टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक कविता...
सुबह के पंछी : टॉमस ट्रांसट्रोमर
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मैं जगा देता हूँ कार को
जिसकी विंडशील्ड पर
एक परत जमा हो गई है पराग की.
चढ़ा लेता हूँ अपना धूप का चश्मा
और गाढ़ा हो जाता है पंछियों का गीत.
ठीक उसी समय रेलवे स्टेशन पर
एक दूसरा शख्स खरीदता है अखबार
एक बड़ी सी माल गाड़ी के पास
जो पूरी लाल हो गई है जंग से
और झिलमिलाती हुई खड़ी है धूप में.
कहीं कोई खाली जगह नहीं है यहाँ.
सीधा बसंत की गर्माहट से होता हुआ एक सर्द गलियारा
कोई दौड़ते हुए आता है वहां
और बताता है कि कैसे ऊपर मुख्यालय में
उन्होंने अपमान किया है उसका.
भूदृश्य के पिछले दरवाजे से
उड़ते हुए आती है
श्वेत-श्याम चिड़िया मुटरी.
और इधर-उधर फुदकती रहती है श्यामा चिड़िया
हर चीज हो जाती है जैसे कोयले से बना चित्र
सिवाय तार पर सूखते सफ़ेद कपड़ों के
संगीतकार पलेसत्रिना के समूहगान की तरह.
कहीं कोई खाली जगह नहीं है यहाँ.
अद्भुत है महसूस करना अपनी कविता को फैलते हुए
जबकि सिकुड़ रहा होता हूँ खुद मैं.
वह फैलती जाती है और जगह ले लेती है मेरी
कर देती है किनारे,
घोंसले के बाहर फेंक देती है मुझे
और तैयार हो जाती है कविता.
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Manoj Patel Translations, Manoj Patel's Blog तोमास त्रांसत्रोमर
आखिरी ६ पंक्तियां अद्भुत हैं. कविता का फैलना और कवि का सिकुड़ना कैसा अच्छा रूपक बांधा है. हमारे यहां कविता सिकुड़ने लगती है तो कवि फैलने लगता है. आभार मनोज. तुम्हारे शानदार अनुवाद पढ़ना तो अब रोज़ की आदत में शुमार हो गया है.
ReplyDeleteachchhi kavita...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकल 02/11/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।
धन्यवाद!
गूढ़ अर्थ लिए छठ की बधाई
ReplyDeleteवाह ! कहीं कोई खाली जगह नहीं है हर जगह कविता ने जो हथिया ली है...
ReplyDeleteअद्भुत है अपनी कविता को मह्सूस करना फैलते हुए
ReplyDeleteजबकि सिकुड रहा होता हूँ खुद मैं........ सुन्दर
अद्भुत!
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