प्राइमो लेवी (1919 -- 1987) ने दो उपन्यास, कई कहानी संग्रह, निबंध और कविताएँ लिखी हैं. वे अपनी संस्मरणात्मक किताब 'इफ दिस इज ए मैन' के लिए जाने जाते हैं जिसमें आश्विट्ज यातना शिविर में बिताए गए दिनों का ब्योरा है.
सोमवार : प्राइमो लेवी
(अनुवाद : मनोज पटेल)
क्या कोई हो सकता है ट्रेन से भी ज्यादा दुखी
जो चली जाती है अपने निर्धारित समय पर
जिसके पास सिर्फ एक तरह की आवाज़ होती है,
और एक ही रास्ता ?
कोई भी नहीं होता उससे ज्यादा उदास.
सिवाय शायद इक्के में जुते घोड़े के
दो डंडों से घिरा हुआ
जो देख नहीं सकता अगल-बगल भी.
उसकी ज़िंदगी का मतलब ही है सिर्फ दौड़ते जाना.
और एक इंसान ? क्या एक इंसान नहीं होता दुखी ?
अगर लम्बे समय से वह रह रहा हो एकांत में,
अगर उसे लगता हो कि ख़त्म हो चला है वक़्त,
इंसान भी होता है एक दुखी प्राणी.
:: :: ::
Manoj Patel
एक अजीब तड़प है इसमें…
ReplyDeleteअत्यंत भावपूर्ण कविता . ट्रेन को इस नज़रिए से कभी नहीं देखा .
ReplyDelete"उदासी" का अलग-अलग मंजर .........अच्छी कविता ......!!
ReplyDeleteअच्छी कविता, सुंदर अनुवाद
ReplyDeleteइंसान ही होता है दुखी प्राणी! कभी भीड़ से दुखी तो कभी एकांत से दुखी!
ReplyDeleteअच्छी कविता का सुन्दर अनुवाद!