आकुपाई वाल स्ट्रीट आन्दोलन पर स्लोवेनियाई दार्शनिक-विद्वान् स्लावोज ज़िज़ेक का एक महत्वपूर्ण भाषण...
अपने आप से प्यार मत कर बैठिए : स्लावोज ज़िजेक
(अनुवाद : मनोज पटेल)
वे बता रहे हैं कि हम सभी हारे हुए लोग हैं, मगर वास्तव में हार का स्वाद चखने वाले वाल स्ट्रीट के लोग हैं. हमारे अरबों-खरबों डालर लगाकर उन्हें अपने आर्थिक संकट से उबारा गया है. हमें समाजवादी कहा जाता है मगर यहाँ हमेशा समाजवाद अमीरों के लिए रहा है. उनका कहना है कि हम निजी संपत्ति का सम्मान नहीं करते लेकिन 2008 के वित्तीय संकट के समय कठिन परिश्रम से कमाई गई जितनी निजी संपत्ति की बर्बादी हुई थी उतना यदि यहाँ मौजूद हम सभी लोग दिन-रात लगातार कई हफ़्तों तक बर्बाद करते रहें तो भी नहीं कर पाएंगे. वे आपको बताते हैं कि हम सपनों में खोए रहने वाले लोग हैं. असलियत में सपनों में तो वे लोग खोए रहते हैं जिन्हें ये लगता है कि चीजें हमेशा उसी तरह से रह सकती हैं जैसी कि वे इस समय हैं. हम सपनों में खोए रहने वाले नहीं हैं, हम एक ऐसे सपने से जाग रहे हैं जो दुस्वप्न में बदल रहा है.
हम किसी चीज को नष्ट नहीं कर रहे हैं. हम केवल इस बात के साक्षी बन रहे हैं कि कैसे व्यवस्था खुद को नष्ट कर रही है. हम सभी लोग कार्टूनों के उस क्लैसिक दृश्य से परिचित हैं. कगार तक पहुँचने के बाद भी बिल्ली चलती जा रही है, इस बात से बेपरवाह कि पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है. जैसे ही वह नीचे देखकर इस बात पर गौर करती है, वह नीचे चली जाती है. हम यहाँ यही कर रहे हैं. हम वाल स्ट्रीट के लोगों को यही बता रहे हैं, "ए भाई ज़रा देख के चलो!"
2011 अप्रैल के मध्य में चीनी सरकार ने टी वी, फिल्मों और उपन्यासों में ऐसे कथानकों पर रोक लगा दी जिसमें किसी वैकल्पिक यथार्थ या समय यात्रा का समावेश किया गया हो. चीन के लिए यह अच्छा लक्षण है. वे लोग अब भी विकल्पों के सपने देखते हैं इसलिए इस सपने पर रोक लगाना जरूरी है. यहाँ हमें ऎसी किसी रोक की जरूरत ही नहीं है क्योंकि शासन व्यवस्था ने सपने देखने की हमारी क्षमता का भी दमन कर दिया है. उन फिल्मों पर एक नजर डालिए जिन्हें हम हर समय देखा करते हैं. दुनिया के खात्मे की कल्पना करना कितना आसान है. एक क्षुद्रग्रह ने सभी सजीव वस्तुओं को नष्ट कर दिया है वगैरह-वगैरह. मगर आप पूंजीवाद के खात्मे की कल्पना नहीं कर सकते.
तो फिर हम लोग यहाँ क्या कर रहे हैं? मैं आपको कम्युनिस्ट दौर का एक पुराना बहुत बढ़िया लतीफा सुनाता हूँ. एक आदमी को पूर्वी जर्मनी से काम करने के लिए साइबेरिया भेजा गया. उसको पता था कि उसकी चिट्ठियाँ सेंसर द्वारा पढ़ी जाएंगी इसलिए उसने अपने दोस्तों से कहा, "एक कोड बना लेते हैं. अगर मेरी कोई चिठ्ठी नीली रोशनाई से लिखी गई है तो समझना कि जो कुछ भी मैनें लिखा है सब सही है. मगर यदि चिट्ठी लाल रोशनाई से लिखी हो तो समझना कि सब झूठ है." एक महीने के बाद उसके दोस्तों को पहली चिट्ठी मिली. पूरी चिट्ठी नीली रोशनाई से लिखी थी. उसमें लिखा था, "यहाँ हर चीज शानदार है. दुकानें खाने की अच्छी चीजों से भरी हुई हैं. सिनेमाहालों में पश्चिम के मुकाबले बेहतर फ़िल्में दिखाई जाती हैं. मकान बड़े और भव्य हैं. बस एक ही दिक्कत है कि आप लाल रोशनाई नहीं खरीद सकते." हमारी ऐसे ही कट रही है. हमारे पास हर तरह की आजादी है. मगर हमारे पास लाल रोशनाई नहीं है : वह भाषा जिसके माध्यम से हम अपनी गैर-आजादी को अभिव्यक्त कर सकें. आजादी को अभिव्यक्त करने का जो तरीका हमें सिखाया गया है -वार आन टेरर वगैरह- वह दरअसल आजादी को झुठलाता है. और यहाँ आप ठीक वही कर रहे हैं. आप हम सभी लोगों को लाल रोशनाई मुहैया करा रहे हैं.
एक ख़तरा भी है. अपने आप से प्यार मत कर बैठिए. हम सबकी यहाँ अच्छी गुजरी. मगर याद रखिए कार्निवाल आसानी से खड़े किए जा सकते हैं. असली बात तो आने वाले दिन में पता चलेगी जब हम सभी अपनी सामान्य जिंदगियों में लौट जाएंगे. क्या तब कुछ बदलाव होंगे? मैं नहीं चाहता कि आप लोग इन दिनों को इस तरह याद करें, "ओह तब हम नौजवान थे और वह सब बहुत शानदार था." याद रखिएगा कि हमारा मूल सन्देश है, "हम विकल्पों के बारे में सोच सकते हैं." अगर वर्जना को तोड़कर कहा जाए तो हम सबसे बेहतर संभव दुनिया में नहीं रह रहे हैं. मगर आगे बहुत लंबा रास्ता है. हमारे सामने वास्तविक मुश्किल सवाल मुंह बाए खड़े हैं. हम यह जानते हैं कि हमें क्या नहीं चाहिए. मगर हम चाहते क्या हैं? किस तरह का सामजिक संगठन पूंजीवाद की जगह ले सकता है? हमें किस तरह के नए नेताओं की आवश्यकता है?
याद रखिए कि भ्रष्टाचार या लालच समस्या नहीं है. यह व्यवस्था समस्या है. यह आपको जबरन भ्रष्ट बनाती है. केवल दुश्मनों से ही सतर्क मत रहिए बल्कि उन फर्जी दोस्तों से भी सतर्क रहिए जो इस प्रक्रिया को कमजोर करने में लगे हैं. जैसे आपको बिना कैफीन की काफी मिलती है, बिना अल्कोहल वाली बीयर और बिना चर्बी वाली आईसक्रीम, उसी तरह से वे इसे अहानिकर नैतिक प्रतिरोध बनाने की पूरी कोशिश करेंगे. कैफीन निकाला हुआ एक विरोध. हमारे यहाँ होने की वजह यह है कि बहुत हो चुकी ऎसी दुनिया जहां हम कोक के कैनों के पुनर्चक्रण, एकाध डालर के दान या स्टारबक्स की वह काफी पीकर ही खुश हो जाते हैं जिसकी आय का एक प्रतिशत हिस्सा तीसरी दुनिया के भूख से पीड़ित बच्चों के कल्याण के लिए जाता है. नौकरी और यातना की आउटसोर्सिंग के बाद, जब हम बहुत दिनों से यह देख रहे हैं कि मैरिज एजिंसियाँ हमारे प्रेम जीवन की आउटसोर्सिंग में भी लगी हैं, हम अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता को भी आउटसोर्स करना स्वीकार कर लेते हैं. हमें वह वापस चाहिए.
अगर साम्यवाद का तात्पर्य उस व्यवस्था से है जो कि 1990 में ढह गई थी, तो हम साम्यवादी नहीं हैं. याद रखिए कि वे साम्यवादी आज सबसे कुशल, सबसे निर्मम पूंजीवादी हैं. आज चीन में हमारे पास ऐसा पूंजीवाद है जो आपके अमेरिकी पूंजीवाद से ज्यादा सक्रिय है और उसे लोकतंत्र की जरूरत नहीं है. इसका तात्पर्य यह है कि जब आप पूंजीवाद की आलोचना करें तो खुद को इस भावना से ब्लैकमेल न होने दें कि आप लोकतंत्र विरोधी हैं. लोकतंत्र और पूंजीवाद का गंठबंधन टूट चुका है. परिवर्तन संभव है.
हमें आज कौन सी चीज संभव होती दिख रही है? मीडिया पर गौर करें. एक तरफ तकनीक और काम-वासना में तो सबकुछ संभव होता दिख रहा है. आप चंद्रमा की यात्रा कर सकते हैं, बायो जेनेटिक्स की सहायता से आप अमर हो सकते हैं, आप पशुओं या जिस किसी के भी साथ सम्भोग कर सकते हैं, मगर ज़रा समाज और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में एक नजर दौड़ाइए. वहां लगभग हर चीज असंभव समझी जाती है. आप अमीरों के लिए थोड़ा सा टैक्स बढ़ाना चाहते हैं. वे आपको बताते हैं कि यह असंभव है. हम प्रतियोगिता करने की क्षमता खो देंगे. आप स्वास्थ्य सेवा के लिए और पैसे चाहते हैं, तो वे आपको बताते हैं, "असंभव, इसका मतलब सर्वसत्तावादी राज्य है." दुनिया में कुछ तो गड़बड़ है जहां आपको अमर होने का भरोसा दिलाया जा रहा है मगर स्वास्थ्य सेवा पर थोड़ा और खर्च नहीं किया जा सकता. शायद यहाँ हमें सीधे-सीधे अपनी प्राथमिकताएं तय करने की जरूरत है. हमें ऊंचा जीवन-स्तर नहीं चाहिए. हमें एक बेहतर जीवन-स्तर चाहिए. जिस इकलौते मायने में हम साम्यवादी हैं वह यह कि हमें आम आदमी की परवाह है. प्रकृति के आम आदमी, बौद्धिक संपदा के निजीकरण के आम आदमी, बायोजेनेटिक्स के आम आदमी. इसके लिए और सिर्फ इसी के लिए हमें लड़ना चाहिए.
साम्यवाद पूरी तरह से असफल हो गया मगर आम आदमी की समस्याएँ मौजूद हैं. वे आपको बता रहे हैं कि यहाँ मौजूद हम लोग अमेरिकी नहीं हैं. मगर असलियत में अमेरिकी होने का दावा करने वाले रूढ़िवादी फंडामेंटलिस्ट लोगों को कुछ याद दिलाने की जरूरत है : ईसाइयत क्या है? यह पवित्र आत्मा है. पवित्र आत्मा क्या है? यह आस्तिकों का एक समतावादी समाज है जो आपस में एक-दूजे के प्रति प्यार की डोर से बंधा हुआ है और जिसके पास इसे अंजाम देने के लिए सिर्फ अपनी आजादी और अपनी जिम्मेदारी है. इस मायने में पवित्र आत्मा यहाँ मौजूद है. और वहां वाल स्ट्रीट के लोग काफिर हैं जो मूर्तियों की पूजा का कुफ्र कर रहे हैं. इसलिए हमें सिर्फ धैर्य की जरूरत है. सिर्फ एक चीज जिसका मुझे डर है, वह यह कि किसी दिन हम घर लौट जाएंगे और फिर साल में एक बार मिलेंगे और बीयर की चुस्की लेते हुए अतीत को याद करेंगे, "यहाँ हमने कितना शानदार वक़्त गुजारा था." अपने आप से वादा करिए कि ऐसा नहीं होगा. हम जानते हैं अक्सर ऐसा होता है कि लोगों की कुछ इच्छा तो होती है मगर वे सचमुच उसे चाहते नहीं. जो कुछ भी आपकी इच्छा है उसे सचमुच चाहने से डरिए मत. आप सभी को बहुत-बहुत धन्यवाद.
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Manoj Patel
shaandar article ..
ReplyDeleteबेहतरीन भाषण का समय पर आया अनुवाद. बहुत जरूरी था.
ReplyDeleteबेहद भावप्रवण,शिक्षाप्रद और वैश्विक परिस्थिति के सारतत्व को सहजता के साथ संप्रेषित करने वाला आलेख. भ्रष्टाचार से जुड़ा अनुच्छेद तो लाजवाब है.
ReplyDeletepadhne aur gunne laayk...
ReplyDeleteसार्थक आलेख!
ReplyDeleteअनुवाद और प्रस्तुति के लिए आभार!
zizek mujhe bahut priy hain.lekh ke shandar evam timely anuvad ke lie aabhar
ReplyDeleteएक बार फिर आपने बिल्कुल सही समय पर यह अनुवाद किया है. ज़िज़ेक जब भी बोलते हैं, या लिखते हैं तो लगता है कि वे सच के पक्ष में हैं..! बधाई..! क्या मैं इसे शेयर करूं..? और भी लोगों तक इसे पहुंचना चाहिए...!
ReplyDelete'' दुनिया में कुछ तो गड़बड़ है जहाँ आपको अमर होने का भरोसा दिलाया जा रहा है मगर स्वास्थ्य सेवा पर थोड़ा और खर्च नहीं किया जा सकता । शायद यहाँ हमें सीधे सीधे अपनी प्राथमिकताएं तय करने की जरूरत है । हमें ऊँचा जीवन स्तर नहीं चाहिए, हमें एक बेहतर जीवन-स्तर चाहिए । जिस इकलौते मायने में में हम साम्यवादी हैं वह यह कि हमें आम आदमी की परवाह है , प्रकृति के आम आदमी, बौद्धिक सम्पदा के निजीकरण के आम आदमी, बायोजेंटिक्स के आम आदमी, इसके लिए और सिर्फ इसी के लिए हमें लड़ना चाहिए । '' ..!!!
ReplyDeleteसुन्दर आलेख ..बेहतर अनुवाद.
ReplyDeleteइस भाषण को सुनना-पढ़ना बहुत ही प्रीतिकर है। इसमें बहुत से मसलों पर एक साथ विचार की प्रस्तावना की गई है। जैसे कि 1- आज के पूंजीवाद नें खुद को लोकतंत्र से अलग कर लिया है। 2- साम्यवाद का तात्पर्य अगर उस व्यवस्था से है जो 1990 में ढह गई तो हम साम्य वादी नहीं है। 3-चीनी साम्यवाद को लोकतंत्र की जरूरत नहीं है। 4- परिवर्तन सम्भव है। 5- जिस इकलौते मामले में हम साम्यवादी हैं, वह इस रूप में कि हमें आम आदमी की परवाह है।
ReplyDeleteदिखनें में भला भला सा लगने वाला यह भाषण अंततः हमारे करने के लिए कौन सा कार्यभार और सोचने के लिए कौन सा कार्यभार, कौन सा विचार या स्वप्न दे जाता है ? अंतिम पैराग्राफ में जिस तरह ‘‘ईसाइयत क्या है’’, ‘‘यह एक पवित्र आत्मा है’’ ‘‘पवित्र आत्मा क्या है?’’ ‘‘ आस्तिकों का समतावादी समाज है’’ आदि आदि आप्त वचनों के साथ अंत में यह नत्थी कर दिया गया है कि ‘‘ हमें सिर्फ धैर्य की जरूरत है।’’ धैय की जरूरत का संदेश देने के साथ समाप्त यह भाषण अगर हमारे देश के बुद्धिजीवियों को प्रिय लगता है तो इससे स्पष्ट हेै कि हमारी परिवर्तन की आकांक्षा किस कदर भाववादी होती जा रही है।
सार्थक ,समय के अनुकूल,और सटीक आलेख...बहुत अच्छा अनुवाद ..धन्यवाद मनोज जी
ReplyDeleteमनोज जी.. जीजेक के भाषण का बेहतरीन हिंदी अनुवाद उपलब्ध करने के लिए धन्यवाद..|
ReplyDeleteमनोज जी ..धन्यवाद जीजेक के बेहतरीन भाषण को हिंदी में उपलब्ध कराने के लिए ..|
ReplyDeleteमनोज जी बहुत धन्यवाद। क्या गजब भाषण है। साफगोई और सरल तरीके से बात रखी गई है। पूंजीवाद और लोकतंत्र का संबंध खत्म हो गया ।
ReplyDeleteJawab Nahi Manoj Bhai....mere favorite hain..you tube par kai interviews hain unke....bahut jaroori batein kahte hain...thanks for the hard work.
ReplyDeleteThanx manoj ji.
ReplyDeleteबेहद महत्वपूर्ण!
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