने मोह-पाश में जकड़ लिया है.

    ReplyDelete
  2. कविता शुरुआत से ही जकड़ लेती है सीट पर मानों एक फिल्म शुरू हुई
    और
    हिलने नहीं देती अंत तक
    शब्द चरम पे जाकर नाद करते हैं इस तरह कि भय लगने लगता है
    –आभार
    व बधाई ब्लाग के प्रथम वर्षगाँठ की

    ReplyDelete
  3. प्रिय मनोज भाई,
    सबसे पहले आपको ढेरो बधाई कि आपके अथक प्रयास से "पढ़ते-पढ़ते" ने अपना एक साल का सफल सफर तय किया. आपने हिंदी ब्लाग की दुनिया में "पढ़ते-पढ़ते" को एक ऊँचाई दिया है..मैं ही नहीं कई रिडर इस ब्लाग के माध्यम से विश्व के कई कवियों और उनकी कविताओं से पहली बार परिचित हुए. आशा है आपका यह प्रयास और पढ़ते-पढ़ते की सफर अबाध गति से चलता रहेगा.मेरी शुभकामना आप के साथ है.

    दून्या मिखाईल की यह कविता भले ही ईराक युद्ध और उसके प्रभाव को लेकर उपजी हो लेकिन कविता को पढ़ते हुए मैं हर पल इसी अहसास में मसरूफ होता जाता था कि कविता अपने प्रभाव में हमारे वर्तमान समय और सभ्यता को रेसा दर रेसा खंगालती जा रही है.मोटेतौर पर हम जिस वसुद्धैव कुटुंब की बात करते है और दुनिया को इसमें पिरोना चाहते है जिसकी कामयाबी वैश्विक बाजार की छद्मता में बदल कर अपना दम तोड़ रही है.ऐसे में यह कविता जो अर्थ खोल रही है उससे पता चल जाता है कि सच्चे अर्थों में वैश्विक होना क्या है और हम किस के पीछे कैसे भाग रहे है. हलाकि कविता में मैंने अपने द्वारा लक्षित बस एक एंगल मात्र की बात की है जाहिर सी बात है आपको या किसी को भी असहमति हो सकती है और होना भी चाहिए.
    बहरहाल अभी मेरे ज्यादा ध्यान पढ़ते-पढ़ते के सलाना सफर पर नाच रहा है.आपको पुन: बधाई और शुभकामना.
    आपका
    शेषनाथ

    ReplyDelete
  4. adbhut kavita,bahut hi sshakt anivad,jeevan ki kavita hai, jeevant hai.doonya ka dard faail kar, duniya ke har samvedansheel dil tak pahuch gaya.badhai manoj ji ko, aur aabhar un dosto ka jinhone padhte padhte se mera parichai karaya

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...